2070 तक ऊर्जा संकट को कैसे बचाया जाए...
By पंकज चतुर्वेदी | Published: December 3, 2021 07:42 PM2021-12-03T19:42:48+5:302021-12-03T20:11:45+5:30
आर्थिक विकास के लिए सहज और भरोसेमंद ऊर्जा की आपूर्ति अत्यावश्यक होती है, जबकि नई आपूर्ति का खर्च तो बेहद डांवाडोल है. दूसरी तरफ हमारे सामने सन 2070 तक शून्य कार्बन की चुनौती भी है.
अभी एक महीने पहले देश में कोयले की कमी के चलते दमकती रोशनी और सतत विकास पर अंधियारा छाता दिख रहा था. भारत की अर्थव्यवस्था में आए जबर्दस्त उछाल ने ऊर्जा की खपत में तेजी से बढ़ोतरी की है और यही कारण है कि देश गंभीर ऊर्जा संकट के मुहाने पर खड़ा है.
किसी भी देश के विकास की दर सीधे तौर पर वहां ऊर्जा की आपूर्ति पर निर्भर करती है. आर्थिक विकास के लिए सहज और भरोसेमंद ऊर्जा की आपूर्ति अत्यावश्यक होती है, जबकि नई आपूर्ति का खर्च तो बेहद डांवाडोल है. दूसरी तरफ हमारे सामने सन 2070 तक शून्य कार्बन की चुनौती भी है.
भारत में यूं तो दुनिया में कोयले का चौथा सबसे बड़ा भंडार है, लेकिन खपत की वजह से भारत कोयला आयात करने में दुनिया में दूसरे नंबर पर है. हमारे कुल बिजली उत्पादन 3,86888 मेगावाट में थर्मल पॉवर सेंटर की भागीदारी 60.9 फीसदी है. इसमें भी कोयला आधारित 52.6 फीसदी, लिग्नाइट, गैस व तेल पर आधारित बिजली घरों की क्षमता क्रमश: 1.7, 6.5 और 0.1 फीसदी है. हम आज भी हाइड्रो अर्थात पानी पर आधारित परियोजना से महज 12.1 प्रतिशत, परमाणु से 1.8 और अक्षय ऊर्जा स्नेत से 25.2 प्रतिशत बिजली प्राप्त कर रहे हैं.
इस साल सितंबर 2021 तक, देश के कोयला आधारित बिजली उत्पादन में लगभग 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. बिजली संयंत्रों में कोयले की दैनिक औसत आवश्यकता लगभग 18.5 लाख टन है जबकि हर दिन महज 17.5 लाख टन कोयला ही वहां पहुंचा. ज्यादा मानसून के कारण कोयले की आपूर्ति बाधित थी. बिजली संयंत्रों में उपलब्ध कोयला एक रोलिंग स्टॉक है जिसकी भरपाई कोयला कंपनियों से दैनिक आधार पर आपूर्ति द्वारा की जाती है. कोविड महामारी की दूसरी लहर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और बीते दो महीनों में ही बिजली की खपत 2019 के मुकाबले 17 प्रतिशत बढ़ गई है.
इस बीच दुनियाभर में कोयले के दाम 40 फीसदी तक बढ़े हैं जबकि भारत का कोयला आयात दो साल में सबसे निचले स्तर पर है. यह किसी से छुपा नहीं है कि कोयले से बिजली पैदा करने का कार्य हम अनंत काल तक कर नहीं सकते क्योंकि प्रकृति की गोद में इसका भंडार सीमित है. वैसे भी दुनिया पर मंडरा रहे जलवायु परिवर्तन के खतरे में भारत के सामने चुनौती है कि किस तरह कार्बन उत्सर्जन कम किया जाए, जबकि कोयले के दहन से बिजली बनाने की प्रक्रिया में बेशुमार कार्बन निकलता है. परमाणु बिजली घरों के कारण पर्यावरणीय संकट अलग तरह का है.
एक तो इस पर कई अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां हैं और फिर आण्विक पदार्थो की देखभाल और रेडियो एक्टिव कचरे का निपटारा बेहद संवेदनशील और खतरनाक काम है. हवा सर्वसुलभ और खतराहीन ऊर्जा स्नेत है. लेकिन इसे महंगा, अस्थिर और गैरभरोसेमंद माध्यम माना जाता रहा है. इस समय हमारे देश में महज 39.870 हजार मेगावाट बिजली हवा से बन रही है.
हमारे देश में अभी तक लगे पवन ऊर्जा उपकरणों की असफलता का मुख्य कारण भारत के माहौल के मुताबिक उसकी संरचना का न होना है. हमारे यहां बारिश, तापमान, आद्र्रता और खारापन पश्चिमी देशों से भिन्न है. जबकि हमारे यहां लगाए गए सभी संयंत्र विदेशी व विशेषकर ‘डच’ हैं. इसीलिए मौसम के कारण संयंत्र की पंखुड़ियों पर रासायनिक परत जमती जाती है और उसका वजन बढ़ जाता है.
सौर ऊर्जा एक अच्छा विकल्प है लेकिन इसके लिए बहुत अधिक भूमि की जरूरत होती है. एक बात हम नजरअंदाज कर रहे हैं कि सोलर प्लांट में इस्तेमाल प्लेट्स के खराब होने पर उसके निस्तारण का कोई तरीका अभी तक खोजा नहीं गया है और यदि उन्हें वैसे ही छोड़ दिया गया तो जमीन में गहराई तक उसके प्रदूषण का प्रभाव होगा.
यहां एक और बात पर गौर करना होगा कि पिछले कुछ सालों में हमारे यहां अक्षय ऊर्जा से प्राप्त बिजली संचय और उपकरणों में बैटरी का प्रयोग बढ़ा है. जबकि यह गौर नहीं किया जा रहा है कि खराब बैटरी का सीसा और तेजाब पर्यावण की सेहत बिगाड़ देता है. बिजली के बगैर प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती, जबकि बिजली बनाने के हर तरीके में पर्यावरण के नुकसान की संभावना है.
यदि ऊर्जा का किफायती इस्तेमाल सुनिश्चित किए बगैर ऊर्जा के उत्पादन की मात्र बढ़ाई जाती रही तो इस कार्य में खर्च किया जा रहा पैसा व्यर्थ जाने की संभावना है और इसका विषम प्रभाव अर्थव्यवस्था के विकास पर पड़ेगा. विकास के समक्ष इस चुनौती से निबटने का एकमात्र रास्ता है - ऊर्जा का अधिक किफायत से इस्तेमाल करना. ऊर्जा का संरक्षण करना उसके उत्पादन के बराबर है.