यूनुस खान का ब्लॉगः वो गुजरा जमाना याद आता है
By यूनुस ख़ान | Published: January 14, 2019 04:00 PM2019-01-14T16:00:57+5:302019-01-14T16:00:57+5:30
तकरीबन नब्बे के दशक की शुरुआत में फिल्मी-गीतों ने फिर से चमक बिखेरी और नई पीढ़ी को लुभाया. ये नई ध्वनियां थीं, नई आवाजें. नए संगीतकार.
यूनुस खान जाने-माने रेडियो जॉकी और फिल्म क्रिटिक 2019 की इस सर्द सुबह अगर किसी के किसी गैजेट पर गजलें बज रही हों और मौसम गुलाबी हुआ जा रहा हो तो ये समझ लीजिएगा कि गजलों का दौर कभी खत्म नहीं होगा.
मेहदी हसन गुनगुना रहे हैं, 'अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें/जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें.' फरीदा खानम की आवाज अगरबत्ती की तरह धीमी-धीमी खुशबू बिखेर रही है, 'आज जाने की जिद ना करो यूं ही पहलू में बैठे रहो' तबले की थाप पर मुन्नी बेगम की आवाज थिरक रही है, 'इक बार मुस्कुरा दो' और फिर नैयरा नूर कंधे पर हाथ रखकर कह उठती हैं, 'तुम मेरे पास रहो... मेरे कातिल, मेरे दिलदार मेरे पास रहो...'
आंखों से कोई याद आंसू की तरह ढुलक पड़ती है और जगजीत जैसे पुकार उठते हैं, 'अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें' और फिर चित्रा की पतली मीठी आवाज, 'मेरे दु:ख की कोई दवा ना करो'. कोई तयशुदा दिन नहीं होता ना, जब बेगम अख्तर गुनगुना उठती हैं, वो नए गिले वो शिकायतें, वो मजे-मजे की हिकायतें, वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो कि ना याद हो'.
कितनी-कितनी आवाजें. कितने कितने अशआर, गजलें अपने साथ बहा ले जाती हैं, वो हमें भिगो देती हैं, हमें बेहतर इंसान बनाती हैं. गजलें एक तरफ उदास शामों की सुरीली साथी रही हैं तो दूसरी तरफ इन्हीं से कई यादगार शामें रंगीन भी की जाती रही हैं. फिर ये सवाल उठता है कि गजलों का, उनकी महफिलों का वो दौर क्यों मद्धिम पड़ गया.
वो क्या था कि अचानक दुनिया रिदम और इलेक्ट्रॉनिक साजों के तिलिस्म में गिरफ्तार हो गई. तकरीबन हम सबके पास वो डायरियां मौजूद हैं, जिनमें हमने अपने बचपन के दौर में मशहूर गजलों को सुनकर अंकित कर लिया. उन्हें याद कर लिया. उन्हें साथ गुनगुनाया. हम सबके अपने पसंदीदा गजल-गायक रहे हैं. हमने अपने जेब-खर्च से गजलों के कैसेट खरीदे. उन्हें उस दौर के स्टीरियो प्लेयर पर खू़ब-खूब बजाया. उनके साथ मुस्कुराए, आंसू भी बहाए. फिर वो कैसेट बिसरा दिए गए.
वो डायरियां अलमारियों में बंद होती चली गईंं और उस दौर की यादों पर धुंध छाती चली गई. तो क्या वो जज्बात जिन्हें गजलें उकेरा और उभारा करती थीं, वो भी खत्म हो गए, वो बर्फ बन गए? मुझे ऐसा नहीं लगता. दरअसल गजलों का उत्कर्ष उस दौर में हुआ था जब फिल्मी-गीत अपने उतार पर थे, जब फिल्मी-गानों में बहुत चलताऊ बोल और धुनें हावी थीं और गजलों की दुनिया तब सूनी होती चली गई, जब फिल्मी गीतों ने रूमानियत और मिठास का जामा पहना और अस्सी के दशक के अंत में वो फिर से प्यार की बात कहने लगे.
तकरीबन नब्बे के दशक की शुरुआत में फिल्मी-गीतों ने फिर से चमक बिखेरी और नई पीढ़ी को लुभाया. ये नई ध्वनियां थीं, नई आवाजें. नए संगीतकार. नए प्रयोग. बस तभी से गजलों का सुर मद्धिम पड़ता चला गया. दूसरी वजह ये थी कि जो बुलंद शायर अपनी बेमिसाल गजलों से रोशनी बिखरे रहे थे, वो कम होती गई. अच्छी गजलें कम हुईं, दोहराव आता चला गया और सब कुछ इकहरा होता गया.
फिर गजलों का सूरज डूब गया. पर आज भी हमारे घरों में जब तब गजलों की महफिलें सजती हैं तो वो दौर जैसे फिर याद आ जाता है. आज भी कभी कभी मंच सजते हैं. पर ना अब वो जग्गू जी हैं ना मेहदी साहब, ना गुलाम अली में वो चमक बाकी है ना बाकियों में. गुलाम अली कितना सही कहते हैं ना अपनी गाई गजल में, हमें तो अब भी वो गुजरा जमाना याद आता है, तुम्हें भी क्या कभी कोई दीवाना याद आता है...