विजय दर्डा का ब्लॉग: क्या कहूं..क्या लिखूं..सुर ही थम गए..!
By विजय दर्डा | Published: February 7, 2022 09:41 AM2022-02-07T09:41:37+5:302022-02-07T09:41:37+5:30
लता मंगेशकर स्वर साम्राज्ञी तो थीं ही, बेहतरीन इंसान और सहजता की प्रतिमूर्ति भी थीं. वे यादों में अमर रहेंगी.
स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की यादों का एक बड़ा पिटारा मेरे जेहन में करीने से सजा है लेकिन आज शब्द भी जैसे मूर्छित हो रहे हैं. दिल रो रहा है और लिखते हुए कलम कांप रही है. क्या कहूं..क्या लिखूं..सुर ही थम गए हैं..! वे सुरों की साक्षात् सरस्वती थीं. उनके व्यवहार और संगीत साधना में इतनी निर्मलता और निश्छलता थी कि उनकी आराधना करने को दिल चाहता था.
मुझे बिस्मिल्ला खां जी का एक साक्षात्कार अभी भी याद है. उन्होंने कहा था- ‘मैं लता को इसलिए हमेशा सुनता रहा कि वो कभी तो बेसुरा गाएगी, कभी तो कोई गलती करेगी! ..लेकिन ना! उनकी संगीत साधना पर कोई उंगली नहीं उठा सकता.’ वाकई लताजी ऐसी ही थीं..!
वो अस्सी के दशक का कोई साल था जब मैं पहली बार महाकवि सुरेश भट्ट के साथ लताजी से मिलने मुंबई में उनके निवास स्थान प्रभु कुंज में गया था. लताजी का व्यवहार ऐसा था जैसे रक्षाबंधन पर भाई आया हो. दरअसल सुरेश भट्ट को वे अपना भाई मानती थीं. उस पहली मुलाकात में ही ऐसा अपनापन महसूस हुआ कि मेरे संबंधों में निरंतरता आ गई. रिश्ते मजबूत होते चले गए. यदा-कदा मुलाकातें होती रहती थीं.
2005 में एक दिन उनका फोन आया कि मैं नागपुर आई हूं, हम मिल पाएंगे क्या? उनकी सादगी, शालीनता और विनम्रता से मैं अभिभूत हो गया. मैंने कहा कि दीदी मैं अवश्य मिलने आता हूं. उन्होंने कहा ‘मैं’ नहीं ‘हम’! मैंने कहा कि दीदी समझा नहीं! उन्होंने कहा कि अपनी अर्धागिनी को भी लेकर आइए. बाद में पता चला कि ज्योत्सना ने उन्हें आमंत्रित किया था कि जवाहरलाल दर्डा संगीत कला अकादमी हमने शुरू की है, आप आकर आशीर्वाद दें. हम दोनों उनसे मिलने पहुंचे. बड़े प्यार से मिलीं. स्नेह से हमें लबालब कर दिया.
ज्योत्सना ने कहा कि घर पर चलिए खाना खाने. उन्होंने कहा कि कभी और आऊंगी क्योंकि दूसरे कामों में व्यस्त हूं. एक घंटा हमारे साथ उन्होंने बिताया. उसी बीच में ज्योत्सना ने उनके खाने के लिए घर से उनकी पसंद के कुछ व्यंजन बनवा कर मंगा लिए. उन्हें व्यंजन बहुत पसंद आए और उन्होंने कहा- ‘ये तो मेरा डिनर हो गया!’ उनकी वो मुस्कान मुझे अभी भी याद है.
मैंने उन्हें गौतम बजाज की ली हुई विनोबा भावे की तस्वीरों वाली किताब सौंपी जिसे हमने प्रकाशित किया था. वे प्रसन्न हो गईं और कहा कि मेरे लिए तो यह गीता माऊली है. उस किताब को उन्होंने सिर से लगाया. उन्होंने ज्योत्सना को कहा कि जवाहरलाल दर्डा संगीत कला अकादमी की स्थापना करके बहुत अच्छा काम किया है. मैं बाबूजी को बहुत अच्छे से जानती थी. उनसे मेरे संबंध नागपुर में 1959 में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के समय से रहे. मैंने उस अधिवेशन में प्रस्तुति दी थी. मेरे रिश्ते बाबूजी के साथ गहरे होते चले गए. दरअसल यह रिश्ता एनकेपी साल्वे और दिलीप कुमार के कारण और भी मधुर हुआ.
नवंबर 1999 में जब लताजी राज्यसभा के लिए निर्वाचित होकर संसद में पहुंचीं तो हमारी मुलाकातें ज्यादा होने लगीं. उनकी कोशिश रहती थी कि सदन की बैठकों में हमेशा उपस्थित रहें. उन्होंने कोई भत्ता लेने से भी मना कर दिया था. जब संसद सत्र होता था तब खाली समय में सेंट्रल हॉल में बैठकर हम कॉफी पीते थे. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि सांसद फंड से कुछ पैसे दोगे क्या हॉस्पिटल के लिए. पुणे में कैंसर के उपचार के लिए मंगेशकर हॉस्पिटल की स्थापना की है. मैंने कहा कि क्यों नहीं दीदी? अवश्य दूंगा.
उन्होंने कहा कि आपको भी लोगों को देना रहता है तो ऐसा करिए कि आप मुझे 25 लाख दे दीजिए, मैं आपको अपने फंड से 25 लाख दे दूंगी. मैंने तत्काल कहा कि दीदी मैं रिश्तों में व्यवहार नहीं करता हूं. आपने अच्छे काम के लिए मांगा है. अपनी नैसर्गिक मुस्कुराहट के साथ उन्होंने कहा कि जब जरूरत हो तो मुझसे जरूर मांग लेना. मैंने तत्काल उन्हें चेक भिजवा दिया था.
बाद में मुंबई से उनका फोन आया- भाऊ धन्यवाद. सेंट्रल हॉल में बैठे हुए एक बार उन्होंने मुझसे पूछा कि संसद के अंदर ये लोग इतने जोर-जोर से लड़ते हैं और यहां सेंट्रल हॉल में आकर साथ में काफी पीते हैं और टोस्ट खाते हैं! ऐसा हमारी इंडस्ट्री में नहीं होता है. हमारी इंडस्ट्री में तो किसी से नोकझोंक भी हो जाए तो एक-दूसरे का चेहरा देखना पसंद न करें! उन्होंने बहुत बड़ी बात कह दी थी..!
एक दिन मैंने उनसे पूछा कि ऐ मेरे वतन के लोगों.. की रिकॉर्डिग का किस्सा सुनाइए न! मैंने सुना है कि संगीतकार सी. रामचंद्र और आपका काफी मनमुटाव हो गया था. फिर ये रिकॉर्डिग कैसे हुई? लताजी ने कहा कि ये किस्सा अब छिपा हुआ नहीं है. सबको पता है. कवि प्रदीपजी ने गीत लिखा था और उन्होंने सी. रामचंद्र से कहा कि इस गीत को लता की ही आवाज मिलनी चाहिए और मुझे पता है कि आप उन्हें अपने साथ लेते नहीं हो. आप नाराज हो लेकिन इस गाने को आप कम्पोज करोगे और लता गाएंगी तो गीत अमर हो जाएगा. वही हुआ भी..!
लताजी एक बेहतरीन अंगूठी पहनती थीं. एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि ये खास अंगूठी आपने ली कहां से? सदाबहार मु्स्कुराहट के साथ उन्होंने कहा आपकी नजर कैसे पड़ गई. अरे भाई! बहरीन के किंग ने मुझे ये भेंट की थी...तो ऐसी कई निजी बातों पर भी लताजी से बात हो जाती थी. वास्तव में वे रिश्तों को संवारना और संभालना दोनों जानती थीं. जब मेरी अर्धागिनी ज्योत्सना ने इस दुनिया को अलविदा कहा तो उन्होंने अपने लैंडलाइन से मुझे फोन किया और बड़ी बहन की तरह मुझे ढाढस बंधाया.
दीदी का चले जाना मेरे लिए तो निजी क्षति है ही, उनका जाना इस पूरे वक्त के लिए अपूरणीय क्षति है. एक युग का अंत है जो शायद फिर कभी लौटकर नहीं आएगा.
प्रणाम दीदी.