शरद जोशी का ब्लॉग: फिल्मी निद्रा का जनप्रभाव
By शरद जोशी | Published: November 30, 2019 02:48 PM2019-11-30T14:48:32+5:302019-11-30T14:48:32+5:30
पर नेहरूजी ने फतवा दिया जो बड़ा सच है, कि फिल्में इतनी लंबी होती हैं कि नींद आने लग जाए यानी सोने की गोलियों सरीखा प्रभाव वे भी करती हैं
आजकल जनता सितारों के लिए और सितारे जनता के लिए बड़ा प्रेम दिखा रहे हैं. जनता तो सदा से दिखाती है पर अब जनतंत्र अर्थात आमची सरकार का प्रेम उमड़ा है. दो बीघा जमीन, श्यामची आई आदि पर राष्ट्रपति मोहित हो रहे हैं. उधर रूस में राजकपूर, विमल राय वाह-वाही लूट रहे हैं. सितारों के काफिले जहां से गुजरते हैं, वहीं जवानी आ जाती है.
पर नेहरूजी ने फतवा दिया जो बड़ा सच है, कि फिल्में इतनी लंबी होती हैं कि नींद आने लग जाए यानी सोने की गोलियों सरीखा प्रभाव वे भी करती हैं. कुछ लोग तो वाकई में सिनेमा में सोने ही जाते हैं. पड़ोसी से कह देते हैं- यार, वह कूक्कू का डांस हो तो उठा देना. कुछ हमारे हीरो-हीरोइन के चेहरों पर भी ऐसी भावुकता की मुर्दनी आ जाती है कि नींद आने लगती है.
फिर कहानी अपने ढंग से बढ़ती है, मां-बाप ने कैसे एक बच्चे को जन्म दिया और फिर ‘बीस साल बाद’ छोटे पैरों से बड़े पैर नजर आ जाते हैं और असली कहानी शुरू होती है. फिर प्यार हुआ. फिर एक गलतफहमी, एक पिस्तौलबाजी, एक बलात्कार की चेष्टा और थाने से पुलिस का आगमन और सुखांत.. दरवाजा टूटा, हीरो छूटा, हीरोइन पास में. बीच में एक कॉमिक जिसका इंचार्ज हो गोप या आगा.
यह तो हो गई कहानी.
फिर गीत भी सुला देने की क्षमता रखते हैं. इस बारे में भारत भूषण की ये पंक्तियां बड़ी अच्छी हैं, ‘न लेना नाम भी तुम अब इलम का, लिखो बस गीत हुक्के का, चिलम का, अभी खुल जाएगा रस्ता फिलम का’. धुनों के मामले में जमकर चोरी होती है. बराबर का सुनने-समझने वाला व्यक्ति इसे समझता है.
गीतों की भी लड़ियां होती हैं- चाह का गीत, एक राह का गीत और ब्याह का गीत. और इन सबके बीच में नारी जागृति या प्रजातंत्र की पुकार. फिर नृत्य, जिसके तीन तत्व हैं- छाती दिखा, कमर हिला और लहंगा उठा. जनता खोटे सिक्के पर्दे पर एक विशेष स्थान ताककर फेंकने लग जाती है.
इसको कहते हैं - बाक्स ऑफिस
हीरोइन अपनी बातचीत में बड़ी मासूम और हीरो बड़े चालाक, डायलॉग की फिर क्या पूछो! बीच में कुछ सामाजिक व्यंग्य और खेल सफल. इधर फिल्मों को और लंबी करने के लिए एक न्यूज रील, एक नई योजना, एक साबुन का विज्ञापन, दो ट्रेलर.. नींद आ जाने को यह काफी है.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)