भीमसेन जोशी: लोकप्रियता का प्रतिमान
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 24, 2025 06:55 IST2025-01-24T06:52:58+5:302025-01-24T06:55:26+5:30
पुणे के संदर्भ में एक अद्भुत बात यह है कि वहां का श्रोतावर्ग बहुत समझदार है. समझदारी सिर्फ वरिष्ठों में ही नहीं युवाओं में भी है.

भीमसेन जोशी: लोकप्रियता का प्रतिमान
अशोक वाजपेयी
भीमसेन जोशी को मैंने सबसे पहले दिल्ली में ‘शंकरलाल संगीत समारोह’ में सुना. उस समय जो गायक भारतीय परिदृश्य पर जमकर आ गए थे, उनमें भीमसेन जोशी एक थे. उनसे पहले के अमीर खां, गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर भी थे, हालांकि मल्लिकार्जुन मंसूर की दिल्ली में तब बहुत ज्यादा पूछ-परख नहीं थी. वह 1970 के बाद हुई. उस समय अमीर खां, गंगूबाई हंगल, रविशंकर, विलायत खां, बिस्मिल्लाह खां- इन सबका बड़ा रुतबा था.
उनके बाद वाली दूसरी जो पीढ़ी आ रही थी - भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व, पंडित जसराज - उसमें भीमसेन जोशी की बड़ी लोकप्रियता थी. वे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता का लगभग प्रतिमान थे, बावजूद इसके कि वे कुछ ही राग गाते थे.
उनकी राग सम्पदा देखें : यह नहीं कि उनको दूसरे राग आते नहीं थे, पर उनके जो राग बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुए, वे उन्हीं को गाते थे- पूरिया धनश्री, यमन कल्याण, दुर्गा, दरबारी, मियां की तोड़ी आदि.
भीमसेन जी 75 वर्ष के होने वाले थे. उनका फोन आया, ‘‘अशोक जी, मेरे 75 वर्ष पूरे हो गए हैं. यहां नगर निगम हमारा सत्कार कर रहा है, उसमें आपको आना है.’’ मैंने कहा, “आपकी आज्ञा, जरूर आऊंगा.” जब वहां जाने की तारीख पास आने लगी, तो उनके एक शिष्य श्रीकांत देशपांडे का फोन आया : ‘‘अशोक जी, आपको आना है. टिकिट किस तारीख का और कब तक का करवाऊं.’’ उनसे ऐसे ही बात होने लगी. मैंने उनसे पूछा, “और कौन लोग आ रहे हैं?” उन्होंने बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी आ रहे हैं.
वे उस समय प्रतिपक्ष के नेता थे. मैंने कहा, “दो वाजपेयी क्या करेंगे?” वह थोड़ा सकपका गए. जाहिर है, वह फोन भीमसेन जी के घर से कर रहे थे. उन्होंने फोन पंडित जी को पकड़ा दिया. वे बोले, ‘‘क्या बात है अशोक जी?’’ मैंने कहा, “पंडित जी, आपके आयोजन में दो वाजपेयी हो जाएंगे, तो एक से काम चलना चाहिए.” बोले, ‘‘अरे! क्या बात कर रहे हैं अशोक जी, वे तो भाषण देंगे, पर संगीत पर आप ही बोलेंगे.’’ किस्सा-कोताह कि मैं वहां पहुंचा. शाम को चार बजे सत्कार था, उसके पहले लंच था.
यह सत्कार वहां के प्रसिद्ध ‘ब्लू डायमंड’ या ऐसा कुछ नाम था, उसमें था. आयोजन में पुणे के गणमान्य लोग थे. रोहिणी भाटे भी थीं. खबर मिली कि अटल बिहारी वाजपेयी शहर में आ गए हैं, और लंच में शामिल होने आएंगे. थोड़ी देर उनका इंतजार हुआ, फिर लगा कि उनको आने में देर हो रही है. वहां पहले से आए अतिथि पहले खाना खा लें यह तय हुआ, क्योंकि चार बजे के कार्यक्रम में उनको फिर आना था. जब दूसरे जाने लगे, तो मैं भी जाने को हुआ. भीमसेन जी ने मुझे रोका, “अरे आप कहां जा रहे हैं. उनसे कौन बात करेगा, आप ही बात करिएगा.’’ बहरहाल! अटल जी आए. थोड़ी-बहुत देर रुके, थोड़ा खाना खाया और चले गए.
शाम को चार बजे सम्मान समारोह वहां के एक स्कूल के मैदान जैसे बहुत बड़े अहाते में था. वहां वे वर्षों से ‘सवाई गंधर्व समारोह’ करते आए थे और दूसरों को खुद बैठकर सुनते थे. सम्मान समारोह में अटल बिहारी वाजपेयी, नौशाद, जितेन्द्र अभिषेकी, मैं और पुणे की महापौर एक महिला थीं. हम पांच लोग. भारतीय जनता पार्टी के, उस समय के, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री आदि सब लोग सामने श्रोताओं-दर्शकों में थे.
महापौर ने ‘अभिनंदन-पत्र’ पढ़ा. उसके बाद नौशाद अली बोले, अल्लाह का ये करम है, वगैरह. जितेंद्र अभिषेकी का पैर बिल्कुल हाथी का पांव जैसा हो गया था. वे मधुमेह के मरीज थे; वे कुछ बोले नहीं. बोलने वाले बचे दो- मैं और अटल बिहारी वाजपेयी. पहले मुझे बोलना था. मैं बोला. मैंने अच्छे गायक और नायक गायक का अंतर बताया. मेरे बाद अटल बिहारी वाजपेयी बोलने आए. वे ज्यादातर जो मैंने कहा, उसी के संदर्भ को लेकर बोले- कि जैसा अशोक जी अभी कह रहे थे, वगैरह.
दिलीप चित्रे भी पुणे में रहते थे. कार्यक्रम के बाद उनके घर भागकर गया. कुछ रसरंजन किया, कुछ खाया. फिर कार्यक्रम में वापस आ गया. तब तक अटल बिहारी वाजपेयी जा चुके थे.
एक बार पुणे में एक आयोजन हुआ जिसमें भास्कर चंदावरकर, मैं और एक कोई और थे. भीमसेन जी ने आयोजन की अध्यक्षता की. मुझसे कहा गया था कि मैं किसी एक बड़े लेखक पर बोलूं और भास्कर चंदावरकर से कहा गया कि वे किसी के संगीत पर बोलेंगे. कोई एक और थे जिन्हें नाटक पर बोलना था. इस आयोजन में हुई मुलाकात मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी.
भीमसेन जी के संगीत में, ‘एक आवाज में कई आवाजें हैं.’ उनकी गायकी में किराना प्रधान होते हुए भी दूसरे कई घरानों के तत्व थे. एक तरह से, घरानों के बीच, एक तरह का खुलापन था. कहने को कट्टरता भी थी. वह कहने को ज्यादा थी. खुलापन इसलिए ज्यादा था कि इधर-उधर से कोई न कोई, कुछ न कुछ, ले सकता था. कई बार लेने वाला उसका एहतराम करता था कि ये ग्वालियर से है या कहीं और से है.
इसको लेकर श्रोताओं का बहुत समर्थन मिलता था कि वाह क्या बात है! अक्सर ऐसी युक्तियां ली जाती थीं जो उनके संगीत को कुछ और सुंदर या कुछ और समृद्ध या उसमें कुछ और चमक पैदा कर दे. एक तरह से घरानों से यह चुपचाप लिया जाता रहा और कई बार इनमें से कई लोगों ने दूसरे घरानों के गुरुओं से सीखा भी है.
कुमार गंधर्व भीमसेन जी के मित्र थे. उनकी मित्र-मंडली थी. भीमसेन जी यह जानते थे, उनको इस बात का एहसास था कि कुमार जी संगीत में जो कुछ कर रहे हैं वह बहुत मौलिक है, लेकिन वह कभी इतने लोकप्रिय नहीं हो पाएंगे जितने वे हैं. अनेक स्तरों पर उनकी मित्रता थी. कुमार जी को पुणे जाना बहुत अच्छा लगता था. उनके एक और मित्र थे- वसंतराव देशपांडे. वसंतराव देशपांडे, कुमार गंधर्व, पु. ल. देशपांडे, इन सबकी एक मंडली थी.
कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं किसी न किसी के 75 वर्ष होने पर कई बार पुणे गया. जैसे, भीमसेन जोशी के बाद में वसुंधरा कोमकली के 75 वर्ष, जिया फरीदुद्दीन डागर के 75 वर्ष, राजशेखर मंसूर के 60 वर्ष, पंडित रामनारायण के 75 वर्ष. ऐसे 75 वर्षों का भी एक सिलसिला पुणे के साथ जुड़ा हुआ है. पुणे के संदर्भ में एक अद्भुत बात यह है कि वहां का श्रोतावर्ग बहुत समझदार है. समझदारी सिर्फ वरिष्ठों में ही नहीं युवाओं में भी है. वहां के ‘सवाई गंधर्व समारोह’ में हजारों श्रोता होते हैं. ऐसे समारोह सभागार में नहीं हो सकते इसीलिए वे समारोह खुले में होते हैं.
(अशोक वाजपेयी ने जैसा पीयूष दईया को बताया)