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9/ 11 : आतंकवाद कैसे बना इस्लामी मुद्दा

By भाषा | Updated: September 13, 2021 15:29 IST

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(जारेड अहमद, पत्रकारिता, राजनीति एवं संचार के लेक्चरर, यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड)

शेफील्ड, 13 सितंबर (द कन्वरसेशन) अमेरिका में हुए 9/ 11 हमलों के 20 बरस हो गए। उस घटना की देन और व्यापक तौर पर कहें तो “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” पर विचार करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है जिसने आतंकवाद पर रिपोर्टिंग करने के समाचार मीडिया के तरीकों को बदल दिया। हालांकि हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि आतंकवाद, जैसा कि हम इसे परिभाषित करते हैं, अब एक सदी से भी अधिक समय से, हमलों से पहले से अस्तित्व में है लेकिन 9/11 हमलों ने आतंकवाद को दैनिक समाचारों का सतत हिस्सा बना दिया।

विद्वान लंबे समय से तर्क देते रहे हैं कि समाचार मीडिया और आतंकवाद के बीच एक सहजीवी संबंध है। पत्रकारों के लिए, आतंकवादी हिंसा समाचार के मुख्य मूल्यों को पूरा करती है जिसे बड़ी संख्या में पाठक पढ़ते हैं। आतंकवादियों के लिए, समाचार कवरेज औचित्य का भाव देता है और उनके उद्देश्य को प्रचारित करने का काम करता है। कोई भी घटना इस संबंध को 9/11 से बेहतर तरीके से नहीं समझा सकती है।

पूरे अमेरिका में सुबह के समाचार कार्यक्रम के साथ मेल खाने के लिए, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमलों में नाटकीयता को और बढ़ाने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि नेटवर्क कैमरा संचालकों के पास घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए समय हो, इमारतों से दो विमानों के टकराने में 17 मिनट का अंतर रखा गया था। कुछ मामलों में, समाचार नेटवर्कों ने करीब 100 घंटे तक लगातार दुनिया के लाखों लोगों को इसकी खबर दी।

इस समय के दौरान अल-कायदा के खतरे के बारे में, बीबीसी की खबरों पर मेरी पुस्तक के साक्षात्कार में, एक पत्रकार ने याद किया कि वह दिन कितना महत्वपूर्ण था: जिस तरह से इसने दुनिया को रोक दिया था, उस पर अब जोर देना मुश्किल है। और इसने इस तरह से ऐसा किया कि शायद ही किसी अन्य घटना ने मेरे जीवनकाल में पहले कभी किया हो। यह चौंका देने वाला था ... जो हुआ था उसकी भयावहता, मारे गए लोगों की संख्या, और फिर उन विशिष्ट टावरों को ढहते हुए देखना। इसके बाद के वर्षों में, अमेरिका और ब्रिटेन दोनों में "आतंकवाद" या "आतंकवादी" शब्दों से पटे पड़े समाचार पत्रों के लेखों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। यह उस तथ्य के बावजूद हुआ कि यूरोप और उत्तर अमेरिका में 1970 और 1980 के दशक में आतंकवादी हमले बहुत आम थे। ये आम तौर पर वामपंथी या दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा किए जाते थे।

किनके विचारों से बनते हैं समाचार?

9/11 के हमलों की नाटकीयता और समाचार महत्व के अलावा, आतंकवाद के सुर्खियों में आने का एक प्रमुख कारण यह था कि राजनेता और अन्य "विशिष्ट" वर्ग आतंकवाद के बारे में बहुत ज्यादा बात करने लगे।

राजनीतिक संचार विद्वता ने लंबे समय से समाचार एजेंडे पर शक्तिशाली स्रोतों के प्रभाव पर गौर किया है। फिर भी अध्ययनों से पता चलता है कि कैसे, 9/11 के बाद के दिनों, हफ्तों और महीनों में, राजनेता और सुरक्षा स्रोत (अक्सर गुमनाम और अनाम) आतंकवादी खतरे की खबरों पर हावी रहे और देशभक्ति के उत्साह के माहौल को प्रोत्साहित करने में मदद करते रहे हैं। यह भी दावा किया गया कि आतंकवादी खतरों के बारे में बात करते समय राजनेता अधिक भावनात्मक भाषा अपनाते हैं और समाचार मूल्य को और बढ़ाते हैं।

जैसे-जैसे "आतंक के खिलाफ युद्ध" का विस्तार हुआ, आतंकवादी स्वयं समाचार के प्रमुख स्रोत के रूप में उभरे। इंटरनेट और सोशल मीडिया के उद्भव का मतलब था कि आतंकवादी संगठनों की समाचार मीडिया तक पहले से कहीं अधिक पहुंच थी। समय के साथ, अस्पष्ट, मोटी-मोटी दुष्प्रचार तस्वीरों को आतंक के पीआर में शानदार, हॉलीवुड शैली के अभ्यास में बदल दिया गया, जिन्हें फौरन वैश्विक समर्थक दर्शकों के साथ साझा किया जा सकता है।

लेकिन पश्चिमी समाचारों में ऐसी तस्वीरों की मौजूदगी के बावजूद, मीडिया की खबरें अक्सर इस बात की विस्तृत व्याख्या करने में विफल रहती है कि आतंकवादी ऐसी हिंसक नीतियां क्यों अपनाते हैं। निष्कर्ष बताते हैं कि पश्चिमी मीडिया आमतौर पर आतंकवादी प्रचार वीडियो के राजनीतिक आयाम को छोड़ देता है, लेकिन अधिक खतरनाक, अक्सर विदेशी, पहलुओं को बरकरार रखता है।

आतंकवाद का इस्लामीकरण

हालांकि, 9/11 की शायद सबसे हानिकारक देन आतंकवादी खतरे का समरूपीकरण और इस्लामीकरण रहा है। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश समाचार रिपोर्टिंग में इस्लाम और मुसलमानों को आतंकवाद के साथ जोड़ दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, शोध से पता चलता है कि ब्रिटेन में दर्शकों ने 9/11 के हमलों के बाद के वर्षों में इस्लाम और मुसलमानों के बारे में समाचारों में नाटकीय वृद्धि देखी जो 2001 और 2006 में चरम पर थी। हालांकि हमेशा नकारात्मक अंदाज में नहीं, मीडिया खबरें आतंकवाद, हिंसक उग्रवाद और मुसलमानों के सांस्कृतिक अंतर पर विषयगत ध्यान केंद्रित करती हैं।

इसके अलावा, अमेरिका में, विद्वानों ने दिखाया है कि कैसे मुस्लिम अपराधियों से जुड़ी आतंकवादी हमलों की खबरें अपराधी के गैर-मुस्लिम होने की तुलना में लगभग 375 प्रतिशत अधिक ध्यान खींचती हैं।

लेकिन वैश्विक आतंकवाद सूचकांक हमें याद दिलाता है कि केवल 2.6 प्रतिशत हमले और आतंकवाद से होने वाली 0.51 प्रतिशत मौतें पश्चिमी देशों में होती हैं। इस तरह के अधिकांश हमले इस्लामवाद के बजाय जातीय-राष्ट्रवादी कारणों से प्रेरित होते हैं। इतना ही नहीं, आतंकवादी हिंसा से सबसे अधिक प्रभावित पांच देश (अफगानिस्तान, इराक, नाइजीरिया, सीरिया और सोमालिया) ऐसे देश हैं जो मुख्यत: ‘‘मुस्लिम’’ के तौर पर पहचान रखने वाले लोगों से बने हैं।

सीखे गए सबक ?

9/11 के हमलों ने आतंकवाद के एक नए युग की शुरुआत की। उन घटनाओं, और नतीजतन "आतंक के खिलाफ युद्ध", ने समाचार के नए विषय के रूप में आतंकवाद के मूल्य को काफी हद तक बढ़ा दिया। हमलों ने यह भी सुनिश्चित किया कि राजनीतिक या सुरक्षा सेवाओं के सदस्यों जैसे आतंकवादी खतरे के स्तर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में निहित स्वार्थ वाले समूह समाचार कवरेज को आकार देने वाले प्रमुख वर्ग बने रहे हैं। और, उन समूहों के लिए, केवल एक प्रकार का "आतंकवाद" महत्वपूर्ण है।

इसका मतलब आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्ट करने के तरीके खोजना है, जो आतंकवादी हिंसा को सनसनीखेज न बनाते हों। इसका मतलब यह है कि नेताओं द्वारा इस मुद्दे को अपना हित साधने के लिए इस्तेमाल करने के सरल तरीके को चुनौती देना और घटनाओं को जैसे वे हुई हों वैसे ही प्रासंगिक बनाना। और, अंत में, इसमें "हम" को "उन" से अलग करने वाली गहरी रूढ़ियों को पहचानना और उनका मुकाबला करना शामिल है।

अगर ऐसा नहीं होता है, तो समाचार मीडिया हमेशा आतंकवाद द्वारा “हाइजैक” होता रहेगा।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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