Hindu Marriage: आखिर सात फेरों के बिना दुल्हनियां क्यों नहीं बनती पिया की सांवरी, कैसे होता है हिंदुओं में विवाह, किस विवाह को माना जाता है श्रेष्ठ, जानिए यहां

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: January 12, 2024 02:36 PM2024-01-12T14:36:02+5:302024-01-12T14:42:02+5:30

हिंदू धर्म में विवाह को केवल संतान पैदा करने का साधन मात्र नहीं माना जाता है बल्कि हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से विवाह को भी एक प्रमुख संस्कार का दर्जा दिया गया है।

Hindu Marriage: Why don't brides become brides without seven rounds, how does marriage take place among Hindus, which marriage is considered best, know here | Hindu Marriage: आखिर सात फेरों के बिना दुल्हनियां क्यों नहीं बनती पिया की सांवरी, कैसे होता है हिंदुओं में विवाह, किस विवाह को माना जाता है श्रेष्ठ, जानिए यहां

फाइल फोटो

Highlightsहिंदू धर्म में विवाह का उद्देश्य केवल संतान पैदा करना नहीं होता हैहिंदुओं के सोलह संस्कारों में से विवाह को भी एक प्रमुख संस्कार का दर्जा दिया गया हैहिंदू धर्म में मूलरूप से विवाह के आठ स्वरूपों का उल्लेख मिलता है

Hindu Marriage:  सनातन हिंदू धर्म में विवाह को केवल संतान पैदा करने का साधन मात्र नहीं माना जाता है बल्कि हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से विवाह को भी एक प्रमुख संस्कार का दर्जा दिया गया है।

हिन्दू विवाह के उद्देश्यों और स्वरूपों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि यह सात जन्मों का पवित्र रिश्ता है न कि संविदा (contract) या अस्थायी बन्धन है। यह एक ऐसा धार्मिक संस्कार है, जिसका पालन गृहस्थ जीवन में रहने वाले सभी हिन्दुओं के लिए अनिवार्य होता है।

हिन्दू-विवाह संस्कार कैसे है ?

इसे समझने के लिए हमें सबसे पहले संस्कार को समझना होगा। संस्कार मानव जीवन में शुद्धिकरण की उस प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसके द्वारा व्यक्ति में सामाजिकता का विकास होता है। इससे स्पष्ट होता है कि 'संस्कार' वह गुण है, जो मानव को सामाजिक जीवन जीने के योग्य बनाता है।

इस तरह से हिन्दू-विवाह एक संस्कार है क्योंकि इसके जरिये मनुष्य सामाजिक मर्यादा और धार्मिक क्रियाओं का पालन करता है। हिन्दूओं में मनुष्य विवाह के माध्यम से वह सभी कार्य करता है, जिससे उसके धार्मिक, चारित्रिक, नैतिक और सामाजिक कार्य पूरे होते हैं।

यही कारण है कि हिंदुओं में विवाह का आधार धर्म है। धर्म यानी जिसे धारण किया जा सके। यही कारण है कि हिन्दू-विवाह का उद्देश्य यौन सन्तुष्टि न होकर धार्मिक कर्तव्यों की पूर्ति करना है। विवाह में 'काम' को यदि कुछ महत्त्व दिया गया है तो वह भी केवल पुत्र-प्राप्ति के लिए, जिससे मनुष्य के वंश की वृद्धि हो, पितरों का तर्पण हो सके और यज्ञ-आहूति का कार्य संपन्न हो सके। 

हिंदू धर्म में कितने तरह के विवाह होते हैं ?

हिंदू धर्म में मूलरूप से विवाह के आठ स्वरूपों का उल्लेख मिलता है। लेकिन हमें विवाह के इन आठ स्वरूपों को समझने से पहले ही यह जानना बेहद आवश्यक है कि हिन्दू धर्म में स्त्री को सदैव सम्मान और प्रतिष्ठा के रूप देखा और जाना गया है। यही कारण है कि यदि कोई पुरुष कुटिल, अनैतिक और अधार्मिक तरीकों से भी यदि स्त्री से सम्बन्ध स्थापना कर लेता था तो बाद में ऐसे सम्बन्ध को विवाह के स्वरूप में मान्यता देने का प्रयास किया जाता था ताकि स्त्री के जीवन को कलंकित होने अथवा बर्बाद होने से बचाा जा सके।

इस प्रकार हिंदुओं में विवाह के कुल आठ स्वरूप बनते हैं। विवाह के इन आठ स्वरूपों में चार स्वरूपों को धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से उत्कृष्ट माना जाता है, जबकि अन्य चार स्वरूप निकृष्ट कोटि के हैं और इनकी अनुमति कुछ विशेष परिस्थितियों में ही दी जाती है।

पहली चार श्रेणियों में ब्रह्म, दैव, आर्ष तथा प्रजापत्य विवाह को शामिल किया आता है, वहीं दूसरी श्रेणी में असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाह को रखा जाता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि प्रथम श्रेणी के विवाहों से उत्पन्न होने वाले सन्तान शीलवान, यशस्वी, अध्ययनशील और सम्पत्तिमान होती है, जबकि दूसरी श्रेणी के विवाहों के फलस्वरूप मिथ्यावादी, दुराचारी और धर्म-विरोधी हो सकते हैं।

1. ब्रह्म विवाह - सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार यह विवाहों में सबसे उत्तम कोटि का विवाह है। मनु का कथन है कि कन्या के पिता द्वारा जब किसी योग्य, सच्चरित्र और धर्म परायण वर को आमन्त्रित करके उसे आभूषणों से युक्त कन्या दान में दी जाती है, तो इस विवाह विधि को 'ब्रह्म विवाह' कहा जाता है। वर्तमान समय में विवाह के इसी स्वरूप हिंदुओं में सबसे अधिक प्रचलन में है।

2. देव विवाह - मनुस्मृति में कहा गया है कि जब यज्ञ के समय यज्ञ संपन्न वाले पुरोहित (ऋत्विक) को अलंकारों से सुसज्जित करके जब कन्या दान में दी जाती है, तब उस विवाह को 'देव विवाह' कहा जाता है। प्राचीनकाल में यज्ञों का विशेष महत्त्व होने के कारण किसी पुरोहित से कन्या का विवाह करना सबसे अच्छा समझा जाता था। मनु ने इस संबंध में यहां तक कहा है कि ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान सात पीढ़ी ऊपर तथा सात पीढ़ी नीचे तक के पितरों का उद्धार कर देती है। लेकिन इस अतिश्योक्ति के इतर अनेक विद्वानों ने देव विवाह की आलोचना भी की है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि ऐसा विवाह उत्तम नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे विवाहों में वर और वधू की आयु में काफी भिन्नता होती थी। इस कारण से विवाह का यह स्वरूप कभी भी हिंदुओं के व्यवहारिक जीवन में प्रचलित नहीं हो पाया। इस विवाह की आलोचना इस लिहाज से भी होती है कि इससे पुरोहितों को श्रेष्ठता को स्थापित करने का अनावश्यक प्रयत्न किया गया है।

3. आर्ष विवाह- कन्या का पिता जब विवाह करने के इच्छुक ऋषि को एक जोड़ा बैल और गाय भेट करके उसके साथ अपनी कन्या का विवाह करता है तब ऐसा विवाह 'आर्ष विवाह' कहलाता है। इस प्रकार यह विवाह ऋषियों से ही सम्बन्धित होने के कारण 'आर्ष विवाह' कहलाता है। वर्तमान काल में विवाह के इस रूप का कोई अस्तित्व नहीं है।

4. प्रजापत्य विवाह - जब कन्या का पिता वर को यह कहकर कि 'तुम दोनों मिलकर संयुक्त जीवन धर्म का आचरण करो' कन्यादान करता है तो ऐसे विवाह को 'प्रजापत्य विवाह' कहा जाता है। वास्तव में, प्रजापत्य और ब्रह्म विवाह की विधि में कोई मूलभूत अन्तर प्रतीत नहीं होता है।

लेकिन विद्वानों का मानना है कि प्रजापत्य का अर्थ होता प्रजा अथवा जनसाधारण से है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्रह्म विवाह में कन्या के पिता द्वारा विवाह के समय पुत्री के लिए वस्त्रों नया आभूषणों को व्यवस्था करना आवश्यक है, वहीं प्रजापत्य पद्धति के अन्तर्गत विवाह को वैदिक रीति से संपन्न करते हुए वस्त्रों तथा अलंकारों के साथ कन्यादान करना पिता के लिए आवश्यक नहीं था। ऐसे विवाह परम्परागत वैदिक पद्धति के अन्तर्गत होते हुए भी जन-सामान्य नयवा निर्धन वर्ग द्वारा व्यवहार में लाये जाते होंगे जबकि ब्रह्म विवाह का प्रचलन धनी और संपन्न वर्ग तक ही सीमित रहा होगा।

5. असुर विवाह - मनुस्मृति के अनुसार "जब कन्या अथवा उसके पिता को जान-बूझकर यथाशक्ति धन या प्रलोभन देकर स्वच्छन्दतापूर्वक विवाह किये जाये तो असुर विवाह कहा जाता है। यह विवाह निकृष्ट कोटि का है। इसके अन्तर्गत उन सभी विवाहों को सम्मिलित किया जा सकता है जो वधू का मूल्य लेकर सम्पन्न होते है।

6. गान्धर्व विवाह- जब काम के वशीभूत होकर कन्या और वर विवाह से पूर्व यौन सम्बन्ध स्थापित कर लें, तब ऐसे विवाह को गान्धर्व विवाह कहा जाता है। ऐसे विवाहों में माता-पिता की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता है। आरम्भ में ऐसे विवाह क्योंकि रूपवान गान्धर्वों और कामुक स्त्रियों के बीच होते थे, इसलिए उस विवाह को गान्धर्व विवाह कहा गया।

वर्तमान समय में ऐसे विवाहों को विशेष परिस्थितियों में 'प्रेम-विवाह' के भी नाम से जाना जाता है। यद्यपि प्रेम विवाह में विवाह पूर्व यौन संबंध स्थापित हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। अधिकांश विद्वान गान्धर्व विवाह की आलोचना करते हैं लेकिन बौधायन और वात्सायन ने विवाह के इस स्वरूप को सबसे अच्छा माना है क्योंकि ये वर और कन्या की स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर करते हैं।

7. राक्षस विवाह - मनुस्मृति में कहा गया है कि युद्ध में हरण करके जब स्त्री का विवाह किया जाता है तो उसे राक्षस विवाह कहते हैं। महाभारत काल में सम्भवतः इस प्रकार के विवाह प्रचलन में थे। युद्ध के द्वारा मनचाही स्त्री को प्राप्त करके उससे विवाह करने का प्रचलन बेहद निंदनीय माना जाता है। इसलिए ऐसे विवाह को 'राक्षस विवाह' कहा जाता है।

8. पैशाच विवाह- हिंदु धर्म में इस विवाह को सबसे निंदनीय, घृणित और अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। मनु के अनुसार सोई हुई, कामोन्मत, मदिरापान की हुई अथवा राह में अकेली स्त्री के साथ बलपूर्वक कुकृत्य करके बाद में उसी मनुष्य से विवाह करना पैशाच विवाह कहा जाता है। यह आठों विवाह की परंपरा में सबसे अधम माना जाता है। ऐसे विवाहों में स्त्री के निर्दोष होने के कारण अनेक धर्मशास्त्रकारों ने निकृष्ट मानते हुए भी उसे विवाह की मान्यता दे दी है। 

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