Govatsa Dwadashi: गोवत्स द्वादशी की पौराणिक कथा संसार के प्रथम पुरुष मनु और उनकी पत्नी शतरूपा की संतान राजा उत्तानपाद से संबंधित है। मनु सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा का पुत्र थे। मनु और शतरूपा के दो पुत्र थे। प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद बड़े थे। उनकी दो पत्नियां थीं- सुनीति और सुरुचि।
धरती पर गोवत्स द्वादशी का व्रत उत्तानपाद और पत्नी सुनीति ने शुरू किया था। इस व्रत के फलस्वरूप उन्हें संतान सुख की प्राप्ति हुई।
सुनीति ने पुत्र ध्रुव को जन्म दिया था। वही, ध्रुव जो भगवान विष्णु के महान भक्त कहलाए और उन्हें तारामंडल में एक विशेष स्थान प्राप्त है।
नि:संतान होने के कारण उत्तानपाद की दूसरी पत्नी सुरुचि को सुनीति और ध्रुव से ईर्ष्या हो गई। सुरुचि ने ध्रुव को जान से मारने की कोशिशें कीं लेकिन अपने इरादे में सफल नहीं हो सकी। ध्रुव बड़े होकर भगवान के महान भक्त और पराक्रमी कहलाए।
एक बार सुरुचि ने सुनीति से ध्रुव के सुरक्षित रहने की वजह पूछी। सुनीति ने सुरुचि को गाय की सेवा करने और कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को व्रत रखने की बात कही। आखिर सुरुचि ने भी गोवत्स द्वादशी पर व्रत रखा और उसे संतान की प्राप्ति हुई।
गोवत्स द्वादशी पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के बाद माता यशोदा ने पहली बार गाय की सेवा और पूजा कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को ही की थी। इसी तिथि को माता यशोदा ने कन्हैया का ग्वाले के रुप में श्रंगार किया था और कृष्ण पहली बार गाय चराने के लिए गए थे। कहा जाता है कि गाय-बछड़ों की रक्षा के लिए ही भगवान गोकुल में रहे थे।
कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के बाद धर्मराज युधिष्ठिर व्यथित हो गए थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा था कि युद्ध में पांडवों की तरफ से किए गए छल-कपट और पापों का प्रायश्चित कैसे होगा? इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें राजा उत्तानपाद और सुनीति की कथा सुनाई थी और कहा था गौ सेवा से वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएंगे।
गोवत्स द्वादशी व्रत और लाभ
इस तिथि पर विधि पूर्वक गौ माता की पूजा करने और व्रत रखने से समस्त पापों से मुक्ति हो जाती है और नि:संतान दंपतियों को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद मिलता है। गाय की सेवा से मनुष्य के चित्त में शांति ठहरती है। कहा जाता है कि गाय के शरीर में समस्त देवी-देवताओं का वास होता है।