सियासी क्रूरता का अभाव है और अमर्यादित भाषा बोलने-झेलने की क्षमता नहीं है, तो डिबेट में नहीं जाएं?
By प्रदीप द्विवेदी | Published: August 14, 2020 03:04 PM2020-08-14T15:04:29+5:302020-08-14T15:04:29+5:30
मर्यादा की सीमारेखा सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने लांघी, उसके बाद टीवी की बहस में आरोप-प्रत्यारोप की जहरीली भाषा का प्रवेश हुआ और अब ऐसी अमर्यादित भाषा का उपयोग बड़े आराम से हो रहा है. केवल भाषा ही नहीं, बहस के विषय और एंकरों की भूमिका पर भी सवालिया निशान है.
जयपुरः लगता है, पत्रकारिता के सारे कानून-कायदे केवल प्रिंट मीडिया के लिए ही बचे हैं. शेष मीडिया को कुछ भी लिखने-बोलने की पूरी आजादी है. जिन अमर्यादित शब्दों को छापा नहीं जा सकता है, जो आपत्तिजनक विवरण प्रकाशित नहीं किया जा सकता है, जो संवेदनशील जानकारी दी नहीं जा सकती है, टीवी डिबेट में उनसे संबंधित सारी चर्चाएं बेखौफ चल रही हैं.
पहले मर्यादा की सीमारेखा सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने लांघी, उसके बाद टीवी की बहस में आरोप-प्रत्यारोप की जहरीली भाषा का प्रवेश हुआ और अब ऐसी अमर्यादित भाषा का उपयोग बड़े आराम से हो रहा है. केवल भाषा ही नहीं, बहस के विषय और एंकरों की भूमिका पर भी सवालिया निशान है.
किसी पत्रकार को अधिकार है कि वह अपनी बात कहे, लेकिन जब वह एंकर होता है, तब वह एक जज की भूमिका में होता है, लिहाजा वह किसी एक पक्ष की ओर जाता नजर नहीं आना चाहिए. देश में भ्रष्टाचार तो खत्म नहीं हुआ, शिष्टाचार तेजी से खत्म हो रहा है. नतीजा? पप्पू से शुरू हुई सियासी धूलंडी फेकू से होते हुए धमकी और गाली-गलौज तक पहुंच गई है.
ऐसी बहस में भ्रष्टाचार के, बेइमानी के, जयचंद होने के, नकली हिन्दू-मुस्लिम होने के आदि तमाम तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगना आम बात है. क्योंकि, विचारों के विविध रंगो की होली अब वाद-विवाद के कीचड़ की धूलंडी बन चुकी है इसलिए, यदि किसी व्यक्ति में सियासी क्रूरता का अभाव है और उसमें अमर्यादित भाषा बोलने-झेलने की क्षमता नहीं है, तो उसे टीवी डिबेट में नहीं जाना चाहिए!