गुजरात चुनाव के नतीजों से राहुल गांधी और कांग्रेस सीख सकते हैं ये 5 सबक
By रंगनाथ | Published: December 20, 2017 02:22 PM2017-12-20T14:22:05+5:302017-12-20T15:26:22+5:30
गुजरात की 182 विधान सभा सीटों में से 99 पर बीजेपी को और 77 पर कांग्रेस को जीत मिली है। राज्य में सरकार बनाने के लिए 92 सीटों की जरूरत होती है।
अपने-अपने कोर्सों में फेल या पास होकर जब बीएचयू के डालमिया हॉस्टल के तमाम लड़के जिंदगी की राहों पर निकलने लगे तो बहुतों ने यादगार के तौर पर अपनी भावनाएं लिखकर एक-दूसरे को सौंपीं। मेरे दोस्त गौरव ने मेरी डायरी में लिखा, "दोस्त याद रखना हार के हजार कारण होते हैं, जीत का कोई नहीं।" गुजरात चुनाव में बीजेपी के पिछले दो दशकों में पहली बार दो अंकों में सिमट जाने के बावजूद बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल कर लेने के बाद अपने दोस्त की नसीहत ज़हन में तैर गयी। राजनीतिक विश्लेषक अपने-अपने राजनीतिक रुझानों के अनुसार कांग्रेस-बीजेपी को चढ़ा-गिरा रहे हैं। बीजेपी का बहुमत चाहे जितना भी दुबला हो, गुजरात का वर्तमान और निकट भविष्य बीजेपी के ही हाथ में रहेगा।
राजनीतिक समीकरण रातों-रात बदलते हैं। गुजरात के मौजूदा समीकरण आने वाले विधान सभा चुनावों या 2019 के लोक सभा चुनाव तक कायम रहेंगे ये सोचना या तो अदूरदर्शिता है या अपरिपक्वता। देश के पिछले 10 चुनावों की विश्लेषण करें तो ठोस मुद्दों के बजाय उनमें इमोशनल मुद्दों ने ज्यादा बड़ी भूमिकाएं निभायीं। 2014 में भी हावी रहे काला धन और विकास के मुद्दे भी ठोस तथ्यों से ज्यादा भावनाओं पर आधारित थे। तमाम तरह के झूठे आंकड़ों और दावों से जनता की मन में बैठी दो भावनाओं को कुरेदा गया। एक, देश के अमीर लोगों ने विदेशों में कालाधन जमा कर रखा है और दो, देश का पिछले छह दशकों में कोई विकास नहीं हुआ है। जाहिर है आम जनता ने कभी भी इन मुद्दों पर तथ्यों की रोशनी में विश्लेषण नहीं किया होगा। न ही राजनेता चाहते हैं कि ऐसा हो। हालिया हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनाव में भी धर्म-कर्म, हिंदू-मुसलमान, ऊंच-नीच जाति, मान-अपमान, भारत-पाकिस्तान आखिरी समय में ज्यादा हावी नजर आए। मतदान के पहले इन मुद्दों पर बीजेपी और कांग्रेस जिस तरह से पिल पड़े उससे जाहिर है कि दोनों ही दल वोट के लिए इमोशनल कार्ड पर ज्यादा भरोसा कर रहे थे।
कांग्रेस और राहुल गांधी को याद रखना चाहिए कि गुजरात में भले ही वो सत्ताधारी दल के किले में कुछ जगहों पर सेंध मारने में सफल रहे लेकिन दुर्ग अभी बीजेपी के हाथ में है। बीजेपी को किले की मरम्मत करनी है। जो दुर्ग तोड़ने की तुलना में आसान काम है। ऐसे में गुजरात में बीजेपी ने क्या खोया है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है ये जानना कि कांग्रेस के लिए इस नतीजे में क्या सबक छिपा है?
1- मजबूत स्थानीय नेता की कमी
कांग्रेस अध्यक्ष रहे देवकांत बरुआ ने 1976 में भारतीय राजनीति के सबसे कुख्यात बयानों में एक दिया था, "इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा।" आज भी गांधी-नेहरू परिवार कांग्रेस का पर्याय बना हुआ है। 1970 में रोपी गयी ये विषबेल कांग्रेस पर ग्रहण बनकर छा चुकी है। इंदिरा गांधी ने जिस तरह विभिन्न प्रदेशों के मजबूत कांग्रेसी नेताओं को किनारे करना शुरू किया उसे राजीव गांधी ने भी आगे बढ़ाया। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में जमीनी नेताओं का जबरदस्त अभाव हो गया। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इंदिरा, राजीव या सोनिया तक ने प्रभावी क्षेत्रीय नेताओं को पार्टी में उभरने नहीं दिया ताकि उनके वर्चस्व को कोई चुनौती न दे सके। शरद पवार, माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, अर्जुन सिंह जैसे मजबूत नेताओं को गांधी-नेहरू परिवार खुद के लिए खतरा समझता रहा। नतीजा ये हुआ कि सभी प्रदेशों में कांग्रेसी नेताओं और संगठन का हालत खस्ता होती गयी।
गुजरात में भी बीजेपी के खिलाफ जिन चार नेताओं की सबसे ज्यादा चर्चा रही उनमें राहुल गांधी के अलावा बाकी तीन नेता (जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल) गैर-कांग्रेसी रहे। नीतीश कुमार की जदयू से बगावत करके अपनी पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने वाले छोटू भाई वासवा ने जिस तरह गुजरात में अपनी पार्टी को दो सीटों पर जीत दिलायी है उससे भी साफ है कि नजदीकी मुकाबलों में स्थानीय नेता बड़ी भूमिका निभाते हैं। इस मामले में कांग्रेस की जमीन कितनी पोपली है वो शक्तिसिंह गोहिल व अर्जुन मोधवडिया जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की हार से साफ है। गांधी परिवार कांग्रेस की धुरी है जो समूचे पहिये को जोड़े रखने का काम कर सकता है लेकिन बीजेपी का मुकाबला करने के लिए उसे इस पहिये में मजबूत तीलियां लगानी होंगी तभी वो सत्ता में वापसी कर सकेगी।
2- संगठन और बूथ मैनेजमेंट
गुजरात में मिली नजदीकी हार के बाद कांग्रेसी नेता अहमद पटेल ने मीडिया से कहा, "गुजरात में बीजेपी के पास बूथ स्तर पर प्रभावी प्रबंधन और रणनीति थी और यहीं कांग्रेस उनसे मात खा गई" गुजरात में करीब एक दर्जन सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच हार का अंतर बहुत मामूली रहा। कुछ हजार या कुछ सौ अंतर वाली सीटों पर बूथ मैनेजमेंट की बड़ी भूमिका होती है। मतदाताओं को घर से निकालकर बूथ तक ले जाने की चौकसी से ही ऐसी सीटों का भविष्य तय होता है। सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार पटेल ने मर्ज तो ठीक पकड़ा है लेकिन इसकी कोई दवा भी कांग्रेस आलाकमान करेगा इसमें संदेह है। पिछले तीन-चार दशकों में कांग्रेस का स्थानीय संगठन जर्जर या खत्म हो चुका है। इंदिरा काल में चली गैर-कांग्रेसवाद की लहर ने 1990 के दशक तक विभिन्न राज्यों में अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। नेता और संगठन के अभाव में कांग्रेस एक-एक कर विभिन्न प्रदेशों से उखड़ती गयी। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और बिहार जैसे राज्यों से लगभग गायब होने और अन्य प्रदेशों में हाशिये पर जाने को कांग्रेस ने शुरू में ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। उसे लगता रहा होगा कि केंद्र में देश का एकमात्र विकल्प वही है। लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभरने और स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों के मजबूत होने की वजह से कांग्रेस केंद्र से ही उखड़ती नजर आने लगी।
आज स्थिति ये है कि बीजेपी के विकल्प के रूप में किसी राष्ट्रीय पार्टी की गैर-मौजूदगी ही कांग्रेस की आखिरी ताकत नजर आ रही है। बीजेपी विरोध ही वो धुरी है जिस पर कांग्रेस को हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश जैसे युवा नेताओं के साथ ही ममता बनर्जी, लालू यादव और अखिलेश यादव जैसे नेताओं का समर्थन और साथ मिल रहा है। विकल्पहीनता का विकल्प बनकर कांग्रेस बीजेपी को केंद्र और राज्यों से नहीं बेदखल कर सकती। उससे खुद को बीजेपी से बेहतर विकल्प के रूप में ही सामने आना होगा। और इसकी शुरुआत बूथ स्तर से हो तो बेहतर।
3- बुनियादी वोट बैंक
चुनाव दर चुनाव ये बात साफ है कि कोई भी राजनीतिक दल हो सत्ता में आने के लिए उसके पास ठोस वोट बैंक होना चाहिए। तात्कालिक हवा या लहर बनाना एकाध बार काम दे सकता है हमेशा नहीं। वोट बैंक सत्ता के किले की बुनियाद की तरह है। पिछले कई चुनावों से ये साफ हो चुका है कि 5-10 प्रतिशत वोट स्विंग के जरिए कोई भी पार्टी सत्ता में आ सकती है बशर्ते उसका अपना वोट बैंक उसके साथ रहे। एक जमाना था कि ब्राह्मण, दलित और मुसलमान कांग्रेस के वोट बैंक माने जाते थे। बीजेपी को शुरू में ब्राह्मण-बनिया पार्टी माना जाता था। बीजेपी ने कांग्रेस से उसका ब्राह्मण वोट बैंक धीरे-धीरे तोड़ लिया और खुद को पहले सवर्णों की पार्टी के रूप में स्थापित किया।
क्षेत्रीय दलों ने दलित वोट बैंक अपने खाते में जमा कर लिए। मुस्लिम हर राज्य में अलग-अलग दलों के वोटर बन गये। आज स्थिति ये है कि मुसलमान लोक सभा चुनाव में बीजेपी को वोट देते हैं तो इस तर्क के साथ कि बीजेपी का विकल्प क्या है? वोट बैंक होने की वजह से ही लालू यादव बिहार में गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहे। वोट बैंक होने के नाते ही यूपी में बुरी तरह हारने के बावजूद सपा और बसपा का वोट प्रतिशत लगभग बरकरार रहा और अगले चुनाव में उन्हें हल्के में लेने की भूल बीजेपी नहीं करेगी। 2014 के लोक सभा और बाकी राज्यों में बीजेपी को मिली जादुई जीतों के पीछे भी राजनीतिक जानकार ठोस वोट बैंक की रणनीति ही देखते हैं। बीजेपी ने सवर्णों की वफादीर हासिल करने के बाद गैर-चमार/जाटव, गैर-यादव वोटों को अपने बैंक में जमा किया है।
गुजरात की राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले मार्टिन मैक्वान ने चुनाव नतीजे का विश्लेषण करते हुए लिखा है, "मुस्लिम-आदिवासी-दलित समीकरण ने बीजेपी को हताश कर दिया। ये 1980 के दशक में कांग्रेस के केएचएएम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) समीकरण का ही बदला हुआ रूप है।" 1980 के गुजरात विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने 141 सीटें और 1985 में 149 सीटें जीती थीं। माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस की मिली इन जीत के पीछे केएचएएम समीकरण को जिम्मेदार माना गया था। इस समीकरण की ताकत आप इस बता से समझ सकते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अभी तक अधिकतम 126 सीटें (2002 विधान सभा चुनाव) ही जीत सकी है।
गुजरात में कांग्रेस को मिली 80 सीटों के लिए भी दलित-आदिवासी-मुसलमान-पटेल समीकरण को श्रेय दिया जा रहा है। जिसका श्रेय कांग्रेस से ज्यादा हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर को जाता है। पाटीदार बीजेपी का वोट बैंक रहा है लेकिन ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस इसमें सेंध मारने में कामयाब रही जिसका श्रेय हार्दिक और उनके पाटीदार आरक्षण आंदोलन को ही दिया जाना चाहिए। गुजरात का सबक यही है कि पूरे देश में कांग्रेस को एक बार फिर से अपना वोट बैंक तैयार करना होगा। उसके बाद ही वो फ्लोटिंग वोट के जरिए सत्ता में आ-जा सकती है और बाहर होने पर भी एक मजबूत विपक्ष बनी रह सकती है।
4- शहरी वोटों की मिजाजपुर्सी
गुजरात के नतीजे आने के बाद कई विश्लेषकों ने ध्यान दिलाया कि बीजेपी की जीत में शहरी सीटों पर उसकी पकड़ की मुख्य भूमिका रही है। क्रिस्टोफर जैफरलट और गाइल्स वर्नियर्स ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने विश्लेषण में रेखांकित किया है, "बीजेपी बड़े शहरों और उनके आसपास के इलाकों में अपने प्रदर्शन की वजह से आत्मरक्षा में कामयाब रही। उसने अहमदाबाद की 20 में से 15 सीटें, वडोदरा की 10 में नौ सीटें और सूरत की 16 में से 15 सीटों पर जीत हासिल की।" अन्य विश्लेषकों ने भी इस बात पर जोर दिया है कि ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस को बीजेपी से ज्यादा सीटें मिली हैं और चार बड़े शहरों में मिली सीटों की वजह से बीजेपी का पलड़ा भारी हो गया। सूरत में चुनाव से कुछ महीने पहले ही जीएसटी और नोटबंदी के खिलाफ बड़े विरोध प्रदर्शन हुए थे फिर भी वोटरों ने बीजेपी पर भरोसा किया। संदेश साफ है कि शहरी मतदाता थके-हारे भी बीजेपी को कांग्रेस से बेहतर मान रहा है। यही हाल उन सभी प्रदेशों में है जहाँ बीजेपी मजबूत है। आम धारणा है कि शहरी मतदाता ज्यादा जागरूक, ज्यादा शिक्षित और ज्यादा संपन्न होता है। कांग्रेस को गंभीरता से सोचना होगा कि बनारस से लेकर सूरत तक के शहरी मतदाता का भरोसा उस पर से क्यों उठ गया है और वो उसे दोबारा कैसे हासिल करे।
5- उदार हिंदू बनाम कट्टर हिंदुत्व
गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान जब राहुल गांधी ने मंदिरों में दर्शन-पूजन शुरू किया तो खुद को नेशनल मीडिया कहने वाला दिल्ली का मीडिया बिफर पड़ा। वोट देने के लिए कतार में लगने के जद्दोजहद से दूर रहने वाला अंग्रेजीदां बौद्धिक वर्ग इसे धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता के रंगीन चश्मे से देख कर लाल-नीला होता रहा। लेकिन वो ये न देख सका कि राहुल की इस पूरी कवायद का हासिल क्या था। चुनाव के दौरान गुजरात में मौजूद रहे पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने राहुल की "नई धार्मिकता" को बारीकी से डिकोड किया है। अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा है, "राहुल गांधी ने जिन 22 मंदिरों का दौरा किया वे कौन-कौन से थे। अधिसंख्य शैव परंपरा के मंदिर थे या फिर वे इष्टदेव, जो भारत में मिश्रित संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।" जाहिर है राहुल ने जिस तरह से आदिवासियों, पिछड़ों और अन्य समुदाय विशेष के देवी-देवताओं को दर्शन-पूजन के लिए चुना वो ये संदेश देने में कामयाब रहे कि वो विशुद्ध भारतीय धार्मिक बहुलता के प्रतिनिधि हैं।
अमेरिका-यूरोप से डिग्री लेकर लौटे ज्यादातर बुद्धिजीवी ये स्वीकार करने या समझने में विफल रहे हैं कि बीजेपी ने अपनी चुनावी फसल इस प्रोपगैंडा की खाद से तैयार की है कि कांग्रेस हिन्दू-विरोधी (मुसलमान-परस्त) पार्टी है। कांग्रेस को भी रह-रह कर ये बात समझ आती है इसलिए वो प्रमाद में आकर घनघोर सांप्रदायिक फैसले लेती रही है। तुर्रा ये कि जिस वक्त ये सोच भारतीय समाज में जड़ जमा रही थी कि कांग्रेस हिन्दू-विरोधी पार्टी है उसी वक्फे में मुसलमानों के बीच ये सोच घर कर रही थी कि "कांग्रेस बीजेपी से ज्यादा सांप्रदायिक पार्टी" है। ये कितना सच है कितना झूठ इसकी विवेचना समाजशास्त्री ही करेंगे लेकिन इतना तो तय है कि इस सोच ने मुसलमान वोटरों को भी कांग्रेस से छिटकाकर दूसरे क्षेत्रीय दलों का वोटर बना दिया। आज ज्यादातर राजनीतिक जानकार मानते हैं कि मुसलमान "बीजेपी को हरा सकने वाली पार्टी को वोट देते हैं।"
गुजरात चुनाव का सीधा संदेश है कि कट्टर और धर्मांध हिंदुत्व का जवाब उदार सर्व-समावेशी हिंदू ही हो सकता है। कांग्रेस को उस भारतीयता का झंडाबरदार बनना होगा जो "वसुधैव कुटुम्बकम" से निकलकर भारतीय संविधान से गुजरते हुए आज के भारत तक आती है। कांग्रेस को सही मायने में कपिल, कणाद, व्यास, वाल्मीकि, बुद्ध, कबीर फुले, विवेकानंद, गांधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाष, पटेल, लोहिया, आंबेडकर की साझा विरासत का वारिस बनना होगा। कांग्रेस खुद ही भूल गयी है कि बीजेपी ने शुरुआत भले ही सावरकर-गोलवरकर-दीनदयाल से की हो आज वो बहुलतावादी भारत के प्रतीकों को हथियाती जा रही है। कांग्रेस को समझना होगा कि प्रोपगैंडा चाहे जितना दैत्याकार हो जाए मामूली सच के सामने वो धराशायी हो जाता है। कांग्रेस को समझना होगा कि राम मंदिर का ताला खुलवाने या शाह बानो पर कानून बदलने जैसे उन्मादी सांप्रदायिक फैसले उसके ढीले कैरेक्टर की गवाही देते हैं। उसे एक ठोस कैरेक्टर विकसित करना होगा जिसमें परंपरा और आधुनिकता दोनों का संतुलन हो। कांग्रेस और उसके अंग्रेजीदां विचारकों को समझना होगा कि दुनिया लाइलाज रूप से धार्मिक है।