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मुंबई की चुनावी राजनीति-4: कांग्रेस के वोट बैंक में लगने लगी थी सेंध, शिवसेना ने ऐसे पसारे पांव

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: September 15, 2019 10:09 IST

1985 से उत्तर भारतीयों की मुंबई में बढ़ती  तादाद को लेकर शिवसेना के कान खड़े हुए और कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी का ध्यान भी मुंबई के हिंदी वोटों पर गया.

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नब्बे के दशक तक उत्तर भारतीयों के खिलाफ मुंबई की राजनीति में बहुत ज्यादा शोर नहीं मचा था. 1980 से 1985 तक शिवसेना ने दक्षिण भारतीयों का राग आलापना धीरे-धीरे कम कर दिया. 1985 से उत्तर भारतीयों की मुंबई में बढ़ती  तादाद को लेकर शिवसेना के कान खड़े हुए और कांग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी का ध्यान भी मुंबई के हिंदी वोटों पर गया.

वैसे तो विधानसभा में अपनी ताकत दिखाने के लिए शिवसेना को 1990 तक इंतजार करना पड़ा. 1966 में अपनी स्थापना के चार साल बाद 1970 में वामनराव महाडिक विधानसभा के लिए निर्वाचित  होने वाले शिवसेना के पहले विधायक थे. परेल से कम्युनिस्ट विधायक कष्णा देसाई की हत्या के बाद हुए उपचुनाव में शिवसेना ने यह सीट जीतकर महाराष्ट्र विधानसभा में अपना खाता खोला.

1972 के विधानसभा चुनाव में भी मुंबई में शिवसेना का जोर नहीं चला. भाषा के नाम पर मराठी वोटों का एक तबका उसके साथ जरूर जुड़ा मगर अन्य वर्गो के मतदाता उससे दूरी बनाकर रखने में ही अपनी भलाई समझते रहे. 1972 में मुंबई में महाडिक को छोड़कर  शिवसेना के सारे उम्मीदवार हार गए. कांग्रेस ने मुंबई पर एक बार फिर अपनी पकड़ साबित की. जनसंघ, वामपंथियों तथा समाजवादियों का प्रदर्शन  भी  मुंबई में शिवसेना से बेहतर रहा.

1978, 1980 तथा 1985 के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में शिवसेना को निराशा ही हाथ लगी. इस बीच पहले जनसंघ तथा बाद में भाजपा के रूप में मुंबई के गुजरातियों, हिंदी भाषियों तथा संभ्रांत वर्गो को कांग्रेस का विकल्प नजर आने लगा. 1990 तक यह वर्ग भाजपा के साथ पूरी तरह जाने लगा और वह मुंबई में निर्णायक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गई. इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ. 

वह भाजपा की चुनौती को रोकने के लिए कोई कद्दावर तथा लोकप्रिय चेहरा पेश नहीं कर सकी. जो चेहरे उभरे वे भाजपा की जयवंतीबेन मेहता की तरह व्यापक जनाधार वाले नहीं थे. कांग्रेस के पास मिलिंद देवड़ा जैसा मजबूत चेहरा था लेकिन कांग्रेस की छवि नब्बे का दशक आते-आते  मुस्लिम तुष्टिकरण करनेवाली पार्टी की होने लगी थी. इससे देवड़ा की गुजराती वोट बैंक पर से पकड़ कमजोर होने लगी. हिंदीभाषी वोट बैंक के लिए कांग्रेस के पास डॉ. राममनोहर त्रिपाठी जैसा बेहद असरदार चेहरा था. उनके असामयिक निधन से कांग्रेस को मुंबई में तगड़ा झटका लगा.

विधानसभा में शिवसेना भले ही नव्बे के दशक तक कोई खास प्रभाव छोड़ नहीं पाई, लेकिन मुंबई और ठाणो में पहले दक्षिण-भारतीय और बाद में उत्तर भारतीयों के तगड़े विरोध ने उसके लिए स्थानीय स्तर पर मजबूत बुनियाद खड़ी कर दी. 1967  में ठाणो नगरपालिका के चुनाव में शिवसेना ने 40 में से 17 सीटें जीतकर कांग्रेस, जनसंघ तथा वामपंथियों को चकित कर दिया. अगले वर्ष अर्थात 1968 में उसने मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में अपनी जबर्दस्त ताकत दिखाई तथा 42 सीटें जीत ली.

1971 में डॉ. एच.एस. गुप्ते के रूप में मुंबई को शिवसेना का पहला महापौर मिला. 1973-74 में सुधीर जोशी मुंबई में शिवसेना के दूसरे महापौर थे. 76-77 में मनोहर जोशी जो बाद में  राज्य में शिवसेना के पहले मुख्यमंत्री बने को महापौर पद मिला. 1978 में वामनराव महाडिक इस पद पर आसीन हुए. महाडिक, जोशी को महापौर बनाने के लिए कांग्रेस को शिवसेना का साथ देना पड़ा. 1985 के बाद से मुंबई की राजनीति उत्तर भारतीयों पर केंद्रित होने लगी. सभी राजनीतिक दलों के लिए उत्तर भारतीयों का समर्थन या विरोध मुंबई में चुनाव जीतने के लिए महत्त्वपूर्ण हो गया.

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