वेंकटेश केसरी
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का महीनेभर लंबे राजनीतिक संकट के दौरान महाराष्ट्र से दूर रहना रहस्य बना हुआ है. इस संकट के परिणाम ने झारखंड, दिल्ली और बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव को भाजपा के लिए अधिक मुश्किल बना दिया है. भारतीय राजनीति में चाणक्य माने जाने वाले शाह जेडीयू के साथ लचीले प्रतीत होते हैं. नीतीश कुमार की अगुवाई वाली पार्टी के साथ लोकसभा चुनाव के दौरान और बाद में सीट बंटवारे की व्यवस्था में यह दिखा था.
दरअसल, भाजपा हाईकमान ने साफ कर बिहार इकाई में अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्पष्ट कर दिया कि राजद-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ भाजपा, जदयू, लोजपा गठबंधन का चेहरा नीतीश कुमार होंगे. महाराष्ट्र और इससे पहले जम्मू कश्मीर ऐसी भावना नदारद दिखी. भाजपा के शीर्ष नेता 2014 के बाद से उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के साथ कभी सहज नहीं थे.
शिवसेना ने 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद विभागों के वितरण में समान भागीदार की बात उठाई. हालांकि, इसकी अनदेखी की गई और नरेंद्र मोदी सरकार में 2014 और 2019 में इसे महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिला. उस समय तदेपा को नागरिक उड्डयन दिया गया, लेकिन शिवसेना के पास भारी उद्योग स्वीकार करने के लिए अलावा और कोई विकल्प नहीं था.
भाजपा शिवसेना को वैचारिक सहयोगी कहती रही, लेकिन सत्ता बंटवारे में यह नहीं दिखा जो दोनों के बीच विश्वास की कमी को दर्शाता है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अमित शाह ने शिवसेना को मनाने के लिए कोई पहल नहीं की जो भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में था.
न तो उन्हें और न ही राजग अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह एहसास हुआ कि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद के मुद्दे पर गठबंधन तोड़ सकते हैं. बीजद, तृणमूल कांग्रेस, इनेलो, द्रमुक कभी राजग के हिस्सा थे, लेकिन उन्होंने एक-एक कर गठबंधन से अलग हो गए. यदि बीजद आडिशा में भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर चल रहा है, तो तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में इसकी मुख्य प्रतिद्बंद्बी बन गई है.
हरियाणा में भाजपा को चुनाव के बाद इनेलो गुट का धड़ा दुष्यंत चौटाला की जेजेपी के साथ गठबंधन करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
इन सवालों पर चर्चा :
क्या लोकसभा चुनावों में लगातार जीत के बाद भाजपा और क्षेत्रीय दलों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है? या फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नेतृत्व वाली भाजपा कांग्रेस के पुनर्जीवित नहीं होने के कारण क्षेत्रीय दलों पर निर्भर नहीं है या फिर वह अपने दम पर देशभर में छाना चाहती है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन पर राजनीतिक गलियारों में चर्चा चल रही है.