#KuchhPositiveKarteHain: पढ़ें भोपाल गैस त्रासदी के इस नायक की कहानी जिसकी समझदारी से बची थीं सैकड़ों जानें

By मेघना वर्मा | Updated: August 4, 2018 07:45 IST2018-08-04T07:45:20+5:302018-08-04T07:45:20+5:30

मुंह पर रुमाल रखे वो प्लेटफॉर्म पर रोते और बिलखते लोगों को देख रहे थे। कोई उल्टी कर रहा था तो कोई खांस रहा था।

#KuchhPositiveKarteHain: know all about ghulam dastagir stationmaster the bhopal gas tragedy hero | #KuchhPositiveKarteHain: पढ़ें भोपाल गैस त्रासदी के इस नायक की कहानी जिसकी समझदारी से बची थीं सैकड़ों जानें

#KuchhPositiveKarteHain: पढ़ें भोपाल गैस त्रासदी के इस नायक की कहानी जिसकी समझदारी से बची थीं सैकड़ों जानें

3 दिसंबर, 1984 की रात को भोपाल में हुए उस दर्दनाक हादसे को शायद ही कोई भुला पाए। भोपाल गैस त्रासदी ऐसी ही एक घटना है जिसे दुनिया के इतिहास में सबसे खतरनाक त्रासिदियों में गिना जाता है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कीटनाशक संयंत्र में एक दुर्घटना ने 30 टन अत्यधिक जहरीली गैस को रिलीज किया था। जिससे पूरा शहर एक विशाल गैस कक्ष में बदल गया था। पूरे पर्यावरण में फैली इस गैस का नतीजा ही था जिसमें 600,000 से अधिक लोग फंसे थे और आखिरकार उन्होंने अपना दम तोड़ दिया। मगर शायद कुछ लोगों को ही पता है कि भोपाल गैस त्रासदी के दौरान एक वीर स्टेशन मास्टर भी वहां मौजूद था जिसने दूसरों को बचाने के लिए अपना जीवन खतरे में डाल दिया। स्वतंत्रता दिवस पर लोकमत की खास पहल में आज बात ऐसे ही स्टेशन मास्टर की जिसे भोपाल गैस त्रासदि का हीरो कहा जाए तो कम नहीं होगा।

3 दिसंबर, 1984 की शाम को, डिप्टी स्टेशनअधीक्षक गुलाम दस्तगीर कुछ लंबित कागजी कार्य पूरा करने के लिए अपने कार्यालय में ही बैठे थे। इस काम ने उन्हें रात में 1 बजे तक अपने ऑफिस में ही बैठाये रखा। इसी बीच गोरखपुर मुंबई एक्सप्रेस के आने का समय हो गया जैसे ही वह बाहर निकले उनकी आंखों में जलन शुरू हो गई। उन्होंने अपने गले में खुजली महसूस की। उन्हें नहीं पता था कि यूनियन कार्बाइड की कीटनाशक कारखाने से लीक जहरीले धुएं रेलवे स्टेशन पर भी फैल चुके थे। 

अब तक स्टेशन अधीक्षक हरीश धूर्वे समेत उनके तीन रेल सहयोगियों की मृत्यु हो चुकी थी। बाद में यह बताया गया कि धुर्वे ने घातक गैस के बारे में सुना था और तुरंत अपने कार्यालय कक्ष में गिरने से पहले भोपाल से गुजरने वाली ट्रेनों के आने की रोकने की कोशिश की थी। उनके अचानक खराब स्वास्थ्य और सालों के उनके अनुभव ने दस्तगीर से कहा कि कुछ बहुत गलत हुआ है। मगर वह पूरी तरह से समझ नहीं पा रहे थे कि क्या हो रहा है। इसके बाद भी उन्होंने तुरंत कार्य करने का फैसला किया। जब स्टेशन मास्टर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। उन्होंने भोपाल को सभी ट्रेन यातायात को निलंबित करने के लिए विदिशा और इटारसी जैसे पास के स्टेशनों के वरिष्ठ कर्मचारियों को सतर्क कर दिया।

जब बिना आदेश समय से पहले छोड़ दी गाड़ी

सवारियों से भरी गोरखपुर-कानपुर एक्सप्रेस पहले से ही एक प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी और इसका जाने का समय 20 मिनट देरी का था। मगर अपने मन की बात सुनते हुए गुलाम दास्तागीर ने कर्मचारियों को बुलाया और ट्रेन को तुरंत प्लेटफॉर्म से रवाना करने लिए कहा। जब सभी ने पूछा कि क्या उन्हें तब तक इंतजार करना चाहिए जब तक कि ऐसा करने का आदेश प्रधान कार्यालय से नहीं आए, तो गुलाम दास्तागीर ने जवाब दिया कि वह ट्रेन के शुरुआती प्रस्थान के लिए पूरी जिम्मेदारी लेंगे।

वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बिना किसी देरी के ट्रेन तुरंत छोड़ी जाए। बाद में उनके सहयोगियों ने याद किया कि दास्तागीर मुश्किल से खड़े होकर सांस ले सकते थे क्योंकि उन्होंने उनसे बात की थी। सभी नियमों को तोड़कर और किसी से अनुमति लेने के बिना, वह और उनके बहादुर कर्मचारियों ने व्यक्तिगत रूप से ट्रेन को आगे जाने के संकेत दे दिए। ये उन्हीं का दिमाग था जिसने कितने ही लोगों की जान बचा ली थी। 

लगातार दौड़ते हुए कर रहे थे काम

दस्तगीर का मन अभी भी मान नहीं रहा था। मुंह पर रुमाल रखे वो प्लेडफॉर्म पर रोते और बिलखते लोगों को देख रहे थे। कोई उल्टी कर रहा था तो कोई खांस रहा था। ज्यादातर लोग बस रो रहे थे। रेलवे स्टेशन लोगों के साथ धुएं से भी भर रहा था। दस्तगीर ने कर्तव्य पर बने रहने का फैसला किया, एक जगह से दूसरे जगह पर दौड़ कर लोगों की मदद करना और उन्हें सांत्वना देना वह लगातार काम कर रहे थे। उन्होंने तत्काल चिकित्सा सहायता मांगने के लिए सभी पास के रेलवे कार्यालयों में एक एसओएस भी भेजा। नतीजतन, पैरामेडिक्स और रेलवे डॉक्टरों के साथ चार एम्बुलेंस स्टेशन पर पहुंचे।

जब अस्पताल में बदल गया पूरा स्टेशन

पीड़ित लोगों की भीड़ से घिरा हुआ स्टेशन जल्द ही एक बड़े अस्पताल सा दिखाई देने लगा। दस्तगीर स्टेशन पर रहे, दृढ़ता से अपना कर्तव्य कर रहे थे। उन्होंने इस बात की भी फिक्र नहीं की कि उनका परिवार भी शहर के बीचो-बीच बसा हुआ है। गुलम दस्तगीर के इस काम नें सैकड़ों लोगों का जीवन बचाया। हालांकि, इस आपदा का शिकार उनके घर वाले भी बनें। त्रासदी की रात को उनके बेटों में से एक की मृत्यु हो गई और दूसरे ने आजीवन के लिए स्किन इंन्फेक्शन हो गया। खुद दस्तगीर ने अपने 19 वर्ष अस्पताल में बिताएं। जहरीले धुएं के लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण उनके गले में संक्रमण विकसित हो गया। 2003 में जब वह अपनी बीमारी से हार गए तो उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके मृत्यु प्रमाण पत्र से इस बात का खुलासा हुआ कि वह एमआईसी (मेथिल इस्साइनेट) गैस ही उनकी बीमारी और मौत का कारण बनें। 

3 दिसंबर, 1984 की उस दुर्भाग्यपूर्ण रात को में अपनी जान का त्याग करने वालों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए प्लेटफॉर्म संख्या एक पर एक स्मारक बनाया गया है। हालांकि, गुलाम दस्तगीर, जो बाद में मर गए, उनमें से एक नहीं है। वह एक भूले हुए नायक हैं, जिनकी कर्तव्य और प्रतिबद्धता की भावना नें अनगिनत जिंदगी बचाई है। 

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