महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: सत्ता के लिए अपने ही अपनों के खिलाफ चाचा-भतीजे का राजनीतिक संघर्ष !
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: August 30, 2019 07:52 AM2019-08-30T07:52:06+5:302019-08-30T07:52:06+5:30
महाराष्ट्र की राजनीति में जहां चाचा-भतीजे में संघर्ष के उदाहरण मौजूद हैं, वैसे ही कदम से कदम मिलाकर हर मुश्किल का सामना करने वाले चाचा-भतीजे की मिसाल भी यहां देखने मिलती है. राज्य और देश की राजनीतिक में अमिट छाप छोड़ने वाले शरद पवार ही अपने भतीजे अजित पवार का राजनीति से परिचय कराया.
सत्ता के लिए अपने के खिलाफ अपनों का ही मैदान में उतर जाना महाराष्ट्र की राजनीतिक में कोई नई बात नहीं है. चाचा-भतीजे के बीच राजनीतिक संघर्ष का यह सिलसिला पेशवाओं के समय से चलता आ रहा है. शिवसेनाप्रमुख बालासाहब ठाकरे-राज ठाकरे, भाजपचे दिवंगत नेते गोपीनाथ मुंडे-धनंजय मुंडे, श्रीमंत अभयसिंहराजे भोसले-छत्रपति उदयनराजे भोसले, अनिल देशमुख-आशीष देशमुख जैसी चाचा-भतीजों के बीच का राजनीतिक संर्घष जग जाहिर है.
महाराष्ट्र की राजनीति में जहां चाचा-भतीजे में संघर्ष के उदाहरण मौजूद हैं, वैसे ही कदम से कदम मिलाकर हर मुश्किल का सामना करने वाले चाचा-भतीजे की मिसाल भी यहां देखने मिलती है. राज्य और देश की राजनीतिक में अमिट छाप छोड़ने वाले शरद पवार ही अपने भतीजे अजित पवार का राजनीति से परिचय कराया. वहीं अजीत पवार ने भी तमाम विपरीत प्रसंगों में कभी अपने चाचा का साथ नहीं छोड़ा. ऐसा ही रिश्ता नासिक के छगन भुजबल और समीर भुजबल का भी है.
चाचा-भतीजे दोनों को जेल भी जाना पड़ा लेकिन मजाल है, चाचा या भतीजे ने कभी अपनी लक्ष्मण रेखा लांघी हो. लातूर के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री स्व. विलासराव देशमुख के पुत्र विधायक अमित देशमुख तथा चाचा दिलीपराव देशमुख के रिश्तों के बीच कभी राजनीति अपना स्थान नहीं बना सकी. चाचा-भतीजे दोनों का राजनीति से नाता है लेकिन इसके लिए उन्होंने अपने रिश्तों को दांव पर लगया हो ऐसा एक भी वाक्या कभी सुनाई नहीं दिया.
सुनील तटकरे और विधायक अवधूत तटकरे के बीच राजनीतिक शीतयुद्ध
रायगढ़ जिले के राकांपा सांसद सुनील तटकरे और विधायक अवधूत तटकरे के बीच फिलहाल राजनीतिक शीतयुद्ध चल रहा है. लोकसभा चुनाव से पूर्व पार्टी प्रमुख शरद पवार ने स्वयं आगे बढ़कर दोनों के बीच की दरार पाटने का प्रयास किया था, ताकि पार्टी को इसका खामियाजा न उठाना पड़े. वे सफल भी रहे और कुछ समय के लिए चाचा-भतीजे दोनों शांत हो गए.
अवधूत, सुनील तटकरे के बड़े भाई अनिल तटकरे के पुत्र हैं. सुनील तटकरे ने ही बड़े भाई अनिल को विधान परिषद तथा अवधूत को श्रीवर्धन विधानसभा सीट से राजनीतिक सफर की शुरुआत कराई. साथ ही भाभी शुभदा तटकरे को रायगढ़ जिला परिषद चुनाव में जिताकर महिला व बाल कल्याण सभापति बनाया. बावजूद इसके दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव के किस्से आम हैं.
इन्हीं मतभेदों के चक्कर में लोकसभा चुनाव में अनिल और पुत्र अवधूत ने राकांपा के लिए प्रचार तक नहीं किया. अब सुनील तटकरे श्रीवर्धन विधानसभा सीट से अपनी बेटी और रायगढ़ जिला परिषद की अध्यक्ष अदिति तटकरे को मैदान में उतारना चाहते हैं. जिसकी वजह से चाचा और भतीजे के बीच राजनीतिक संर्घष नया मोड़ ले सकता है.
चाचा-भतीजे के बीच संघर्ष नहीं, समन्वय
नासिक में राकांपा का परचम लहराने वाले वरिष्ठ नेता छगन भुजबल और पूर्व सांसद समीर भुजबल चाचा-भतीजे की इस जोड़ी में सत्ता के लिए कभी संघर्ष नहीं हुआ. इसके विपरीत दोनों हमेशा इस प्रयास में रहे के साथ मिलकर पार्टी के लिए क्या बेहतर किया जा सकता है. वर्ष 2009 में राकांपा के तमाम स्थानीय नेताओं के विरोध के बावजूद छगन भुजबल ने भतीजे समीर को लोकसभा चुनाव में सिर्फ उम्मीदवारी ही नहीं दी, बल्कि रात-दिन प्रचार कर उनकी जीत भी सुनिश्चित की.
वहीं 2014 में इसी सीट से राकांपा ने जब चाचा छगन भुजबल को अपना उम्मीदवार बनाया, तो समीर ने ही प्रचारतंत्र का जिम्मा संभाला. चाचा-भतीजे के रिश्तों की मिठास इतनी की महाराष्ट्र सदन घोटाले के तहत जेल के कड़वे दिनों का दोनों ने साथ-साथ सामना किया. इसके बाद 2019 के चुनाव में छगन भुजबल ने एकबार फिर समीर का नाम आगे बढ़ाया. माना जाता है कि आज भी समीर के सभी राजनीतिक या गैर राजनीतिक फैसलों के पीछे चाचा छगन भुजबल की मौन सहमति होती है.