क्या गांवों के लोग ‘झोलाछाप’ डाक्टरों के रहमो-करम पर रहेंगे, कब ली जाएगी इनकी सुध?
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: December 14, 2017 01:41 PM2017-12-14T13:41:40+5:302017-12-14T13:48:37+5:30
गांवों की सेहत सुविधाओं को लेकर सरकार कई तरह के वादें करती आई है लेकिन इसका असर इन गांवों में रहने वालों पर तिल भर भी देखने को नहीं मिल रहा है।
गांवों की सेहत सुविधाओं को लेकर सरकार कई तरह के वादें करती आई है लेकिन इसका असर इन गांवों में रहने वालों पर तिल भर भी देखने को नहीं मिल रहा है। पंजाब देश के आजाद होने के बाद एक पहला मौका आया था जब भारत की किसी भी प्रादेशिक सरकार ने कोई ऐसी स्कीम तैयार की जिसमें शहरों से भी अधिक गांवों में सेहत सहूलियतें देने की योजना तैयार की गई थी।
देश की प्रादेशिक सरकारों और सेहत विभाग के कर्मचारियों ने कभी भी गांवों में काम करना पसंद नहीं किया, भले ही वह पंजाब हो, बिहार हो या राजस्थान। डाक्टरों से लेकर नर्सें, फार्मासिस्ट हो या फिर स्वीपर, हर कोई शहर में काम करना चाहता है जिससे शहर की सुख-सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर सके और अपने बच्चों को शहर के बड़े-से-बड़े स्कूल में शिक्षा दिलवा सके। सरकारी डॉक्टर गांवों में हॉस्पीटल होने के बाद भी वहां से दूर रहते हैं इसके पीछे सरकार की ढिलाई को भी जिम्मेदार कहा जा सकता है।
2006 में पंजाब सरकार का रूख
2006 में पंजाब की कैप्टन अमरेंद्र सिंह सरकार ने यू.पी.ए. सरकार के फ्लैगशिप प्रोग्राम, जिसमें संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायतों और जिला परिषदों को अधिक से अधिक अधिकार देने का प्रावधान लागू किया था। इस अधीन तकरीबन 1200 के करीब ग्रामीण सेहत डिस्पैंसरियां पंचायतों और जिला परिषदों को सौंपी गईं जिसका मुख्य उद्देश्य गांवों में पक्के तौर पर सेहत सुविधाएं देना था।
सरकारी आंकड़े
गांवों की डिस्पैंसरियों में सिर्फ चौकीदार ही नजर आते थे। शुरू से ही डाक्टरों ने शहरों में ही रहना पसंद किया है। जबकि पिछड़े इलाकों और बार्डर इलाकों में कोई भी डाक्टर जाना पसंद नहीं करता था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तरनतारन, मानसा, संगरूर, फिरोजपुर, फाजिल्का, गुरदासपुर, पठानकोट और अमृतसर के बार्डर इलाके तथा पटियाला और संगरूर के हरियाणा के साथ लगते इलाकों में मंजूरशुदा पोस्टों पर सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत डाक्टर ही तैनात होते थे। जिस कारण से यहां के लोग भी सरकारी सुविधा से वंचित है।
घर के पास के हॉस्पीटल चुनते हैं डॉक्टर
साल 2006 में जिला परिषदों और पंचायतों के अंडर की गई डिस्पैंसरियों में डाक्टरों की भर्ती इस तरीके से की गई जिससे वे अपने घर के नजदीक ही पोसिंटिग ले सकें। वहीं, पूरे पंजाब में सभी कस्बों और तहसीलों के अंदर 1200 एम.बी.बी.एस. मेडीकल डाक्टर ग्रामीण डिस्पैंसरियों में अपने घरों के नजदीक तैनात किए गए जिससे कि वे बड़े शहरों की तरफ जाने का ध्यान अपने मन से निकाल सकें।
बढ़ रहे मरीज
2007 तक पहुंचते-पहुंचते ग्रामीण डिस्पैंसरियों में मरीजों की संख्या बढ़नी शुरू हो गई और यह 4-5 मरीजों से 40-50 तक पहुंच गई। वहीं, साल 2012 तक पहुंचते-पहुंचते पंजाब की जिला परिषदों के अधीन आने वाली ग्रामीण डिस्पैंसरियों में मरीजों की संख्या लगभग एक करोड़ सालाना से ऊपर पहुंच गई। ये सरकारी आंकड़े पंजाब सरकार ने उस समय केंद्रीय सेहत मंत्री गुलाम नबी आजाद को 2012-13 दौरान पेश किए।
पंजाब की 66 प्रतिशत गांवों में रहती आबादी को दी गई ये डिस्पैंसरियां गांव के लोगों के लिए वरदान साबित हुईं। इसका निष्कर्ष यह निकला कि अकाली सरकार को सेहत डिस्पैंसरियों में लगे डाक्टरों का काम और गांवों के लोगों को इसका लाभ देखते हुए कांट्रैक्ट पर रखे मैडीकल डाक्टरों की नौकरियां रैगुलर करनी पड़ीं, जिससे अधिक से अधिक लोगों को इसका पक्के तौर पर लाभ मिल सके। दूसरी तरफ शुरू से ही यह स्कीम अफसरशाही के गले नहीं उतर रही थी, क्योंकि इस योजना में अफसरों की बजाय अधिक अधिकार लोगों के चुने गए प्रतिनिधियों, पंचों, सरपंचों, पंचायत समिति सदस्यों और जिला परिषद सदस्यों एवं डिस्पैंसरियों की मौजूदगी
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिला परिषदों के अधीन पड़ती डिस्पैंसरियों में से 1186 डिसपैंसरियों को 775 डॉक्टर चला रहे हैं और पिछले 5 सालों से एक भी डाक्टर की भर्ती नहीं की गई, जबकि इसके उलट सेहत विभाग जो अधिकतर शहरी और अर्ध-शहरी डिस्पैंसरियां और अस्पताल चला रहा है, में पिछले 5 सालों के दौरान 3 हजार डाक्टरों की भर्ती हो चुकी है। इन सेहत कर्मचारियों को मजबूर करके 12 सालों से काम कर रहे डाक्टरों को सेहत विभाग में लाया जाएगा और इनकी तैनाती शहरों में या जेलों में की जाएगी।
झोलाछाप डॉक्टरों का बोलबाला
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल डिस्पैंसरियों में आने वाले एक करोड़ मरीजों को झोलाछाप डाक्टरों के रहमो-करम पर छोड़ कर इन डिस्पैंसरियों को ताले लगा दिए जाते हैं। गांवों में डॉक्टरों की नामौजूदरी झोलाछाप(बिना डिग्री के खुद को डॉक्टर कहने वाले) का बोलबाला करवा रहे हैं। कई बार देखा गई है कि इनके द्वारा दी जाने वाली दवाई मरीज की जान भी ले रही है।