विश्वरंग 2025: प्रतिभागियों और दर्शकों को भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराइयों से जोड़ा

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: November 29, 2025 18:45 IST2025-11-29T18:45:01+5:302025-11-29T18:45:24+5:30

Vishwarang 2025: विश्वरंग के अंतिम दिन का प्रारंभ एक सांस्कृतिक उत्सव में बदल गया और आगे के सत्रों के प्रति उत्साह और अपेक्षाएँ और अधिक बढ़ गईं।

Vishwarang 2025 Day 3 Connecting participants and audiences to the depths of Indian classical music | विश्वरंग 2025: प्रतिभागियों और दर्शकों को भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराइयों से जोड़ा

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Highlightsसीखना रुकते ही ठहराव शुरू हो जाता है।चेतना से अभिन्न है, जिससे सृष्टि संचालित है।

भोपालः रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विश्वरंग 2025 के तीसरे और अंतिम दिन की शुरुआत एक आध्यात्मिक, सौम्य और मन को शांत करने वाली संगीत साधना के साथ हुई। प्रातः आयोजित मंगलाचरण में मध्यप्रदेश के युवा और लोकप्रिय सितार वादक अनिरुद्ध जोशी ने अपनी मनोहारी प्रस्तुति से पूरे सभागार को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनके सितार से निकलती स्वरलहरियों ने न केवल वातावरण को पवित्र बनाया, बल्कि प्रतिभागियों और दर्शकों को भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहराइयों से जोड़ दिया। उनका साथ दे रहे प्रसिद्ध तबला वादक मनोज पाटीदार ने अपनी ताल और लय की अद्भुत संगति से इस प्रस्तुति को और ऊँचे सौंदर्य तक पहुँचाया, जिससे विश्वरंग के अंतिम दिन का प्रारंभ एक सांस्कृतिक उत्सव में बदल गया और आगे के सत्रों के प्रति उत्साह और अपेक्षाएँ और अधिक बढ़ गईं।

प्रज्ञान ब्रह्म की सोच को सौरभ द्विवेदी ने किया रेखांकित

संगीत की इस सुगंधित शुरुआत के बाद पहले वैचारिक सत्र में इंडिया टुडे मैगज़ीन और लल्लनटॉप के संपादक तथा सुविख्यात वक्ता सौरभ द्विवेदी ने अपनी बात एक गहरे सवाल से शुरू की—क्या हम वही बनकर रह जाते हैं, जहाँ से आते हैं, या हम स्वयं को निरंतर नए साँचों में ढाल सकते हैं? उन्होंने कहा कि मनुष्य तब तक आगे बढ़ता है, जब तक वह सीखता रहता है; सीखना रुकते ही ठहराव शुरू हो जाता है।

इस संदर्भ में उन्होंने श्वेतकेतु के सूत्र ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ का उल्लेख किया और समझाया कि जो भीतर है, वही बाहर प्रकट होता है; और सरल बनना ही मनुष्य का सबसे कठिन लक्ष्य है। उन्होंने वेदांत के महावाक्य ‘तत्वमसि’ के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि मनुष्य का आंतरिक अस्तित्व उसी परम चेतना से अभिन्न है, जिससे सृष्टि संचालित है।

सौरभ ने विद्यार्थियों को समझाया कि सीखने के लिए सुनना उतना ही जरूरी है जितना बोलना या पढ़ना, और इसी संदर्भ में आर्यभट्ट और आइंस्टीन के उदाहरण दिए। उन्होंने डिंडोरी के उस व्यक्ति की मार्मिक घटना भी साझा की जिसे मानव तस्करी के कारण बीस वर्षों तक तेलंगाना में बंधक बनाकर रखा गया था, और बताया कि दुनिया में कई लोग ऐसे कष्टों से गुजरते हैं जिनकी कल्पना भी कठिन है।

उन्होंने कहा कि छात्र का मन एक रीते घड़े जैसा होता है, जिसकी क्षमता ब्लैक होल से भी अधिक विस्तृत है—जितना ज्ञान उसमें भरा जाए, वह और अधिक ग्रहण करने को तैयार रहता है। उन्होंने यह सवाल रखा कि अच्छा इंसान होना इतना मुश्किल क्यों है और साथ ही भारतीय संस्कृति के संरक्षणवादी स्वभाव पर प्रकाश डाला।

विचारों की विविधता, मित्रता, संगीत, सिनेमा और पुस्तक-पठन को उन्होंने युवाओं के सीखने और संवर्धन के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने कहा कि भारत को वैज्ञानिक चेतना विकसित करने की अत्यंत आवश्यकता है, ताकि समाज बाहरी दिखावे से अधिक मानवीय गुणों को महत्व दे सके। अंत में उन्होंने सलाह दी कि मनुष्य को जीवन के अंत में खालीपन नहीं, बल्कि ‘मुदित भावना’ के साथ विदा होना चाहिए। उनका पूरा संबोधन ज्ञान, संवेदनशीलता और मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण रहा।

सान्या ने दिए कैरेक्टर को बेहतर बनाने के टिप्स

दोपहर के सत्र में फ़िल्म अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा के साथ हुआ संवाद छात्र-युवाओं और कला प्रेमियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बना। रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय की प्रो–चांसलर एवं विश्वरंग की सह-निदेशक डॉ. अदिति चतुर्वेदी वत्स और विकास अवस्थी ने सान्या से उनकी फ़िल्मी यात्रा, कलात्मक अनुशासन और अभिनय की तैयारी पर गहन बातचीत की।

सान्या ने कहा कि अभिनय उनके लिए केवल पेशा नहीं, बल्कि एक सतत साधना है, जिसमें पात्र के मनोवैज्ञानिक आयामों का अध्ययन सबसे महत्वपूर्ण होता है। उन्होंने बताया कि किसी भी भूमिका को भीतर तक महसूस करने के लिए वे पटकथा को बार-बार लिखती हैं और पात्र से जुड़ी जगहों और लोगों से संवाद स्थापित करती हैं, ताकि किरदार की वास्तविकता भीतर उतर सके।

उन्होंने कहा कि अभ्यास ही कलाकार को परिपक्वता देता है, और यही कारण है कि वे लगातार वर्कशॉप करती रहती हैं। अपनी तीन राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी फिल्मों पर उन्होंने कहा कि कोई भी सम्मान पहले से सुनिश्चित नहीं होता, लेकिन जब ईमानदारी और मेहनत से किए गए काम की सराहना होती है, तो वह कलाकार के लिए सबसे बड़ा प्रोत्साहन बन जाता है।

उन्होंने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए कहा कि ऑडिशन और अस्वीकृति कलाकार को मजबूत बनाते हैं। युवाओं को सलाह देते हुए उन्होंने कहा कि अभिनय में करियर बनाने से पहले शिक्षा पूरी करना जरूरी है, क्योंकि पढ़ाई व्यक्ति को आत्मविश्वास और गहरी दृष्टि प्रदान करती है, जो कलाकार को जीवन और किरदार—दोनों को समझने में मदद करती है।

माइथोलॉजी को शंकाओं के साथ पढ़े, तभी भीतर का ज्ञान समझ पाएंगे : देवदत्त पटनायक 

मैं जब भी पौराणिक कथाओं पर बात करता हूं, टी9 एक शब्द का इस्तेमाल करता हूं मायथोलॉजी, और लोग मुझसे गुस्सा हो जाते हैं। लेकिन, क्या आपको पता है, जब तक आप उत्तेजित नहीं होंगे तो सरस्वती नहीं आएंगी। बहुत से लोग मानते हैं कि मायथोलॉजी शब्द मिथ्या से बना है, जो गलत है। संस्कृति में मिथ्या का मतलब incomplete truth।

जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य...। मिथ्या असल में सच और झूठ से बिल्कुल अलग अधूरा सच है। आज हर आदमी के पास अपनी दुनिया का ज्ञान तो है, मगर संपूर्ण ज्ञान नहीं है। संपूर्ण ज्ञानी सिर्फ ईश्वर है। जबकि, मायथोलॉजी शब्द आया है ग्रीक के माइथोज से , यानि आख्यान। दुनिया की हर संस्कृति  सभ्यता का अपना अलग आख्यान है  चीन, जापान, वियतनाम की अपनी अपनी माइथोलॉजी है।

सब अपने संस्कृति के दृष्टिकोण को बताने के लिए आख्यानों का इस्तेमाल करते हैं। असल में, दुनिया को समझने का एक माध्यम है आख्यान, यानि माइथोलॉजी। जो विवाद करते हैं, वो जिज्ञासु नहीं होते, योद्धा होते हैं, उनके पास ज्ञान नहीं होता। पहले के जमाने में शास्त्रार्थ होते थे, जिसका मतलब होता था शास्त्रों का अर्थ निकलना।

जबकि, टीवी पर और हमारे सीरियल्स में शास्त्रार्थ को सिर्फ बहस और अहंकार की लड़ाई की तरह दिखाते हैं। मगर, जहां सर्द बहस होती है, वहां से सरस्वती चली जाती है। याद रखिए, श्रद्धा ज्ञान का द्वार नहीं खोलती, जिज्ञासा ज्ञान का द्वार खोलती है। गुरु जो कहता है वो ही सही है, यदि आप मान लें तो यही आपकी श्रद्धा की शुरुआत हो जाएगी और फिर आप तर्क करना बंद कर देंगे।

शंका नहीं होगी तो हम फिर ज्ञान से दूर हो जाएंगे। शंका के समाधान के लिए हम मापदंड तय करते हैं। शंका मन में रहेगी तो शब्द मायने नहीं रखेंगे। श्रद्धा से विज्ञान नहीं सीख पाओगे, बिल्कुल वैसे ही जैसे बिना लैब के आप विज्ञान नहीं पढ़ सकते। केवल गुरु के शब्दों में श्रद्धा रखकर विज्ञान नहीं पढ़ पाएंगे।

शंका से ही विज्ञान पढ़ पाएंगे। मगर, आज कल कोई शंका करे, तो लोग एंटी नेशनल कह दिया जाता है। आप जब तक शंका में घिर मायथोलॉजी के पीछे के तर्क को नहीं समझेंगे, तब तक वह पूरी तरह आपकी श्रद्धा का विषय ही बना रहेगा। आप उसके कोई सीख नहीं ले पाएंगे।

समानांतर सत्रों की जानकारी

सत्र - मीडिया में छवियो का महसंजाल और बदलती सामाजिक दृष्टि अंजनी सभागार में आयोजित सत्र की शुरुआत अत्यंत आत्मीय वातावरण में हुई। श्री सुमित अवस्थी के उद्बोधन के बाद वरिष्ठ पत्रकार सुमित अवस्थी का स्वागत डॉ. पवित्र श्रीवास्तव और रोनाल्ड सर ने किया। उपस्थित दर्शकों में पत्रकारिता के छात्र, मीडिया शोधकर्ता, संचार क्षेत्र से जुड़े युवा और आम श्रोता बड़ी संख्या में मौजूद थे।

सत्र के दौरान मीडिया की वर्तमान स्थिति, डिजिटल विस्तार, इन्फ्लुएंसर संस्कृति, सोशल मीडिया की ओवरएक्टिविटी और समाज में बदलती संवेदनाओं पर अत्यंत गंभीर और वास्तविक विमर्श सामने आया। वक्ताओं ने बताया कि तकनीक ने भले ही संचार को तेज़ और सुलभ बनाया हो, लेकिन उसने मनुष्य की वास्तविक उपस्थिति और मानसिक एकाग्रता को बाधित किया है।

आज परिवार एक ही कमरे में बैठा होता है, पर मन अलग-अलग स्क्रीन की दुनिया में खोया होता है। सुमित अवस्थी ने पत्रकारिता के मूल्यों को याद करते हुए कहा कि पत्रकारिता चाहे कितनी भी बदल जाए, उसका मूल मिशन समाज को सच्चाई से जोड़ना ही है।

उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि सोशल मीडिया की तेज़ गति ने भ्रामक सूचनाओं और आकलनों को ख़तरनाक रूप से बढ़ाया है, इसलिए मीडिया उपभोक्ताओं को जागरूक और संतुलित रहने की आवश्यकता है। संवाद का समापन दर्शकों के सवालों और वक्ताओं की सूझबूझ भरी टिप्पणियों के साथ हुआ।

लुप्तप्राय भाषाओं पर केंद्रित सत्र

इसके बाद आदिरंग सभागार में लुप्तप्राय भाषाओं पर केंद्रित सत्र ने गंभीर सोच के नए आयाम खोले। डॉ. स्नेहलता नेगी ने बड़े विस्तार से बताया कि भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि किसी समुदाय की सामूहिक स्मृति, परंपरा, ज्ञान और जीवन-दर्शन की जीवंत धरोहर होती है। उन्होंने यूनेस्को के अध्ययन का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत की कई भाषाएँ और बोलियाँ गंभीर रूप से संकट में हैं।

शहरीकरण, अंग्रेज़ी की बढ़ती अनिवार्यता, प्रवास और नई पीढ़ी का मातृभाषा से टूटता नाता इस संकट को और गहरा कर रहा है। उन्होंने कहा कि जब कोई भाषा समाप्त होती है, तो उससे जुड़ी कहानियाँ, गीत, लोक मान्यताएँ, चिकित्सा ज्ञान, कृषि तकनीकें और जीवन के अनगिनत अनुभव भी लुप्त हो जाते हैं।

डॉ. नेगी ने जनजातीय समुदायों में मौजूद मौखिक परंपरों के महत्व पर विस्तार से चर्चा की और उन्हें संग्रहीत करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। उनके वक्तव्य ने दर्शकों को इस वास्तविकता का एहसास कराया कि भाषाओं का संरक्षण केवल भाषाविदों का कार्य नहीं, बल्कि समाज का सामूहिक उत्तरदायित्व है।

टैगोर बाल कला कार्यशाला

उधर टैगोर बाल कला कार्यशाला में वातावरण एकदम अलग रंग लिए हुए था—जीवंत, उत्साहपूर्ण और रचनात्मकता से भरा हुआ। बच्चों की आँखों में चमक और उनकी कलात्मक जिज्ञासा कार्यशाला के हर कोने में दिखाई दे रही थी। उद्घाटन के दौरान डॉ. अजय कुमार पांडे, देवीलाल पाटीदार और वरिष्ठ कलाकार अशोक भौमिक ने बच्चों को कला के महत्व और उसकी मुक्त अभिव्यक्ति के बारे में प्रेरक बातें कहीं। विभिन्न कला रूपों की कार्यशालाएँ समानांतर रूप से चल रही थीं—क्ले मॉडलिंग में बच्चे मिट्टी से अपनी कल्पनाओं को आकार दे रहे थे।

पेंटिंग में रंगों के माध्यम से अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे, जबकि प्रिंट मेकिंग में वे नए, अनूठे दृश्य संसार रच रहे थे। कलाकार नीरज अहिरवार, महावीर वर्मा, मुकेश बिजौल, रवीन्द्र शंकर और दिव्या सिंह ने अत्यंत धैर्य और संवेदनशीलता के साथ बच्चों को न केवल कला कौशल सिखाया, बल्कि कला के प्रति भावनात्मक दृष्टि भी विकसित की। यह कार्यशाला बच्चों की आंतरिक रचनात्मकता को आकार देने का एक सुंदर अवसर बनकर उभरी।

भाषा प्रौद्योगिकी का वैश्विक विस्तार और भारतीय भाषाएं - सत्र

अभिमन्यु अनंत मंच पर भाषा प्रौद्योगिकी का वैश्विक विस्तार और भाऱतीय भाषाएं का सत्र सबसे अधिक आधुनिक और भविष्यमुखी माना जा रहा था। यहाँ उपस्थित विद्वानों ने भाषा और तकनीक के अभूतपूर्व मेल पर गहन चर्चा की। अमेरिका से आए अशोक ओझा ने कहा कि भाषा-शिक्षण में तकनीक एक बड़ा बदलाव ला रही है, पर इसका लाभ तभी मिलेगा जब डेटा के साथ सांस्कृतिक संदर्भ भी सही रूप में शामिल हों। पांडिचेरी के डॉ. जयशंकर बाबु ने बताया कि भाषा संरक्षण में डिजिटल साहित्य और तकनीकी सामग्री की भूमिका बढ़ती जा रही है।

आर्मेनिया की अलिना खलगायथ्याम ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि भाषा किसी देश की आत्मा होती है और हिंदी सीखने से उन्हें भारतीय संस्कृति की गहराई समझने में मदद मिली। पूर्व राजनयिक शिव कुमार ने ‘भाषणी’ और India AI Tool की क्षमताओं पर विस्तृत चर्चा की।

उन्होंने कहा कि आने वाले समय में भारतीय भाषाएँ वैश्विक डिजिटल स्पेस में बड़ी भूमिका निभाएँगी। इसी क्रम में रविन्द्र कात्यायन ने भाषा डेटा सेट की कमी को सबसे बड़ी बाधा बताकर शोधकर्ताओं को इस दिशा में सक्रिय होने का आग्रह किया।

‘लेखक से मिलिए’

शांतिनिकेतन में आयोजित ‘लेखक से मिलिए’ सत्र में इमारत का पूरा माहौल साहित्यिक ऊर्जा से भर गया। प्रसिद्ध लेखक पद्मश्री डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी से बातचीत करते हुए वार्ताकार मुकेश वर्मा ने उनके उपन्यास ‘एक तानाशाह की प्रेमकथा’ के अनेक पहलुओं पर चर्चा की। डॉ. चतुर्वेदी ने कहा कि लेखन एक साधना है और जो पीछे मुड़कर देखता है, वह आगे नहीं बढ़ पाता।

उन्होंने सत्ता, सत्ता से जुड़े मनोवैज्ञानिक खेलों, प्रेम और मानवीय व्यवहार की जटिलताओं पर रोचक टिप्पणियाँ कीं। उनकी सहज, हाज़िरजवाब और व्यंग्यपूर्ण शैली ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। यह सत्र न केवल लेखक के व्यक्तित्व को समझने का अवसर था, बल्कि आधुनिक व्यंग्य साहित्य की धारा को भी निकट से देखने जैसा था।

सत्र – विश्व के नक्शे पर कथेतर साहित्य का बढ़ता महत्व

गौरांजनी सभागार में कथेतर साहित्य पर हुए विमर्श ने नए विचारों को जन्म दिया। वैभव सिंह ने कहा कि नॉन-फिक्शन लेखन आधुनिक दुनिया में अत्यंत आवश्यक हो गया है, क्योंकि यह तथ्यात्मक आधार पर समाज को समझने का अवसर देता है। नीलेश रघुवंशी ने कथेतर साहित्य की मुक्त संरचना की चर्चा करते हुए कहा कि यह ऐसी विधा है जिसमें वे सारे विषय समाहित होते हैं,

जिनके लिए अन्य विधाओं में जगह नहीं बचती। ट्रेवल ब्लॉगर संजय शेफर्ड ने यात्रा, नज़रिया और इंटरनेट के प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज के समय में लोग वही जीना चाहते हैं जो वे स्क्रीन पर देखते हैं, और इसने कथेतर लेखन को एक नई दिशा प्रदान की है।

स्त्री अस्मिता और भारतीय विचारिकी में विश्व सिद्धांत

वनमाली सभागार में स्त्री अस्मिता और भारतीय विचारिकी में विश्व सिद्धांत- पर हुआ सत्र अत्यंत संवेदनशील और बौद्धिक रूप से भरपूर रहा। रूबल जी ने स्त्री की पहचान और उसकी अस्मिता के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा कि आज स्त्री अपने आत्मसम्मान से अधिक अपनी वैचारिक पहचान की तलाश में है।

डॉ. साधना बलवटे ने भारतीय शास्त्रों के संदर्भ देते हुए स्त्री की शक्ति, धैर्य और क्षमता को एक मूलभूत सत्य बताया। उन्होंने कहा कि भारतीय चिंतन में स्त्री को ऊर्जा का स्रोत माना गया है। प्रत्यक्षा जी ने मनुष्य और संस्कृति के रिश्ते को समझाते हुए कहा कि संस्कृति बाहरी दबाव नहीं, बल्कि मनुष्य की अंतर्निहित रचनात्मकता का परिणाम है,

और आज भी महिलाएँ सामाजिक संघर्षों से निरंतर जूझ रही हैं। अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. उर्मिला शिरीष ने कहा कि देश, काल और परिस्थिति बदलते रहते हैं, पर स्त्री के संघर्ष का मूल स्वर रूप नहीं बदलता। सत्र का संचालन विशाखा राजूकरराज ने बेहद संतुलित और प्रभावी ढंग से किया।

Web Title: Vishwarang 2025 Day 3 Connecting participants and audiences to the depths of Indian classical music

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