कांग्रेस की बगैर सहमति के तेजस्वी यादव बन गए महागठबंधन विधायक दल के नेता, महागठबंधन के भविष्य को लेकर अटकलों की बाजार हुआ गरम
By एस पी सिन्हा | Updated: November 30, 2025 17:27 IST2025-11-30T17:27:46+5:302025-11-30T17:27:52+5:30
बैठक में राजद के सारे विधायकों के अलावे वामदलों के तीन विधायक शामिल हुए। जबकि कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं पहुंचा। बस एक विधान पार्षद समीर कुमार सिंह आए, लेकिन वह भी सिर्फ दिखाने के लिए।

कांग्रेस की बगैर सहमति के तेजस्वी यादव बन गए महागठबंधन विधायक दल के नेता, महागठबंधन के भविष्य को लेकर अटकलों की बाजार हुआ गरम
पटना: बिहार विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद महागठबंधन में सबकुछ ऑल इज वेल नही है। 29 नवंबर को हुई महागठबंधन की बैठक में राजद नेता तेजस्वी यादव को गठबंधन के विधायक दल का नेता तो चुन लिया गया, लेकिन सबसे दिलचस्प बात तो यह रहा कि उस बैठक में भाग लेने कांग्रेस के छह विधायक पहुंचे ही नही। अर्थात बगैर कांग्रेस के सहमति के तेजस्वी यादव हो गए महागठबंधन विधायक दल के नेता। बैठक में राजद के सारे विधायकों के अलावे वामदलों के तीन विधायक शामिल हुए। जबकि कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं पहुंचा। बस एक विधान पार्षद समीर कुमार सिंह आए, लेकिन वह भी सिर्फ दिखाने के लिए।
सूत्रों की मानें तो कांग्रेस ने महागठबंधन की इस बैठक में शामिल होने से साफ मना कर दिया था। ऐसे में महागठबंधन के भविष्य को लेकर अटकलों की बाजार गर्म हो गई है। जानकारों की मानें तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हुई भारी फजीहत के बाद पार्टी नेतृत्व अब नये सिसे से बिहार में संगठन को मजबूत करने की तैयारी में जुट गया है। बता दें कि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा रही। लेकिन प्रदर्शन बेहद खराब रहा। पार्टी ने 61 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और सिर्फ 6 सीटें जीत पाई और वोट शेयर लगभग 8.71 प्रतिशत रह गया। सियासत के जानकारों की मानें तो कांग्रेस अपने वोट बैंक को बचाने में भी असफल रही। अब कांग्रेस के नेता इसका ठीकरा राजद नेतृत्व पर थोप रहे हैं। ऐसे में यह माना जा रहा है कि कांग्रेस महागठबंधन से खुद को अलग करने की तैयारी में जुट गई है।
बिहार में पिछले कुछ महीनों से यह चर्चा है कि कांग्रेस अपने संगठन को मजबूत कर अगला चुनाव अकेले लड़ने का विकल्प रख सकती है। दरअसल, कांग्रेस बिहार में कभी मजबूत राजनीतिक ताकत रही है, लेकिन पिछले दो दशकों में पार्टी का जनाधार लगातार घटता गया है। वर्ष 2005 अक्टूबर चुनाव में कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं और वोट शेयर 6.09 प्रतिशत रहा। उसके बाद तो कांग्रेस ने हिम्मत नहीं की। हालांकि वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर करीब 8.37 फीसदी था।
इसके बाद पार्टी ने 2015 में राजद-जदयू गठबंधन और 2020 में महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। 2015 में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा और उसे 27 सीटें मिलीं और वोट शेयर 6.7 फीसदी मिला। उस चुनाव ने कांग्रेस को राहत दी थी, लेकिन यह स्पष्ट हुआ कि सफलता राजद-जदयू के साथ गठबंधन की वजह से थी। इसके बाद वर्ष 2020 में कांग्रेस ने 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और सिर्फ 19 सीटों पर जीत सकी। वोट प्रतिशत लगभग 9.5 प्रतिशत रहा। ऐसे में जानकारों का मानना है कि 2025 में हार के बाद कांग्रेस को लग रहा है कि तेजस्वी यादव के साथ रहने से उसका कुछ नहीं बचा है।
तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया, फिर भी हार गए। कांग्रेस का वोट यादवों में गया, पर राजद का वोट कांग्रेस को नहीं मिला, उल्टा कांग्रेस का वोट काट लिया। बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार राम तक अपनी सीट हार गए। विधायक दल नेता शकील अहमद खान भी हार गए। सूत्रों की मानें तो दिल्ली में हुई समीक्षा बैठक में राहुल गांधी के सामने बिहार के नेताओं ने साफ-साफ कहा कि बिहार में राजद के साथ रहेंगे तो पार्टी खत्म हो जाएगी। अब या तो ज्यादा सीटें लेकर रहें या अलग हो जाएं।
हालांकि, सियासत के जानकारों का मानना है कि अगर कांग्रेस अकेले चलने का फैसला करती है तो उसके सामने ये बड़ी चुनौतियां होंगी। पहला तो यह कि खोया हुआ वोट बैंक वापस पाना, दूसरा यह कि संगठन को जिला और ब्लॉक स्तर पर मजबूत करना, तीसरा यह कि युवा नेतृत्व और नई राजनीतिक लाइन तय करना। इन सबसे ऊपर तो यह कि पहले की गलतियों से सीखना। कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि पार्टी विकल्प तलाश रही है, लेकिन जल्दबाजी में फैसला नहीं होगा। मगर अब यह साफ दिख रहा है कि गठबंधन में उसकी भूमिका पहले जैसी नहीं रह गई है। कांग्रेस अगर अपनी पहचान वापस लाना चाहती है तो उसे सख्त और स्वतंत्र राजनीतिक लाइन लेनी होगी।