स्वामी विवेकानंद ने जब सड़क किनारे पिया गांजा, पढ़ें उनसे जुड़े 5 रोचक किस्से
By गुलनीत कौर | Updated: January 12, 2018 11:09 IST2018-01-12T10:25:27+5:302018-01-12T11:09:27+5:30
वह समय जब उन्हें हुआ मौत का एहसास लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि...

स्वामी विवेकानंद ने जब सड़क किनारे पिया गांजा, पढ़ें उनसे जुड़े 5 रोचक किस्से
आज 12 जनवरी को स्वामी विवेकनन्द जी की 155वीं जयंती है। इसदिन को भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। घर पर प्यार से इन्हें 'नरेन' कहकर पुकारा जाता था। स्वामी जी की 155वीं जयन्ती के अवसर पर हम उनसे जुड़े 5 किस्से बताने जा रहे हैं-
साल 1887
वाराणसी की सड़कों पर स्वामी जी अपने साथियों के साथ चल रहे थे। अचानक उन्होंने दो सन्यासिनों को बंदरों के डर से दौड़ते हुए देखा। अगले पल में एक दूसरी सन्यासिन ने दौड़ती हुई सन्यासिनों को डांटा और वहीं रूककर बंदरों का सामना करने को कहा। इस वाक्य को जब स्वामी जी ने अमरीका में साझा किया तो उन्होंने कहा कि 'इंसान अगर अपने डर का सामना करे और उससे लड़ने की क्षमता रखे तो उसे दुनिया की कोई भी ताकत हरा नहीं सकती है'।
साल 1888
आगरा की गलियों में घूमते हुए स्वामी जी ने किसी को चिलम से धूम्रपान करते हुए देखा। ना जाने उनका मन हुआ कि वे भी ये करना चाहते हैं। तभी चिल्लुम के मालिक ने कहा कि 'स्वामी जी मैं कचरा उठाने वाला नीची जात का और आप सन्यासी, आप मेरी चिलम का इस्तेमाल ना करें। इस घटना के संदर्भ में स्वामी जी ने कहा कि 'हम सभी भगवान के बच्चे हैं, कोई जाति हमारे बीच नहीं आनी चाहिए'।
साल 1890
स्वामी जी इस समय उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में थे और उन्होंने किसी पवहारी बाबा के बारे में किसी से काफी सुना। उनका मन हुआ कि वे भी बाबा से मिलकर दीक्षा लेंगे। वे वहां गए लेकिन कुछ दिनों के पश्चात् ना जाने उन्हें यह एहसास होने लगा कि यहां उन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। एक वे सोए तो उन्होंने सपने में अपने बिस्तर के पास स्वामी रामकृष्ण जी को उदास अवस्था में खड़े देखा। पूरे 15 दिनों तक स्वामी जी को यह सपना रोजाना आया। अंत में वे समझ गए कि वे जहां अभी हैं वह उनके जीवन का सही मार्ग नहीं है, उन्होंने खुद से कहा कि 'उन्हें अपने जीवन की राह से ना भटकर, अपने लक्ष्य पर ही डटे रहना चाहिए'।
साल 1890
स्वामी जी को अचानक खबर मिली कि रामकृष्ण मिशन के प्रिय सेवक 'बलराम बसु' का निधन हो गया है। वे तुरंत गाजीपुर से वाराणसी की ओर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही बलराम बासु के शव को देख स्वामी जी की आंखें भर आई। यह देख किसी ने उनसे कहा कि सन्यासी रोते नहीं हैं। इसपर स्वामी जी ने बेहद क्रोधित होकर जवाब दिया कि 'मेरे सन्यासी होने से मेरी भावनाओं का बदल जाना, ये कहां का इंसाफ है?'
जब मृत्यु से हुआ उनका सामना
ऋषिकेश में मलेरिया के कारण स्वामी विवेकानंद काफी बीमार पड़ गए। आसपास ना कोई डॉक्टर था और ना ही उनकी ऐसी हालत थी कि उन्हें कहीं ले जाया जा सके। उन्हें ये एहसास होने लगा कि उनका अंत करीब है। अचानक एक सन्यासिन उनके कक्ष में आई और उन्हें शहद और पीपल चूर्ण का सेवन करा कर चली गई। स्वामी जी आंखें बंद करके लेट गए और कुछ समय बाद वे अच्छा महसूस करने लगे। उन्होंने बताया कि 'इस अवस्था में मुझे ये आभास हुआ कि मुझे अभी भी ईश्वर के लिए बहुत कुछ करना है। और जब तक मैं यह कर नहीं लेता मैं चैन की सांस नहीं ले पाऊंगा'।