धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की सुनवाई पूरी, सर्वोच्च अदालत ने सुरक्षित रखा फैसला
By स्वाति सिंह | Published: July 17, 2018 04:51 PM2018-07-17T16:51:47+5:302018-07-17T17:07:01+5:30
सुप्रीम कोर्ट ने ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा वे समलैंगिकता मामले में अपने दावों के समर्थन में 20 जुलाई तक लिखित में भी दलीलें पेश करें।
नई दिल्ली, 17 जुलाई: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को समलैंगिक यौन रिश्ते को अपराध देने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई पूरी की।सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा वे समलैंगिकता मामले में अपने दावों के समर्थन में 20 जुलाई तक लिखित में भी दलीलें पेश करें। सुनवाई कर रहे जज जॉर्ज ने कहा 'सेक्स का मकसद केवल बच्चा पैदा करना होता है और इसी लिए किसी तरह का समलैंगिक संबंध पूरी तरह अप्राकृतिक हैं।
Supreme Court reserves order on scrapping of #Sec377 (which criminalises homosexuality)
— ANI (@ANI) July 17, 2018
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इससे पहले गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सहमति से समलैंगिक यौन संबंधों के अपराध के दायरे से बाहर होते ही एलजीबीटीक्यू समुदाय के प्रति इसे लेकर सामाजिक कलंक और भेदभाव भी खत्म हो जायेगा। कोर्ट ने यह भी कहा था कि वह भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की कानूनी वैधता की इसके सभी पहलुओं से जांच करेगी। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 158 साल पुराने दंड प्रावधान की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए धारा 377 को बनाए रखने की मांग करने वाले वकीलों के इस प्रस्ताव को खारिज किया कि इस मामले पर सार्वजनिक राय ली जानी चाहिए। वह जनमत संग्रह नहीं चाहती बल्कि संवैधानिक नैतिकता से चलना चाहती है।
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संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं। पीठ ने अपनी सुनवाई में कहा था, 'हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि भादंसं की धारा 377 संविधान के अनुच्छेदों 14 (समानता का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), और 21 (जीवन जीने का अधिकार) के तहत दिये गये मौलिक अधिकारों की कसौटी पर खरा उतरती है या नहीं। ' पीठ ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि कई सालों में भारतीय समाज में ऐसा माहौल बना दिया गया है जिसकी वजह से इस समुदाय के साथ बहुत अधिक भेदभाव होने लगा और ऐसे लोगों के साथ भेदभाव ने उनके मानसिक स्वास्थ पर भी प्रतिकूल असर डाला है। इस मामले में एक याचिकाकर्ता की वकील मेनका गुरूस्वामी से पीठ ने सवाल किया कि क्या कोई ऐसा कानून, नियम, विनियम, उपनियम या दिशा निर्देश है जो दूसरे लोगों को मिले अधिकारों का लाभ समलैंगिक लोगों को प्राप्त करने से वंचित करता है ?
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संविधान पीठ आज 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। धारा 377 अप्राकृतिक अपराध का जिक्र करते हुये कहती है कि जो कोई भी स्वेच्छा से प्रकृति के विपरीत किसी पुरूष , महिला या पशु के साथ स्वेच्छा से शारीरिक संबंध स्थापित करता है तो उसे उम्र कैद की सजा होगी या फिर एक अवधि , जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है , की कैद होगी और उसे जुर्माना भी देना होगा। सरकार ने एकांत में परस्पर सहमति से वयस्कों के बीच कृत्यों से संबंधित धारा 377 की संवैधानिक वैधता की परख करने का मामला कल शीर्ष अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था। सरकार ने कहा था कि समलैंगिक विवाह , गोद लेना और दूसरे नागरिक अधिकारों पर उसे विचार नहीं करना चाहिए।
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सरकार के इस कथन का संज्ञान लेते हुये पीठ ने कहा था कि दूसरे बिन्दुओं पर हम विचार नहीं कर रहे हैं। पीठ ने कहा था कि वह दो वयस्कों के बीच सहमति से होने वाले यौन संबंधों के संबंध में धारा 377 की वैधता की ही परख कर रहा है। इस कानून को उपनिवेश काल की विरासत बताते हुये गुरूस्वामी ने कल कहा था कि इससे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन होता है।
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(भाषा इनपुट के साथ)