मराठा आरक्षण कानूनः सुप्रीम कोर्ट ने कहा, आप मेमो दीजिए, हम इस पर गौर करेंगे
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: July 29, 2019 01:20 PM2019-07-29T13:20:22+5:302019-07-29T13:20:22+5:30
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने एक वकील के इस कथन पर गौर किया कि जिन याचिकाओं को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होना था, वे न्यायालय की कार्यसूची में नहीं है। पीठ ने इस मामले को सुनवाई के लिये शीघ्र सूचीबद्ध करने का अनुरोध कर रहे वकील से कहा, “आप मेमो दीजिए। हम इस पर गौर करेंगे।”
उच्चतम न्यायालय ने सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा में मराठा समुदाय को आरक्षण देने संबंधी महाराष्ट्र के कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर तत्काल सुनवाई के अनुरोध पर विचार करने पर सोमवार को सहमति जताई।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने एक वकील के इस कथन पर गौर किया कि जिन याचिकाओं को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होना था, वे न्यायालय की कार्यसूची में नहीं है। पीठ ने इस मामले को सुनवाई के लिये शीघ्र सूचीबद्ध करने का अनुरोध कर रहे वकील से कहा, “आप मेमो दीजिए। हम इस पर गौर करेंगे।”
शीर्ष अदालत में मराठा आरक्षण को सही ठहराने के बंबई उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ जे लक्ष्मण राव पाटिल और वकील संजीत शुक्ला की याचिका लंबित है। इन याचिकाओं में बंबई उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई है जिसमें आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया।
उच्च न्यायालय ने अपने 27 जून के फैसले में कहा था कि कुल आरक्षणों पर उच्चतम न्यायालय की ओर से लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा को अपवाद की परिस्थितियों में पार किया जा सकता है। “यूथ फॉर इक्वेलिटी” के प्रतिनिधि शुक्ला ने अपनी याचिका में कहा कि सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग (एसईबीसी) कानून, 2018 शीर्ष अदालत द्वारा इंदिरा साहनी मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले में आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत सीमा का उल्लंघन है।
इस फैसले को “मंडल आदेश” भी कहा जाता है। महाराष्ट्र विधान मंडल ने मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं मे 16 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान करने संबंधी एक विधेयक 30 नवंबर, 2018 को पारित किया था।
इससे पहले, शीर्ष अदालत मराठा समुदाय को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण देने संबंधी कानून की संवैधानिक वैधता पर विचार के लिये तैयार हो गया था लेकिन उसने कुछ संशोधनों के साथ इस कानून को सही ठहराने के उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था।
उच्च न्यायालय ने कहा था कि 16 प्रतिशत आरक्षण न्यायोचित नहीं है लेकिन उसने अपनी व्यवस्था में कहा था कि नौकरी के मामले में आरक्षण की सीमा 12 फीसदी तथा शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये 13 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए।
उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार की इस दलील को भी स्वीकार कर लिया था कि मराठा समुदाय सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा है तथा उनकी प्रगति के लिये कदम उठाना सरकार का कर्तव्य है।