नयी दिल्ली, 27 नवंबर मध्ययुगीन काल में असमिया भाषा के अत्यन्त प्रसिद्ध कवि और विभिन्न विषयों का ज्ञान रखने वाले श्रीमंत शंकरदेव अखिल भारतीय संदर्भ में एक धार्मिक सुधारक थे। एक किताब में यह दावा किया गया है।
इस किताब में कहा गया है कि शंकरदेव ने अपनी सुधार गतिविधियों को केवल असम तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि इन्हें पूरे ‘भारतवर्ष’ में चलाया।
लेखक संजीब कुमार बोरकाकोटी ने राष्ट्र के लिए संत के योगदान को उल्लेखित करते हुए बताया है कैसे उनके संदेश का असम के बाहर भी अच्छी तरह से अनुसरण किया गया था।
लेखक के अनुसार, शंकरदेव दिल से भारतीय थे और उनकी भारतीय स्थिति को समझने के लिए भारतवर्ष की अवधारणा को समझना होगा। उन्होंने कहा, ‘‘भारतवर्ष नाम का अर्थ है संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप और भारतीय संस्कृति का अर्थ है उपमहाद्वीप की रंगारंग संस्कृति।’’
उन्होंने किताब में लिखा, ‘‘यह व्यापकता भारतवर्ष के बारे में श्रीमंत शंकरदेव की अभिव्यक्ति में भी परिलक्षित होती है। किसी भी भौगोलिक सीमा ने उनकी अभिव्यक्ति को सीमित नहीं किया। उन्होंने कहा कि शंकरदेव ने उपमहाद्वीप की भौगोलिक पहचान के बजाय सांस्कृतिक पहचान को महत्व दिया।
लेखक ने कहा, ‘‘उन्होंने सनातन धर्म का भक्ति मार्ग प्रस्तुत किया। उन्होंने महाभारत और रामायण महाकाव्यों के दो नायकों कृष्ण और राम को अनुकरणीय के तौर पर पेश किया।’’
बोरकाकोटी ने किताब में उल्लेख किया है कि कैसे शंकरदेव ने अपनी सुधार गतिविधियों को सिर्फ असम तक ही सीमित नहीं रखा। किताब में कहा गया है, ‘‘उन्होंने पूरे भारतवर्ष में इन गतिविधियों को अंजाम दिया। इसीलिए उन्होंने 1481 से 1493 के दौरान भारतवर्ष के कोने-कोने में यात्रा की और सनातन धर्म के सार को आम लोगों के बीच स्थापित करने का प्रयास किया। पुरी, पुस्कर, वृंदावन आदि में कई लोगों ने उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार किया और उनकी विचारधारा का पालन करना शुरू कर दिया; इसका प्रमाण मध्यकालीन जीवन-चित्रों में मिलता है।
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