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आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है एशियाई सहयोग, रहीस सिंह का ब्लॉग

By रहीस सिंह | Updated: August 28, 2020 15:32 IST

चुनौती हमारे चारों तरफ बिखरे हमारे पड़ोसी बनेंगे. इसके बाद वे एशियाई देश हो सकते हैं जो कुछ खांचों में बंटे हुए हैं और अभी तक भारतीय खांचों में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं अथवा ऐसा करने में या तो असहज महसूस करते हैं या फिर उन खांचों में जगह पा चुके हैं जो भारत विरोधी सिंड्रोम से सम्पन्न हैं.

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ठळक मुद्दे अब सवाल यह उठता है कि फिर भारतीय क्षमताओं के अनुरूप डिविडेंड कैसे हासिल हो पाएगा?परिकल्पना मात्र ही  है कि नए वर्ल्ड आर्डर में एशिया निर्णायक भूमिका में होगा या 21वीं सदी का नेतृत्व वही करेगा?मंथन में पड़ोसी देशों को लेकर काफी कुछ अहम विषय था, जिसे संकेतों में समझने की जरूरत होगी.

स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने भाषण में स्वाभिमान के साथ आत्मनिर्भर भारत को विशेष स्थान दिया था. चूंकि स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के दायरे बेहद विस्तृत हैं, इसलिए इन्हें वर्गीय, क्षेत्रीय या राष्ट्रीय परिधि तक ही सीमित रखना उचित नहीं होगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय परिधियों तक ले जाना होगा.

लेकिन जैसे ही हम इसे राष्ट्रीय परिधियों से अंतरराष्ट्रीय परिधियों की ओर ले जाना शुरू करेंगे, हमारे सामने सबसे पहली चुनौती हमारे चारों तरफ बिखरे हमारे पड़ोसी बनेंगे. इसके बाद वे एशियाई देश हो सकते हैं जो कुछ खांचों में बंटे हुए हैं और अभी तक भारतीय खांचों में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं अथवा ऐसा करने में या तो असहज महसूस करते हैं या फिर उन खांचों में जगह पा चुके हैं जो भारत विरोधी सिंड्रोम से सम्पन्न हैं. अब सवाल यह उठता है कि फिर भारतीय क्षमताओं के अनुरूप डिविडेंड कैसे हासिल हो पाएगा?

चूंकि अधिकांश एशियाई देश कुछ ऐतिहासिक संघर्षों, पारम्परिक विवादों, गैर-सम्भ्रांत प्रतिस्पधार्ओं और नई भू-राजनीतिक व आर्थिक महत्वाकांक्षाओं के शिकार हैं, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि वे इन प्रतिस्पर्धाओं व टकरावों से मुक्त होकर शांति, समृद्धि और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना के साथ आगे बढ़ पाएंगे. तो क्या यह सोचना सिर्फ परिकल्पना मात्र ही  है कि नए वर्ल्ड आर्डर में एशिया निर्णायक भूमिका में होगा या 21वीं सदी का नेतृत्व वही करेगा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बार पड़ोसी देशों को लेकर ज्यादा तो नहीं बोले लेकिन उनके वैचारिक मंथन में पड़ोसी देशों को लेकर काफी कुछ अहम विषय था, जिसे संकेतों में समझने की जरूरत होगी. उनके वक्तव्य में यह संदेश तो था कि पड़ोसी देशों के साथ जो हमारी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी रही हैं, उन्हें और गहरा करके मजबूत बनाने की आवश्यकता है.

यह सच है कि भारत के साथ उसके पड़ोसियों की तमाम साझी विरासतें हैं, साझा इतिहास है और भूगोल भी. लेकिन फिर भी वे कभी एक साझी एशियाई ताकत नहीं बन पाए. यही वजह है कि प्राकृतिक एवं मानवीय पूंजी की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न होने के बावजूद एशिया कभी भी दुनिया का नेतृत्व नहीं कर पाया. तो क्या अब वे एशियाई देश, शांति ही समृद्धि का आधार है, इस मूलमंत्र पर अमल करने की कोशिश करेंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इसी मंत्र की ओर इशारा किया है.

शायद इसी को केंद्र में रखकर वे कह रहे थे कि आज सिर्फ पड़ोसी वही नहीं हैं जिनसे हमारी भौगोलिक सीमाएं मिलती हैं बल्कि वो भी हैं जिनसे दिल मिलता है. यानी हम अब केवल इंडियन सबकांटिनेंटल ब्रदरहुड या साउथ एशियन ब्रदरहुड तक सीमित नहीं रहना चाहते बल्कि इन सीमाओं से परे जाकर एशियन ब्रदरहुड या उससे भी आगे यूनिवर्सल ब्रदरहुड तक रास्ता तय करना चाहते हैं. लेकिन क्या यह संभव है? वैश्विक परिदृश्य में मौजूद मानवीय, आर्थिक व अन्य पक्षों को देखें तो एशिया सबसे ज्यादा मानव पूंजी, सबसे बड़े आयतन वाला बाजार, सबसे बड़े भू-भाग, सबसे समृद्ध प्राकृतिक संपदा वाला महाद्वीप है.

यही नहीं यह दुनिया का सबसे तेज दर से आर्थिक विकास करने वाला क्षेत्र और जीडीपी (पीपीपी) के आधार पर दुनिया का सबसे बड़ा इकोनॉमिक ब्लॉक है. दुनिया की दूसरी, तीसरी और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एशिया के पास ही हैं. एशिया का यदि गहन अध्ययन किया जाए तो वह सबसे अधिक संभाव्य क्षमता (पोटेंशियल) वाली अर्थव्यवस्था और बाजार दिखायी देगा, जो प्रत्येक दृष्टि से समर्थ, समृद्ध और आत्मनिर्भर होगा.

इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में एशिया का केवल एक सदस्य है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक में उसका तुलनात्मक दृष्टि से कोटा बहुत कम है. इसका मतलब तो यही हुआ कि यह आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक संस्थाओं में कमजोर उपस्थिति दर्ज करा पा रहा है. आखिर क्यों?

हम यह मानते हैं कि भारत और चीन के बीच बुनियादी भू-राजनीतिक टकराव है, लेकिन ऐसा नहीं कि उसका समाधान न हो. इसके लिए चीन को अपने उस सिंड्रोम से मुक्त होना होगा जो उसने 1962 के युद्ध में मिली विजय के बाद निर्मित कर लिया है और उस महत्वाकांक्षा को त्यागना होगा जो उसे साम्राज्यावाद के लिए प्रेरित करती है.

जो भी हो, अब समय आ गया है कि भारत इन स्थितियों का अध्ययन करते हुए एक ग्रैंड कॉम्प्रिहेंसिव रोडमैप तैयार करे. कोविड या वुहान वायरस के बाद चीन के प्रति उपजते अविश्वास ने ग्लोबल स्तर पर एक बड़ा स्पेस निर्मित किया है जिसे भरने की स्थिति में अभी फिलहाल कोई भी राज्य नहीं है. भारत इसका फायदा उठा सकता है.

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