'खतरे में कई भारतीय भाषाएं, बोआ है आखिरी मृत भाषा', पढ़ें आजाद भारत का एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण करने वाले प्रो. गणेश नारायण का इंटरव्यू

By शरद गुप्ता | Published: July 13, 2022 09:45 AM2022-07-13T09:45:09+5:302022-07-13T09:46:11+5:30

प्रो. गणेश नारायण देवी आजाद भारत का एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण करने वाले शख्स हैं. प्रख्यात भाषाविद प्रो. गणेश नारायण देवी भारत में भाषाओं पर खतरे और उसके लुप्त होने विस्तार से लोकमत से बात की। पढ़िए...

Prof Ganesh Narayan Devy Interview: 280 Indian languages ​​have died in the last 50 years | 'खतरे में कई भारतीय भाषाएं, बोआ है आखिरी मृत भाषा', पढ़ें आजाद भारत का एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण करने वाले प्रो. गणेश नारायण का इंटरव्यू

भारत के प्रख्यात भाषाविद्‌ प्रो. गणेश नारायण देवी

गुजरात के वडोदरा स्थित भाषा विज्ञान शोध और प्रकाशन संस्थान के संस्थापक प्रो. गणेश नारायण देवी भारत के प्रख्यात भाषाविद्‌ हैं जिन्होंने 2011 में आजाद भारत का एकमात्र भाषाई सर्वेक्षण किया. प्रो. देवी मराठी मूल के हैं और वर्तमान में धारवाड़ में रहते हैं. उन्हें 2014 में पद्‌मश्री से नवाजा जा चुका है. लोकमत मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर (बिजनेस एवं पॉलिटिक्स) शरद गुप्ता  से बातचीत में उन्होंने भाषाओं के लुप्त होने के कारण और उन्हें बचाने के उपाय बताए...

- आपको भारतीय भाषाओं के कमजोर होते जाने के बारे में कैसे पता चला और आपकी रुचि कैसे जगी?

1970 के दशक में मैं एक शोधार्थी था. जब मैंने 1971 की जनगणना की उसमें 109 भाषाओं के नाम थे. 108 भाषाएं थीं और 109 के आगे लिखा था बाकी सब. यह अजीब लगा. तो मैंने 1961 की जनगणना के परिणाम देखे. उसमें 1652 भाषाओं के नाम दिए थे. जिस देश में भाषाओं के आधार पर ही प्रदेश बने हों, वहां भाषाओं के साथ यह व्यवहार ठीक नहीं लगा. मैंने बचपन से ही गांव वालों और आदिवासियों, मजदूरों और घुमंतू जातियों की भाषाओं, बोलियों और लोकगीतों को सुना था. इसलिए भी मुझे लगा कि ये भाषाएं कहां गईं. 1980 में बड़ौदा यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक बनने के बाद मैं अपना स्कूटर लेकर महाराष्ट्र-गुजरात की सीमा पर आदिवासियों के बीच घूम-घूम कर नई भाषाओं की तलाश करने लगा. 1996 में मैंने प्रोफेसरशिप छोड़ दी और भाषा शोध संस्थान की नींव रखी और भाषाई सर्वेक्षण शुरू किया.

- क्या इससे पहले देश में भाषाओं को लेकर कभी कोई सर्वेक्षण नहीं हुआ था?

हुआ था. 1886 में एक अंग्रेज  नौकरशाह जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने इसका प्रस्ताव दिया था. उन्हीं के काफी प्रयासों से 1891 में यह स्वीकृत हुआ. 30 साल चला और 1928 में इसकी रिपोर्ट आई. इसके बाद 2006-07 में तत्कालीन सरकार ने 2.8 अरब रु. की लागत से भाषाई सर्वे करने का जिम्मा सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेस मैसूर को दिया. लेकिन 2008 में प्रोजेक्ट ही रद्द कर दिया गया. तब 2010 में हमने वडोदरा स्थित भाषा शोध संस्थान के तत्वावधान में पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे के नाम से सर्वेक्षण किया जिसकी रिपोर्ट 72 खंडों में प्रकाशित हुई, 20 और आने बाकी हैं.

- भारत में भाषा की कितनी विविधता है?

हमारे सर्वे के अनुसार अभी देश में 1369 मातृभाषाएं हैं. बाकी तो कहावत है ही कि हर 10 कोस पर भाषा बदलती है. हिंदी को ही ले लें, सैकड़ों बोलियां हैं. मराठी, तमिल तेलुगू सभी के दसियों रूप प्रचलित हैं. सभी को जोड़ेंगे तो यह 16000 से अधिक बैठता है. लेकिन अब अपनी मातृभाषा बोलने वाले लोग कम हो रहे हैं.

- भाषाएं क्यों लुप्त हो रही हैं?

माइग्रेशन इसका सबसे बड़ा कारण है. कोई व्यक्ति यदि बिहार से असम या केरल काम करने जाता है और वहीं बस जाता है तो अपनी मातृभूमि से जुड़े होने के बावजूद पीढ़ी दर पीढ़ी वह अपनी मातृभाषा से कट जाता है. यदि व्यक्ति को अपने गांव घर के पास काम मिलता है तो वह अपनी मातृभाषा को जीवित रखता है. दूसरा बड़ा कारण है तकनीक. कम्प्यूटर और मोबाइल के आने के बाद यदि मातृभाषा में कीबोर्ड नहीं है तो लोग अंग्रेजी या रोमन में लिखते हैं. इससे भी भाषाओं का क्षरण हो रहा है.

- अभी तक कितनी भाषाएं विलोपित हो चुकी हैं व कितनी लुप्त होने के कगार पर हैं?

यदि 1961 का सर्वेक्षण देखें तब से  2010 के बीच 280 भाषाओं के नाम भी गायब हो चुके हैं. बोलियों के गायब होने की तो गिनती ही नहीं है. आदिवासियों का तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है और वह अपनी संस्कृति और भाषा से कटते जा रहे हैं. अगले 30 वर्षों में बाकी बची भाषाओं में से अधिकतर मिट जाएंगी. जो भाषा आज डिजिटल वर्ल्ड में नहीं पहुंची है उसका जिंदा रहना असंभव है.

- भाषा को कब मृत माना जाता है?

जब उसे बोलने वाला आखिरी व्यक्ति न रहे.

- इस तरह खत्म होने वाली आखिरी भारतीय भाषा कौन सी थी?

अंडमान में बोली जाने वाली बोआ को आखिरी मृत भाषा माना जाता है. इसी तरह सिक्किम की मांझी भाषा पिछले 10 वर्षों में खत्म हो गई है.

- क्या अंग्रेजी का बढ़ता प्रभाव भी इसके लिए जिम्मेदार है?

बिल्कुल, जो भाषा डिजिटल वर्ल्ड में नहीं है उसका भविष्य खतरे में है. चूंकि हमने चीन, रूस, कोरिया, जर्मनी या इजराइल की तरह अपनी भाषा का संरक्षण नहीं किया, इसलिए यह हालत है.

- इस क्षरण को कैसे रोका जा सकता है?

लोगों को उनकी भाषा में व्यवसाय देना होगा, तभी भाषा और संस्कृति बच सकती है. मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर भी बच्चों में अपनी भाषा के प्रति प्रेम जगाया जा सकता है. लेकिन जब तक व्यवसाय अपनी भाषा में नहीं होगा तब तक उसे बचाना मुश्किल है. महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा पर बोली जाने वाली डांगी भाषा की यही हालत है. वहां से 90 प्रतिशत लोग काम के लिए उत्तर प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडु आदि जगहों के लिए पलायन कर चुके हैं. आप उसका भविष्य समझ सकते हैं.

Web Title: Prof Ganesh Narayan Devy Interview: 280 Indian languages ​​have died in the last 50 years

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