युवा हिन्दी लेखक प्रेमचंद से सीख सकते हैं ये तीन बातें
By रंगनाथ सिंह | Published: July 31, 2021 09:23 AM2021-07-31T09:23:11+5:302021-07-31T11:31:55+5:30
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गाँव में हुआ था। एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास और तीन सौ से ज्यादा कहानियाँ लिखने वाले प्रेमचंद को कथा सम्राट माना जाता है। प्रेमचंद का निधन अक्टूबर 1936 में हुआ। आज प्रेमचंद जयंती पर रंगनाथ सिंह बता रहे हैं कि युवा लेखक प्रेमचंद के लेखन और जीवन से कौन सी तीन बातें सीख सकते हैं।
आज प्रेमचंद जयंती है। बांग्ला के लिए रविंद्रनाथ, इंग्लिश के लिए शेक्सपीयर, रूसी के लिए तोल्सतोय का जो कद होगा वही कद हिन्दी के लिए प्रेमचंद का है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सन 1873 में लिखा, 'हिन्दी नई चाल में ढली।' भारतेंदु की यह स्थापना आधुनिक हिन्दी गद्य की आधारशिला मानी जाती है। सन 1880 में प्रेमचंद का जन्म हुआ। 56 वर्ष कुछ महीनों की उम्र में उन्होंने विश्व स्तरीय कथा साहित्य का सृजन किया। जिस गद्य शैली की आधारशिला महज कुछ दशक पहले रखी गयी हो उसमें इस स्तर का साहित्य रचने का दूसरा उदाहरण पूरे विश्व में कम ही मिलेगा। प्रेमचंद की कहानियों को आप दुनिया के किसी भाषा के महान लेखक की कहानियों के समकक्ष रख सकते हैं। यकीन जानिए आप हीन नहीं महसूस करेंगे।
हिन्दी के कई युवा लेखकों एवं पाठकों को मैंने बोर्खेज-मार्खेज-बुकावस्की इत्यादि करते देखा और जब पूछा कि आपने प्रेमचंद या हजारीप्रसाद द्विवेदी का क्या पढ़ा है तो संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। सामान्य पाठक की बात अलग है। वह जो चाहे पढ़ सकता है। लेखक की जड़ें अपने पैर के नीचे की अपनी जमीन में न धँसी हों तो वो दूर देश की जमीन से बहुत देर तक पोषण नहीं प्राप्त कर सकता।
मैंने आज से पहले कभी प्रेमचंद पर ऐसी कोई पोस्ट नहीं लिखी लेकिन उम्र बढ़ जाने के कारण यह ढिठाई कर रहा हूँ। सभी नौजवान मित्रों, खासकर लेखन में रुचि रखने वाले युवाओं को प्रेमचंद समग्र पढ़ने की सलाह देना चाहूँगा। मुझे लगता है कि हम जैसे भावी लेखकों को प्रेमचंद से तीन बातें जरूर सीखनी चाहिए, भाषा, सादगी और जनपक्षधरता।
हिन्दी में भाषा की बाजीगरी बीमारी के स्तर तक पहुँच चुकी है। सुरेंद्र मोहन पाठक के शब्दों में कहें तो पेज दर पेज पढ़ जाता हूँ केवल भाषा मिलती है, कथा नहीं मिलती! क्लिष्ट, चमकीली और असामान्य दिखने वाली भाषा जिसे पहले के लोग वाग्जाल कहते थे, का चलन तेजी से बढ़ा है। सरलहृदय पाठक भाषा के लच्छे को लेखन समझने लगता है। यह अलग बात है कि वह उसमें कोई अर्थ नहीं पाता फिर भी चमकीली वेशभूषा से प्रभावित होकर वाह-वाह करता है। कई बार तो उसे इस भाषायी ठगी का अहसास हो जाता है लेकिन इस डर से चुप रहता है कि दूसरे लोग उसे कमअक्ल न समझ लें। यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी ने बहुत अच्छा सूट-बूट पहन रखा हो लेकिन उसके पास ने देह हो और न आत्मा। उसके आसपास के लोग बोलें क्या लग रहे हो यार! अमीर लोगों की महफिलों में आपको ऐसे दृश्य अक्सर दिख जाएँगे कि जिनके पास न देह हो न आत्मा लेकिन उनके लिबास शानदार होते हैं।
आपने गौर किया होगा कि हिन्दी जगत में सबसे लोकप्रिय तारीफ है - इनकी भाषा बहुत अच्छी है! (क्या ही किया जाए तारीफ करने लायक कुछ और हो तब ना?) आप उसी के समकक्ष अंग्रेजी की किताबों की समीक्षा देखें। आपको यह पँक्ति मुश्किल से देखने को मिलेगी कि 'लेखक की भाषा बहुत अच्छी है!' जिसकी भाषा खराब है वो लेखक क्यों बनेगा!
मुझसे कभी कोई पूछता है कि अच्छी हिन्दी लिखना कैसे सीखें? तो मैं कहता हूँ कि प्रेमचंद को अधिक से अधिक पढ़ें। कोई यह पूछता है कि कैसी भाषा लिखनी चाहिए? तब भी जवाब वही होता है।
नीचे लगी तस्वीर प्रेमचंद की बेहद लोकप्रिय तस्वीर है। तस्वीर में प्रेमचंद ने जो जूता पहना है वह एक तरफ से फटा हुआ है। ऐसा इसलिए नहीं है कि प्रेमचंद दारुण गरीबी में जीते थे। ऐसा इसलिए है कि प्रेमचंद अपने दौर के भारत के सबसे बड़े लेखकों में शुमार होने के बावजूद दिल से एक निम्न मध्यमवर्गीय नागरिक थे। वो अपने विचारों और लेखन पर जितना ध्यान देते थे उतना अपने जूते-कपड़े पर नहीं देते थे। वह सही मायनों में आडम्बरविहीन थे।
हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें लेखक पर सेलेब्रिटी बनने का भारी दबाव है। लेखक और मॉडल या फिल्म स्टार में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। हर पेशे में अलग-अलग स्वभाव के लोग होते हैं। हम अपने स्वभाव के हिसाब से अपना रोलमॉडल चुनते हैं। जहाँ से मैं देखता हूँ वहाँ से मुझे यही दिखता है कि लेखक बनने की प्रेरणा फिल्मस्टार या मंत्री या आईएएस या सीईओ बनने की प्रेरणा से अलग होती है। मैं जिन्हें अपना प्रिय लेखक समझता हूँ उन सभी को सहज स्वभाव का पाया है। अगर प्रेमचंद अपने फटे जूतों में सहज रह सकते हैं तो हम अपनी सामान्य स्थिति में सहज क्यों नहीं रह सकते!
प्रेमचंद से जो तीसरी बात सीखना चाहता हूँ, वो है उनकी जनपक्षधरता। भाषा हर लेखक का निजी चुनाव है। जीवनशैली भी लेखक का निजी मसला है। अतः ऊपर की दो सीख सापेक्षिक हैं। मेरे ख्याल से इस तीसरी सीख को सीखे बिना कोई प्रेमचंद सरीखा लेखक नहीं बन सकता। दुनिया के सभी लेखक किसी न किसी लोकेशन से लिखते हैं। मुझे लगता है कि आधुनिक लेखक को अवाम की लोकेशन से लिखना चाहिए। हुक्मरान लेखक खरीद सकते हैं, अवाम अधिक से अधिक 50-100 रुपये देकर किताब खरीद सकती है। भारत जैसे गरीब देश में बहुतों के लिए 50-100 रुपये भी महँगा है।
जिसके पास सत्ता-सम्पत्ति है उसे प्रेमचंद जैसे लेखक की जरूरत भी क्या है! प्रेमचंद ने अपने लेखन का मुख्य विषय किसान एवं ग्रामीण को बनाया। मैं प्रेमचंद की तरह कथा लेखक नहीं हूँ लेकिन उनकी यह बात मुझे बहुत प्रेरित करती है कि उन्होंने सदैव साधारण वंचित पीड़ित जन की दृष्टि से कथा कही। यह लिखते हुए प्रेमचंद की मंत्र कहानी याद आ रही है। एक डॉक्टर और एक सँपेरे की कहानी। प्रेमचंद इसीलिए हमारे रोलमॉडल हैं क्योंकि उन्होंने दिखाया कि सम्पन्नता-संस्कृति-शिक्षा के पोडियम पर खड़ा एक डॉक्टर नहीं बल्कि उसी डॉक्टर की बेरुखी के चलते अपना पुत्र खो चुका सँपेरा ज्यादा महान मनुष्य था। साधारणता के इस वैभव को स्थापित करने की अपनी कला के कारण ही प्रेमचंद अमर हो गये।
इन्हीं शब्दों के साथ कथासम्राट को सादर नमन