सत्ता के लिए कर्नाटक में जोड़तोड़ की राजनीति का नाटक जारी है और इसी के मद्देनजर राजस्थान में भी सियासी आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं, लेकिन राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कर्नाटक में कामयाबी मिलने के बाद पहले एमपी पर निशाना साधा जाएगा, इसके बाद ही राजस्थान का नंबर आएगा.
दरअसल, पंजाब कांग्रेस का सबसे मजबूत राज्य है, तो कर्नाटक सबसे कमजोर कड़ी है, लिहाजा पहला सियासी हमला यहीं किया गया. कर्नाटक के बाद दूसरी कमजोर कड़ी मध्यप्रदेश है, तो तीसरी राजस्थान. हालांकि, एमपी और राजस्थान में जोड़तोड़ की राह में कुछ बाधाएं भी हैं.
एकः जहां कर्नाटक में बीजेपी का नेतृत्व पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के हाथों में हैं, वहीं राजस्थान में अभी तय नहीं है कि नेतृत्व कौन करेगा?
दोः राजस्थान में संघ बहुत प्रभावी है, इसलिए संघ की सहमति के बगैर किसी भी बागी को आसानी से बीजेपी में एंट्री नहीं मिल सकती है.
तीनः आयाराम-गयाराम की बेशर्म सियासी परंपरा की राजस्थान में जड़े गहरी नहीं हैं, इसलिए राजस्थान में दलबदल के दम पर संख्याबल हांसिल करना बीजेपी के लिए थोड़ा मुश्किल है.
चारः राजस्थान में अभी बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष का पद रिक्त है, इस पर फैसला होने के बाद ही कुछ ऐसा पाॅलिटिकल एक्शन संभव हो पाएगा.
पांचः कुछ समय बाद स्थानीय चुनाव होने हैं, जोड़तोड़ के निर्णय से पुराने और समर्पित भाजपाई असहज और नाराज हो सकते हैं, जिसके कारण बीजेपी को फायदे के बजाए नुकसान भी हो सकता है.
छहः राजस्थान में मंत्रिमंडल का विस्तार बाकी है और कई राजनीतिक नियुक्तियां भी होनी है, ऐसी नियुक्तियों से पहले बगावत के लिए विधायकों को तैयार करना आसन नहीं है.
सातः बसपा विधायक, केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देशों के मद्देनजर अपना रास्ता अलग कर सकते हैं, लेकिन ज्यादातर निर्दलीय विधायक तो सीएम गहलोत के साथ ही हैं, इसलिए संख्याबल के आधार पर गहलोत सरकार को अस्थिर करना इतना आसान नहीं है.
सियासी सारांश यही है कि राजस्थान में भी कर्नाटक जैसी सियासी जोड़तोड़ होगी जरूर, परन्तु इसमें वक्त लग सकता है, क्योंकि इस समय राजनीतिक समीकरण बीजेपी के पक्ष में नहीं है!