नामवर सिंह जन्मदिन विशेष: मैं भी इस देश में उर्दू की तरह रहता हूँ

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: July 28, 2019 07:48 AM2019-07-28T07:48:35+5:302019-07-28T07:48:35+5:30

हिंदी उर्दू के आपसी रिश्ते पर नामवर सिंह (1 मई 1927 - 19 फरवरी 2019) का यह लेख राजकमल प्रकाशन की किताब 'ज़माने से दो-दो हाथ' से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है।

Namvar Singh birth anniversary: Article on hindi urdu debate | नामवर सिंह जन्मदिन विशेष: मैं भी इस देश में उर्दू की तरह रहता हूँ

हिंदी उर्दू के आपसी रिश्ते पर नामवर सिंह का लेख

Highlights1947 के पहले हिन्दी प्रदेशों में विद्यालयों में हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भी सीखना पड़ता था। आजादी के बाद सम्पूर्णानन्द ने उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में उर्दू को अनिवार्य विषय से ऐच्छिक विषय बना दिया।

नामवर सिंह

एक जमाने में प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच जैसे मुख्यधारा के तीनों लेखक संगठनों की सामूहिक गोष्ठियों में हिन्दी के साथ-साथ उर्दू के भी लेखक शामिल होते रहे हैं। जब प्रगतिशील लेखक संघ अधिक सक्रिय था तब हिन्दी-उर्दू लेखकों के बीच ज्यादा संवाद होता था, अब कई कारणों से यह संवाद कम हो रहा है। तब हिन्दी लेखकों को उर्दू, और उर्दू लेखकों को हिन्दी साहित्य की अच्छी जानकारी हुआ करती थी।

आजादी के बाद भले ही देश का विभाजन हो गया, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा बनी और उर्दू अपना वह स्थान खो चुकी जो उसे 1947 से पहले प्राप्त था- इन सबके बावजूद एक बड़ी घटना यह हुई कि बड़े पैमाने पर उर्दू की किताबें हिन्दी में आईं- कुछ लिप्यान्तरित होकर कुछ अनूदित होकर।

सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर, राजेन्द्रसिंह बेदी, इस्मत चुग़ताई, कुर्रतुलऐन हैदर आदि भारतीय लेखक ही नहीं बल्कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, नासिर काजमी, इंतज़ार हुसैन, अहमद फराज तथा नए लेखकों जैसे फहमिदा रियाज, किश्वर नाहिद का पूरा साहित्य हिन्दी में उपलब्ध है। 

यह सब हिन्दीवालों की दरियादिली के कारण नहीं बल्कि उर्दू साहित्य की ताकत के कारण हुआ। जावेद अख्तर का ‘तरकश’ नागरी में पहले आया, उर्दू में बाद में। इसका आडियो कैसेट भी खूब बिका।

मिर्ज़ा ग़ालिब पर पहले सोहराब मोदी ने फिल्म बनाई फिर गुलजार ने टी.वी. सीरियल बनाया। गरज यह कि हिन्दी के लोग हमेशा से उर्दू साहित्य से भली-भाँति परिचित रहे हैं। इसकी तुलना में उर्दूवाले हिन्दी के बारे में कम जानते हैं। उर्दूवाले हिन्दी साहित्य के बारे में कितना जानते हैं, इस पर मैं टिप्पणी नहीं करूँगा। हाँ, यह बात जरूर है कि पाकिस्तान में हिन्दी साहित्य की जबर्दस्त माँग है। ‘आजकल’ के संपादक जुबैर रिज़वी ने हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित दो विशेषांक निकाले जो वहाँ काफ़ी बिके। 

यह ज़मीनी सच्चाई है। बावजूद इसके जो उर्दू के रौशन ख़याल लेखक हैं, वे जो जलसे करते हैं उनमें दिल खोलकर हिन्दी वालों को बुलाते हैं। उर्दूवाले अपनी विभिन्न कमेटियों में भी हिन्दी लेखकों को शामिल करते हैं। एक-दूसरे को बुलाने का चलन हिन्दू-मुस्लिम एकता या धर्मनिरपेक्षता के कारण नहीं है, बल्कि यह शुद्ध अदबी मामला है। हिन्दी-उर्दू साहित्य के सरोकार एक हैं।

यह शुरुआत तरक़्क़ी पसन्द तहरीक ने की थी। वह परम्परा आज भी जिन्दा है। इसका असर यह हुआ कि बगैर किसी आन्दोलन के उर्दू और हिन्दी ज़बान आम जनता के करीब आई। महात्मा गांधी भी हिन्दुस्तानी ज़बान कायम करना चाहते थे जो चली नहीं। 

आज हुआ यह कि धीरे-धीरे हिन्दी रचनाकार संस्कृतनिष्ठता से हटे हैं और उर्दू रचनाकार फारसीयत से हटे हैं। दोनों भाषाओं के रचनाकारों ने खुद को आम बोलचाल की ज़बान से जोड़ा। जो काम राजनीतिज्ञ नहीं कर सके, वह रचनाकारों ने कर दिखाया। मीडिया की ज़बान बदल गई है। रेडियो, टेलीविज़न ही नहीं अख़बारों की ज़बान बदल गई है। आज ‘आपत्ति’ को एतराज़, ‘कठिन’ को मुश्किल और ‘विपत्ति’ को मुसीबत कहने में किसी को गुरेज नहीं है। मैं यहाँ अपने मित्र निदा फाज़ली का एक शेर उद्धृत करना चाहूँगा- 
‘‘सब मेरे चाहने वाले हैं मेरा कोई नहीं,
मैं भी इस देश में उर्दू की तरह रहता हूँ।’’

इस शेर को सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ जाता है। निदा फाज़ली ने ‘मुल्क’ नहीं ‘देश’ कहा है।

हिन्दी की मुख्यधारा का साहित्य, खासतौर से बाबरी मस्जिद के जमींदोज होने के बाद, अधिक साम्प्रदायिकता विरोधी हुआ है। हिन्दी का लेखक उर्दू वालों से अधिक साम्प्रदायिकता के खतरों को भाँप रहा है। 

गीतांजलिश्री ने सूरत के दंगों पर बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास ‘मेरा शहर उस बरस’ लिखा। इसके बावजूद हिन्दी और उर्दू लेखक दोस्त नहीं कहूँगा, बल्कि, हमराही हैं। ज़िगर मुरादाबादी का एक शेर है- 
‘‘उनका जो काम है वो अहले सियासत जानें 
मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।’’

आज हिन्दुत्व का मुसलमान से भी ज्यादा खतरा सेक्युलर हिन्दू के लिए है।
हिन्दी और उर्दू के बीच सक्रिय संवाद स्थापित करने में मेरी ज़िन्दगी बीत गई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन उर्दू को हिन्दी की शैली घोषित करता रहा है। इसी तर्क के आधार पर मैंने जे.एन.यू. से पहले जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी के पाठ्यक्रम में कई उर्दू लेखकों को शामिल करवाया। भारी विरोध हुआ पर तत्कालीन कुलपति बी.बी. जॉन का आभारी होना चाहिए जो झुके नहीं, मिर्ज़ा ग़ालिब, नजीर अकबराबादी, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, कृश्न चंदर, अली सरदार जाफ़री, फै़ज़ अहमद फै़ज़ आदि कई महत्वपूर्ण उर्दू लेखकों को हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। 

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी) की भी किताबों में हिन्दी के साथ उर्दू को शामिल किया गया। जोधपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी (एम.ए.) के पाठ्यक्रम में राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा गाँव’ शामिल करवाया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (नई दिल्ली) दुनिया का अनोखा विश्वविद्यालय है जहाँ हिन्दी और उर्दू का अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही विभाग है। जिसका नाम अंग्रेज़ी में स्कूल ऑफ इंडियन लैंग्वेज़, हिन्दी में भारतीय भाषा केन्द्र और उर्दू में हिन्दुस्तानी ज़बानों का मरकज लिखा हुआ है। 

वहाँ हम लोगों ने यह नियम बनवाया कि हिन्दी में किसी विद्यार्थी को तभी एम.ए. की डिग्री दी जाएगी जब वह उर्दू भाषा और साहित्य तथा लिपि के पेपर में उत्तीर्ण होगा। इसी प्रकार उर्दू में किसी विद्यार्थी को तब तक एम.ए. की डिग्री नहीं दी जाएगी जब तक वह हिन्दी भाषा, लिपि और साहित्य के पेपर में उत्तीर्ण न हो जाए। 

हमने हिन्दी प्रदेशों की संस्कृति पर एक कॉमन कोर्स बनाया जिसे हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के विद्यार्थी को पढ़ना अनिवार्य है। हिन्दी के प्रायः सभी बड़े लेखक, कबीर से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर डॉ. रामविलास शर्मा तक फारसी के अच्छे जानकार थे। भारतेन्दु ने तो ‘रसा’ नाम से उर्दू में कविताएँ भी लिखी हैं और प्रेमचन्द ने तो उर्दू में ही अपने लेखन की शुरुआत की।

1947 के पहले हिन्दी प्रदेशों में विद्यालयों में हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भी सीखना पड़ता था। हम सबने इसी वजह से उर्दू सीखी। आजादी के बाद सम्पूर्णानन्द ने उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में उर्दू को अनिवार्य विषय से ऐच्छिक विषय बना दिया। ध्यान देने की बात है कि उर्दू साहित्य में अलग से सूफी काव्यधारा नहीं है। 14वीं सदी से 20वीं सदी की शुरुआत तक सूफी कवियों की भाषा अवधी थी पर लिपि उर्दू थी। वे मुख्यतः मुसलमान थे। 

मौलाना दाउद, कुतुबन, मंझन आदि ने अवधी भाषा में कविताएँ लिखीं। उनके आख्यान में नायक-नायिकाएँ हिन्दू होते थे। कई मुसलमानों ने और मौलवियों ने आपत्ति की कि मुसलमान होकर भी ये कवि हिन्दी (तब अवधी) में क्यों लिखते हैं। सन् 1700 के आसपास एक सूफी कवि को ‘अनुराग बांसुरी’ में शपथ लेनी पड़ी कि ‘‘हिन्दी लिख रहा हूँ पर हिन्दू नहीं हूँ’’। उसने लिखा- 
‘‘हिन्दू मग पै पाँव न राख्यौं
बाजो बहुतैं हिन्दी भाख्यौं।’’

उर्दू वालों को हिन्दी जानना जरूरी है कि नहीं यह तो मैं नहीं कह सकता पर प्राचीन भारतीय साहित्य के सम्यक ज्ञान के लिए हिन्दी वालों को उर्दू जानना जरूरी है। बाबा तुलसीदास ने राम को ‘गरीब नवाज’ कहा है, दीन दयाल नहीं कहा। 

यह शब्द पारिभाषिक शब्द है जो अजमेर के मोइनुद्दीन चिश्ती से जुड़ा हुआ है। ईश्वर को कहीं भी संस्कृत में दीन दयाल नहीं कहा गया है। गरीब नवाज का अनुवाद है दीन दयाल। ऐसे कई शब्द सूफी परम्परा से आए जिन्हें सिख धर्म ने भी अपनाया। मसलन ‘लंगर’ (सामूहिक भोज) शब्द सिख धर्म में सूफियों से आया। हिन्दी के रीतिकालीन कवियों जैसे बिहारीलाल और घनानन्द को बिना फारसी शायरी के ज्ञान के ठीक से नहीं समझा जा सकता। 

हिन्दी साहित्य की पुरानी और आधुनिक परम्परा को उर्दू के बिना नहीं समझा जा सकता। हिन्दी साहित्य का इतिहास उर्दू के बिना सम्भव नहीं है। दक्खिनी हिन्दी से उर्दू और हिन्दी दोनों शुरू हुई। दोनों में संवाद बराबर बना रहा। इसकी बेहतरीन मिसाल प्रेमचन्द हैं। 

प्रेमचन्द की कहानी ‘कफन’ के हिन्दी और उर्दू दोनों रूपों का अध्ययन करने से कई नई बातें सामने आती हैं। अवध के नवाब वाजिद अली शाह राधा-कृष्ण के गीत गाते थे। मध्यकाल में हिन्दी-उर्दू की यह घुलावट ज्यादा थी। मुझे गर्व है कि मैं जिस साल (1927) पैदा हुआ राही मासूम रज़ा भी उसी साल पैदा हुए। 

उन्होंने कहा था कि ‘आधा गाँव’ भोजपुरी उर्दू में लिखा गया है। उनके अलावा शानी, असग़र वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज आदि कई लेखकों ने हिन्दी-उर्दू के बीच की दीवार को तोड़ा है। इन लेखकों की हिम्मत की दाद देनी होगी कि अच्छी उर्दू जानने के बावजूद इन्होंने हिन्दी में लिखा। 

इन्हें अपने समुदाय में कितना विरोध झेलना पड़ा होगा- इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। मैं इन लेखकों को सलाम करता हूँ। उर्दू में भी एक दौर में कृश्न चंदर, राजेन्द्र सिंह बेदी, फ़िराक गोरखपुरी, चकबस्त, दयाशंकर नशीन, शरशार आदि ने यही काम किया। निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’ को नागरी और उर्दू दोनों लिपियों में छपवाया। 

जोगिन्दर पाल उर्दू के बड़े कथाकार हैं। पंजाब में तो आर्यसमाजी भी अपना अख़बार उर्दू में निकालते थे। बलराज कोमल, मिन्नर और कुमार पाशी ने उर्दू में बड़ा काम किया है। पर दुख की बात यह है कि नई पीढ़ी में वैसे हिन्दू लेखक नहीं के बराबर हैं जो उर्दू में लिखते हों। विभाजन के बाद पूरा नक्शा बदल गया है।

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