आखिर नक्सलियों ने चुनाव में ओढ़ रखी थी रहस्यमयी चुप्पी क्यों, किस दल का किया समर्थन?
By सुधीर जैन | Published: November 16, 2018 12:56 AM2018-11-16T00:56:38+5:302018-11-16T00:56:38+5:30
नक्सली इलाकों से छनकर आ रही खबरें और अंदरूनी इलाके के मतदाताओं का मतदान के प्रति भारी रूझान इस बात का संकेत है कि उन्हें प्रायोजित तरीके से किसी दल विशेष को लाभ पहुंचाने भिजवाया गया है.
बस्तर में विधानसभा चुनाव के दौरान धुर नक्सल प्रभावित इलाकों के ग्रामीणों का निर्भीक होकर मतदान के लिए उमड़ना और इस मामले में नक्सलियों की रहस्यमयी चुप्पी, इस संदेह को जन्म देती है कि दाल में कहीं न कहीं कुछ काला अवश्य है. नक्सली इलाकों से छनकर आ रही खबरें और अंदरूनी इलाके के मतदाताओं का मतदान के प्रति भारी रूझान इस बात का संकेत है कि उन्हें प्रायोजित तरीके से किसी दल विशेष को लाभ पहुंचाने भिजवाया गया है.
यहां यह उल्लेख करना लाजिमी होगा कि चुनाव के प्रारंभिक दौर से ही नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार का फरमान जारी कर इस आशय के पर्चे प्रत्येक गांव एवं कस्बों सहित वाहनों में चस्पा कर बाकायदा चेतावनी दी थी. अपने बहिष्कार को सफल बनाने, नक्सलियों ने दंतेवाड़ा जिले में नंदाराम मोड़ामी, बीजापुर जिले में चुनाव प्रचार में संलग्न भाजपा नेता हेमला आयतू एवं सुकमा जिले के भाकपा लीडर कलमू बुधरा की सरेआम हत्या कर दहशत फैला दी थी. आलम यह हुआ कि भयवश भाजपा, भाकपा सहित अन्य दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने अंदरूनी इलाकों में आवाजाही से किनारा कर लिया.
नक्सलियों ने बहिष्कार के पर्चो में ग्रामीणों से अपील की थी कि प्रचार-प्रसार के लिए गांव में आने वाले भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या कर दें और बाकी दलों को मार भगाएं. इसके पूर्व के प्रत्येक चुनावों में नक्सली चुनाव बहिष्कार करते रहे हैं और बहिष्कार को सफलीभूत करने आतंकी व हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम देकर बस्तर की धरती को रक्तरंजित करते रहे हैं किंतु इस चुनाव में नक्सलियों ने न केवल अजीब किस्म की रहस्यमयी चुप्पी ओढ़ रखी थी, बल्किउन्होंने न किसी मतदान दल पर हमला किया, न ही वोटिंग मशीनें लूटने का प्रयास किया. मतदान केंद्रों से हटकर दीगर स्थानों पर विस्फोट एवं पुलिस बलों पर हमला कर अपनी उपस्थिति का अहसास अवश्य कराया.
वास्तव में यदि नक्सलियों ने बहिष्कार किया था तो उन गांवों में जहां पिछले 15 सालों में एक भी मतदाता चुनाव का साहस नहीं जुटा पाया था, वे मतदान के लिए ऐसे उमड़ रहे थे, मानों उन्हें नक्सलियों का जरा भी भय नहीं रह गया हो. जबकि यह निर्विवाद सत्य है कि अंदरूनी गांव में आज भी नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है. यहां के ग्रामवासी नक्सली रहमोकरम पर जीवन बसर करते हैं. नक्सली आदेश उनके लिए सर्वमान्य एवं शिरोधार्य होता है, जिसका वे अक्षरश: पालन करते हैं. फिर यहां यह प्रश्न दिमाग में बार-बार कौंधता है कि नक्सली दयादृष्टि पर निर्भर इन ग्रामीणों में ऐसे कौन से साहस या जज्बे ने जन्म ले लिया कि सैकड़ों गांव के लोगों का हुजूम वोट डालने उमड़ पड़ा.
उल्लेखनीय है कि पखवाड़े भर पूर्व ही खुफिया विभाग के सूत्रों से यह खबर आई थी कि चुनाव बहिष्कार के मुद्दे को लेकर आंध्र के नक्सली लीडर एवं स्थानीय लीडरों में विवाद छिड़ गया था. आंध्र के लीडर जहां चुनाव बहिष्कार के लिए कटिबद्ध थे, वहीं स्थानीय संगठन, किसी दल विशेष को समर्थन देने की जिद पर अड़ा हुआ था ताकि उनसे भविष्य में राजनीतिक लाभ लिया जा सके. तो फिर सवाल यह उठता है कि स्थानीय संगठनों ने किस दल विशेष को समर्थन देने खामोशी अख्तियार कर रखी थी? गांव वालों को किस दल को वोट देने प्रेरित कर मतदान करने की रियायत और इजाजत दी गई? इन तमाम प्रश्नों से पर्दा शायद परिणामों की घोषणा के बाद ही उठ पाएगा.
यह बात किसी भी बस्तरवासी के गले नहीं उतर रही है कि चुनाव प्रचार में लगे नेताओं को मौत के घाट उतारने वाले बर्बर व क्रूर नक्सली यकायक ही इतने दरियादिल और उदार कैसे हो गए कि अपने हुक्म की नाफरमानी करने वाले एक-दो नहीं बल्कि उमड़ती भीड़ को मतदान से रोकने व सजा देने की बजाय, हाथ में हाथ धरे क्यों बैठे रहे. दरअसल, नक्सली स्वयं चाहते थे कि वोटिंग मशीनें सुरक्षित निर्दिष्ट स्थलों तक पहुंच जाएं. इसीलिए उन्होंने किसी मतदान दल से छेड़खानी नहीं की, बल्किमशीनें पहुंचाकर लौट रहे जवानों को ही बीजापुर जिले में बारूदी विस्फोट कर निशाना बनाया जबकि पिछले तमाम चुनावों में वे मतदान दलों पर ताबड़तोड़ कातिलाना हमले कर वोटिंग मशीनें लूटते रहे हैं.