भील बच्चों ने 90 साल पुराने स्कूल को दी नई पहचान, इस शिक्षक के प्रयासों ने मामूली सरकारी स्कूल को बनाया "स्पेशल"

By शिरीष खरे | Published: November 30, 2019 05:39 PM2019-11-30T17:39:08+5:302019-11-30T17:39:08+5:30

प्रधानाध्यापक अशोक पाटिल विनोद सिंग परदेशी नाम के इस शिक्षक की तारीफ करते नहीं थकते। उनकी मानें तो विनोद ने शिक्षण की आधुनिक और अनूठी पद्धति अपनाकर पूरे स्कूल की तस्वीर बदल दी है।

Maharastra: Bhil children gave new identity to 90 year old school, this teacher's efforts made minor government school "special" | भील बच्चों ने 90 साल पुराने स्कूल को दी नई पहचान, इस शिक्षक के प्रयासों ने मामूली सरकारी स्कूल को बनाया "स्पेशल"

वर्ष 1930 में स्थापित इस स्कूल में 230 बच्चे और प्रधानाध्यापक सहित कुल छह शिक्षक हैं।

Highlightsमराठवाड़ा के सूदूर भील आदिवासी बहुल गांव के बच्चों ने नब्बे साल पुराने एक स्कूल को नई पहचान दी है।बच्चों के बेहतर प्रदर्शन और राज्य स्तर पर आयोजित उत्कृष्ट परीक्षा परिणामों के कारण जाना जाता है।

महाराष्ट्र में मराठवाड़ा के सूदूर भील आदिवासी बहुल गांव के बच्चों ने नब्बे साल पुराने एक स्कूल को नई पहचान दी है। महज ढाई साल पहले तक सामान्य समझे जाने वाला यह स्कूल आज गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के बेहतर प्रदर्शन और राज्य स्तर पर आयोजित उत्कृष्ट परीक्षा परिणामों के कारण जाना जाता है। एक सरकारी शिक्षक के विशेष प्रयासों से ऐसा हुआ है।

प्रधानाध्यापक अशोक पाटिल विनोद सिंग परदेशी नाम के इस शिक्षक की तारीफ करते नहीं थकते। उनकी मानें तो विनोद ने शिक्षण की आधुनिक और अनूठी पद्धति अपनाकर पूरे स्कूल की तस्वीर बदल दी है। इसी का नतीजा है कि ज्यादातर बच्चों की पढ़ाई में रुचि जागी और स्कूल आने वाले बच्चों की संख्या एक तिहाई बढ़ गई। यही वजह है महाराष्ट्र सरकार द्वारा पढ़ाई में प्रतिभाशाली बच्चों को दी जाने वाली वार्षिक छात्रवृत्ति के तहत यहां दो वर्षों में 15 बच्चों का चयन हुआ है।

यही नहीं, जिला शैक्षणिक विकास संस्था ने गणित और भाषा विषयों में बच्चों की शैक्षणिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए इस स्कूल में समय-समय पर परीक्षाएं आयोजित कीं। शिक्षा अधिकारियों ने भी माना कि इन विषयों में यहां के बच्चों ने महज नौ महीने के दौरान 30 से 40 प्रतिशत तक प्रगति की है। शिक्षा विभाग ने यहां इसी वर्ष आधुनिक विज्ञान प्रयोगशाला भी स्थापित की है।

बात हो रही है जिला औरंगाबाद से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर सोयगाव तहसील में जिला परिषद प्राथमिक स्कूल किन्ही की। बता दें कि पांच हजार की आबादी के इस गांव में अधिकतर भील आदिवासी और मराठा समुदाय के लोग हैं। भील आदिवासी परिवारों में ज्यादातर छोटे किसान और मजदूर हैं। वर्ष 1930 में स्थापित इस स्कूल में 230 बच्चे और प्रधानाध्यापक सहित कुल छह शिक्षक हैं। विनोद ढाई साल पहले की स्थिति के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि तब गिने-चुने बच्चे ही राज्य सरकार द्वारा पढ़ाई में प्रतिभाशाली बच्चों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति हासिल करने के लिए परीक्षा में बैठते थे। ज्यादातर बच्चे खुद को मराठी भाषा और गणित में कमजोर मानते थे। उन्हें लगता ही नहीं था कि वे ऐसी परीक्षाओं में पास होकर कभी मैरिट की सूची में अपनी जगह बना सकते हैं।

हालत यह थी बहुत सारे बच्चे तो नियमित तौर पर स्कूल ही नहीं आते थे। इसलिए, उनमें अनुशासन की बहुत कमी थी और वे कहने के बावजूद कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग नहीं लेते थे। पर, अब हालत इसके ठीक उलट है। विशेष तौर पर पिछले शैक्षणिक सत्र से बच्चों में आए इस बदलाव को पूरा गांव महसूस कर रहा है और इसके लिए स्कूल की प्रशंसा कर रहा है।

इसलिए शिक्षा की मुख्यधारा में

विनोद की मानें तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही थी कि किसी तरह स्कूल में बच्चों की उपस्थिति बढ़ाई जाए। इसके लिए उन्होंने एक विशेष योजना तैयार की। उन्होंने सबसे पहले नियमित स्कूल आने वाले बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया। सीखने की पूरी प्रक्रिया को और अधिक दिलचस्प बनाने के लिए विनोद ने सहयोगी खेलों का सहारा लिया। इससे बच्चे किसी टास्क को पूरा करने के लिए आपस में मिलकर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इससे बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना कम हुई। इसी तरह, सामूहिक गीतों से बच्चों के बीच आपस में मिलकर आनंद लेने की आदत बढ़ी।

बकौल विनोद, ''खास तौर से भील समुदाय के बच्चों को ध्यान में रखते हुए हम अतिरिक्त कक्षाएं लेते हैं। स्कूल लगने के एक घंटे पहले ऐसी कक्षाओं में उन्हें मराठी भाषा और गणित के विषयों को आधुनिक शिक्षण पद्धति से सिखाया जाता है। मतलब बच्चों को जोड़ियां और समूहों के माध्यम से किसी विषय पर एक-दूसरे से सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।'' 

जाहिर है शिक्षण की इस प्रक्रिया से बच्चों में शिक्षक पर ही पूरी तरह से निर्भर रहने की आदत कम होती जा रही है। पांचवीं की दीक्षा नवघरे बताती है कि स्कूल की कक्षा में हम जो-जो करते उन्हें स्कूल से अपने घर जाकर अपने आसपास के बच्चों को बताते। फिर, उन्हें बताते कि स्कूल की कक्षा क्यों बड़ी मजेदार होती जा रही है। हमारी बातें सुनकर स्कूल न आने वाले बच्चों का मन होता कि वे स्कूल जाएं। फिर, वे रोज स्कूल आने लगे और उन्हें स्कूल अच्छा लगने लगा।

परिजनों की ओर से बापू सोनवले बताते हैं कि शिक्षक विनोद घर-घर जाकर बच्चों के माता-पिता या दादा-दादी से मिलते और उन्हें पढ़ाई का महत्त्व बताते। इससे कुछ परिवार के लोग जब अपने बच्चों को खुद स्कूल छोड़ने लगे तो उन्हें देख बाकी कुछ अन्य परिवार के लोग भी अपने-अपने बच्चों को स्कूल छोड़ने लगे।

प्रधानाध्यापक अशोक पाटिल इस परिवर्तन के बारे में अपने अनुभव साझा करते हैं। वे कहते हैं कि परंपरागत शिक्षण पद्धति से पढ़ाने पर बच्चे बहुत तनाव लेते थे। लेकिन, शिक्षण के नए तरीकों से वे पूरे आनंद से सीखते हैं। उनकी मानें तो इन तरीकों से प्रभावित होकर उन्होंने स्कूल में सांस्कृतिक गतिविधियों को आयोजित कराने पर जोर दिया। इसमें पूरे गांव के लोगों को आमंत्रित किया जाता है, जिससे वे बच्चे के साथ ऐसे कार्यक्रमों में भाग लें और स्कूल की जरुरतों के बारे में अधिक से अधिक जानें।

बच्चों क्यों नहीं आते थे स्कूल

भील समुदाय के बच्चों की भाषा मराठी न होने से उन्हें कक्षा की कई बातें समझ नहीं आती थीं। विनोद ने बच्चों की इस समस्या को पहचाना। इसके लिए उन्होंने सप्ताह में दो से तीन दिन स्कूल के आखिरी सत्र में खास तौर से सहयोग के महत्त्व से जुड़ी कई गतिविधियां आयोजित कीं, जैसे कि 'मेरे सहपाठी'।

इस दौरान पढ़ाई में कमजोर और अव्वल बच्चों को एक-दूसरे से सीखने और सिखाने का मौका दिया गया। जब भील और गैर-भील समुदाय के बच्चे एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा बोलने लगे तो वे एक-दूसरे को ज्यादा से ज्यादा समझने भी लगे और उनके बीच भाषा का रोड़ा टूटने लगा।

दूसरा, भील समुदाय के ज्यादातर परिवार आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों के लिए शैक्षणिक सामग्री नहीं खरीद पाते थे। विनोद के मुताबिक, शिक्षण की इस पद्धति में बच्चे एक-दूसरे के विचार ही साझा नहीं करते, बल्कि आपस में एक-दूसरे की कई चीजें भी साझा करते हैं। इसके अलावा, शिक्षकों और अन्य लोगों ने चंदा जमा करके ऐसे बच्चों के लिए जरूरी सामान उपलब्ध कराया।

तीसरा, ऐसे बच्चों में कक्षा के प्रति इसलिए उत्साह नहीं रहता था कि उन्हें लगता था पढ़ाई के दौरान उनकी अनदेखी होती है। इसलिए, स्कूल के बच्चे प्रार्थना-सभा में अपने बीच के हर बच्चे का जन्मदिन मनाने लगे। इस दौरान वे बर्थडे बाय या गर्ल को गुलाब का फूल देने लगे। इस तरह, बच्चे स्कूल को सकारात्मक दृष्टि से देखने लगे।

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