Mahaparinirvan Diwas 2025: कहां से आया 'जय भीम' का नारा? जिसने दलित समाज में भरा नया जोश
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: December 6, 2025 10:54 IST2025-12-06T10:40:07+5:302025-12-06T10:54:42+5:30
Mahaparinirvan Diwas 2025: डॉ. आंबेडकर ने हमें प्रगति का मार्ग दिखाया, और वह हमारे लिए भगवान जैसे हैं। इसलिए अब से हमें एक-दूसरे से मिलते समय 'जय भीम' कहना चाहिए।

Mahaparinirvan Diwas 2025: कहां से आया 'जय भीम' का नारा? जिसने दलित समाज में भरा नया जोश
Mahaparinirvan Diwas 2025: ‘जय भीम’ का नारा स्वतंत्र भारत में दलित समुदाय की जागृति और सशक्तीकरण का प्रतीक बन गया है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसकी उत्पत्ति कहां से हुई। डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर के प्रति व्यक्त अपार सम्मान को समेटे हुए यह नारा सबसे पहले महाराष्ट्र के आज के छत्रपति संभाजीनगर जिले की कन्नड़ तहसील के मकरनपुर गांव में आयोजित सम्मेलन ‘मकरनपुर परिषद’ में लगाया गया था। भारत के संविधान के मुख्य शिल्पकार डॉ. आंबेडकर का निधन 6 दिसंबर 1956 को हुआ था।
मराठवाड़ा के अनुसूचित जाति फेडरेशन के पहले अध्यक्ष भाऊसाहेब मोरे ने 30 दिसंबर 1938 को पहली मकरनपुर परिषद आयोजित की थी। भाऊसाहेब मोरे के पुत्र और सहायक पुलिस आयुक्त प्रवीण मोरे ने बताया कि इस सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर ने भाषण दिया और लोगों से कहा कि वे हैदराबाद की रियासत का समर्थन न करें, जिसके अधीन उस समय मध्य महाराष्ट्र का बड़ा हिस्सा आता था।
मोरे ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, "जब भाऊसाहेब भाषण देने के लिए खड़े हुए, तो उन्होंने कहा कि हर समुदाय का अपना एक देव होता है और वे एक-दूसरे का अभिवादन उसी देव के नाम से करते हैं। डॉ. आंबेडकर ने हमें प्रगति का मार्ग दिखाया, और वह हमारे लिए भगवान जैसे हैं। इसलिए अब से हमें एक-दूसरे से मिलते समय 'जय भीम' कहना चाहिए। लोगों ने उत्साहपूर्वक प्रतिक्रिया दी। 'जय भीम' को समुदाय के नारे के रूप में स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया गया।”
उन्होंने कहा, "मेरे पिता अपने सार्वजनिक जीवन के शुरुआती वर्षों में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के संपर्क में आए थे। भाऊसाहेब निजाम राज्य द्वारा दलितों पर किए जा रहे अत्याचारों से परिचित थे। उन्होंने आंबेडकर को इन अत्याचारों के बारे में बताया, जिनमें जबरन धर्मांतरण का दबाव भी शामिल था। डॉ. आंबेडकर इन अत्याचारों के कड़े विरोधी थे, और उन्होंने 1938 के सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय लिया।”
मोरे ने बताया, "क्योंकि आंबेडकर रियासतों के खिलाफ थे, इसलिए उनपर हैदराबाद राज्य में भाषण देने पर प्रतिबंध लगा था, हालांकि उन्हें उसके क्षेत्रों से होकर यात्रा करने की अनुमति थी। शिवना नदी हैदराबाद और ब्रिटिश भारत के बीच की सीमा थी। मकरनपुर को पहली परिषद के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि वह शिवना के किनारे तो था, लेकिन ब्रिटिश क्षेत्र में आता था।”
ईंटों के जिस मंच से डॉ. आंबेडकर ने सम्मेलन को संबोधित किया था, वह आज भी मौजूद है। आंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए हर वर्ष 30 दिसंबर को यह सम्मेलन आयोजित किया जाता है। यह परंपरा 1972 में भी नहीं टूटी, जब महाराष्ट्र ने अपने इतिहास के सबसे भीषण सूखों में से एक का सामना किया था। एसीपी मोरे ने कहा, "मेरी दादी ने सम्मेलन के खर्चों के लिए अपना आभूषण तक गिरवी रख दिया था।
खानदेश, विदर्भ और मराठवाड़ा के लोग इसमें शामिल हुए। निजाम की पुलिस द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के बावजूद, आंबेडकर के समर्थकों ने नदी पार की और इस आयोजन में शामिल हुए।” उन्होंने कहा, "यह मकरनपुर परिषद का 87वां वर्ष है। हमने जानबूझकर आयोजन स्थल के रूप में इस स्थान को बरकरार रखा है क्योंकि इससे ग्रामीण क्षेत्रों में आंबेडकर के विचारों का प्रसार करने में मदद मिलती है।”