कैराना लोक सभा उपचुनाव: इन 3 वजहों से ये सीट बन गई है बीजेपी के लिए नाक की लड़ाई

By भारती द्विवेदी | Published: May 30, 2018 03:04 PM2018-05-30T15:04:30+5:302018-05-30T15:04:30+5:30

28 मई को हुए उपचुनाव में कैराना में कई जगह ईवीएम खराबी की बात सामने आई थी, जिसके बाद आज सहारनपुर के 68 और शामली के 5 बूथों पर फिर से मतदान कराया जा रहा है।

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कैराना लोक सभा उपचुनाव: इन 3 वजहों से ये सीट बन गई है बीजेपी के लिए नाक की लड़ाई

नई दिल्ली, 30 मई: उत्तर प्रदेश का कैराना लोकसभा सीट। भाजपा सांसद हुकुम सिंह की मौत के बाद ये सीट खाली हुई थी। इस सीट के लिए 28 मई को उपचुनाव हुए हैं। कल यानी 31 मई को उपचुनाव के परिणाम आनेवाले हैं। भाजपा की तरफ से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह मैदान में हैं, वहीं सपा,बसपा, कांग्रेस और रालोद ने तब्बसुम हसन का साक्षा प्रत्याशी बनाया है। 28 मई को कैराना के अलावा महाराष्ट्र के पालघर में उपचुनाव हुए हैं लेकिन मीडिया समेत पूरे देश की नजर कैराना लोकसभा परिणाम पर टिकी हुई है। यूपी की एक मामूली सी सीट पर इतनी अटेंशन क्यों? तो इसकी एकलौती वजह है साल 2016 का वो खबर जिसमें लगभग 350 हिंदुओं परिवार की पलायन की बात कही गई थी। कुछ मीडिया हाउस जहां कैराना को दूसरा कश्मीर बता रहे थे, वहीं भाजपा नेताओं द्वारा कैराना को कश्मीर नहीं बनने देंगे जैसे बयान दिए गए थे। 

पहली पहचान संगीत, दूसरा हिंदुतत्व

कैराना दो वजहों से मशहूर है। कैराना में दो तरह का संगीत है। एक जिसने इस जगह की पहचान क्लासिकल संगीत के तौर पर स्थापित की और दूसरा संगीत सोम वाला संगीत। क्लासिकल संगीत को जानने और समझने वाले ये बात बहुत अच्छे से जानते हैं। 'किराना घराना' देश के प्रतिष्ठित संगीत घरानों में से है। इस घराने ने देश को भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल, रोशन आरा बेगम जैसे क्लासिकल सिंगर दिए हैं।

इस जगह की दूसरी पहचान हिंदुत्व बनी हुई है। क्योंकि ये जगह मुजफ्फरनगर से काफी पास है। साल 2013 में जब मुजफ्फरपुरनगर दंगा हुआ तो उसकी आंच कैराना तक पहुंची थी। उस समय हुए दंगे के समय भाजपा नेता हुकुम सिंह ने कथित तौर पर नफरत भरे बयान दिए थे। उसके बाद साल 2016 में यूपी विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सांसद हुकुम सिंह ने फिर से हिंदुत्व का कार्ड खेलते हुए एक लिस्ट जारी की। उस लिस्ट में उन्होंने दावा किया था कि एक विशेष समुदाय के डर की वजह से कैराना से 346 परिवारों का पलायन हुए है। हालांकि जब देश के कुछ मीडिया हाउस ने इस खबर की पड़ताल की तो ये खबर पूरी तरह से गलत साबित हुई। लोगों ने माना कि पलायन हुआ है लेकिन उसकी वजह कोई विशेष समुदाय नहीं, बल्कि रोजगार है।

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भाजपा अगर ये सीट हारी तो उसके मायने

वैसे तो विकास के बहुत सारे मुद्दे हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। लेकिन पिछले कुछ सालों में पश्चिम यूपी में हमेशा ही मुस्लिम बनाम जाट का मामला रहा है। उपचुनाव में हमेशा ही मुद्दों पर नहीं दो पार्टियों या कह लें दो उम्मीदवारों की टक्कर होती है। लोकसभा या विधानसभा चुनाव के पहले कहीं भी उपचुनाव होना और उसकी हार-जीत ये तय करती हैं कि राज्य या केंद्र सरकार विकास के मुद्दों पर कितनी सफल हुई है। अगर भाजपा ये सीट हारी तो है तो तीन बातें उभर के सामने आती हैं। गोरखपुर-फूलपुर चुनाव हारने के बाद कैराना हराना मतलब कि विपक्षी पार्टियां का एकजुट होना सफल हो रहा है। विपक्ष जातीय समीकरण में बाजी मार रहा है।

दूसरी बात ये सामने आएगी कि ये भाजपा से ज्यादा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की हार होगी। पिछले कुछ समय से उनकी सरकार काम और एनकाउंटर के मुद्दे घिरती नजर आ रही है। तो अगर भाजपा हारती है तो ये भाजपा से ज्यादा योगी आदित्यनाथ की हार होगी।

तीसरी बात ये सामने आती है कि हिंदुत्व ह्रदय सम्राट बनकर आप चुनाव नहीं जीत सकते हैं। 2014 में भाजपा ने विकास के मुद्दे पर चुनाव जीता था। पश्चिमी यूपी में 2013 में शुरू हुआ मुजफ्फरनगर दंगा उसके बाद से कई ऐसे छिटपुट घटनाएं हुई, जिसे मुस्लिम बनाम हिंदू का रंग देने की कोशिश की गई। ये कोशिश विफल होगी।

अबतक हुए चुनाव में किस पार्टी का दबदबा रहा है

कैराना लोकसभा का अस्तित्व साल 1962 में आया। उसके पहले ये सहारनपुर में शामिल था। उस समय के चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी यशपाल सिंह ने कांग्रेस प्रत्याशी अजीत प्रसाद जैन को हराया था। साल 1967 में कांग्रेस प्रत्याशी अजीत प्रसाद जैन को फिर से हार का मुंह देखना पड़ा। और इस बार उन्हें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी गैयूर अली खान ने हराया था। 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने मुस्लिम कैंडिडेट शफकत जंग को मैदान में उतार सीट अपने नाम की।

1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में बीएलडी के चंदन सिंह ने कांग्रेस के शफकत जंग को हराया। साल 1980 में चौधरी चरण सिंह की जनता पार्टी सेकुलर से उनकी पत्नी गायत्री देवी ने कांग्रेस को पटखनी दी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने वापसी करते हुए कैराना सीट फिर से जीती। इस बार कांग्रेस प्रत्याशी चौधरी अख्तर हसन ने लोकदल के श्याम सिंह को हरा सीट पर कब्जा किया। इस चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपना पहला चुनाव लड़ा था और तीसरे नंबर पर रही थीं।

साल 1989 में कैराना सीट कांग्रेस के हाथ से निकलकर जनता दल के पास चली गई। जनता दल के हरपाल सिंह ने उस साल चुनाव जीता था। 1991 में ये सीट फिर से जनता दल के पास ही रही लेकिन दूसरे नंबर पर भाजपा मजबूती के साथ उभरी, वहीं कांग्रेस तीसरे नंबर पर जा चुकी थी। 1996 में मुनव्वर हसन ने चुनाव जीतकर कैराना सीट समाजवादी पार्टी के खाते में डाला। भाजपा तभी दूसरे नंबर पर रही। साल 1998 के भाजपा दूसरे नंबर से पहले पर आई और भाजपा प्रत्याशी वीरेंद्र वर्मा ने सपा प्रत्याशी मुनव्वर हसन को हरा चुनाव जीता। 2004 में राष्ट्रीय लोक दल की प्रत्याशी अनुराधा चौधरी ने बसपा प्रत्याशी को हरा चुनाव जीता।

साल 2009 में मैदान में 6 बार के विधायक हुकुम सिंह को मैदान में उतारा लेकिन बसपा प्रत्याशी तबस्सुम बेगम ने उन्हें हरा दिया। फिर बारी आई साल 2014 की। मोदी लहर में हुकुम सिंह ने कैराना सीट भारी बहुमत से जीता। हुकुम सिंह ने सपा के नाहिद हसन को दो लाख से अधिका वोटों से हराया था। हुकुम सिंह का इतने भारी अंतर से चुनाव जीतने में मोदी लहर तो था ही लेकिन कहीं ना कहीं उनका वो हिंदुत्व कार्ड का भी रोल था, जिसे उन्होंने साल 2013 में शुरू अपने बयानों से शुरू किया था।

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