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क्यों दूसरे देशों से इतना हथ‌ियार खरीदता है भारत?

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: March 13, 2018 21:01 IST

एक बार पुनः भारत को विश्व में सबसे ज़्यादा हथियारों का खरीददार होने का तमगा मिला हैं। सवाल यहाँ यहीं बनता हैं - हमें इस से खुश होना चाहिए या हमें अपनी रफ़्तार पर लगाम कसना होगा।

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एक बार पुनः भारत को विश्व में सबसे ज़्यादा हथियारों का खरीददार होने का तमगा मिला हैं। सवाल यहाँ यहीं बनता हैं - हमें इस से खुश होना चाहिए या हमें अपनी रफ़्तार पर लगाम कसना होगा। चिंता का सबब ना सिर्फ़ हमारे लिए हैं बल्कि हमारे पड़ोसी देशों के लिए भी हैं। सेवा निवृत्त कर्नल सारंग थत्तेने मामले पर लोकमत के लिए लेख लिखा है, प‌‌ढ़िए। 

अंतरराष्ट्रीय संस्थान स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट - सीपरी की नई रिपोर्ट में भारत को विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार बताया हैं। सोमवार की अल सुबह स्वीडन में प्रकाशित इस रिपोर्ट में भारत के 2008 - 2012 के मुकाबले 2013 - 2017 के दायरे में 24 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ हैं। देश की स्वदेशी बनावट की रक्षा औद्योगिक इकाइयों में कमी के चलते भारत 65 प्रतिशत रक्षा सामग्री विदेश से मँगवाता हैं।

हमारे बाद सऊदी अरब, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और पाँचवा नंबर चीन का आता है। इस रिपोर्ट में रूस से हमने सर्वाधिक 62 प्रतिशत रक्षा सामग्री खरीदी हैं। जबकि अमेरिका और इजराइल से महज 15 और 11 प्रतिशत आयात किया हैं। लेकिन एक बड़ी बात इस रिपोर्ट में यह भी सामने आई हैं की अमेरिका पर भारत का आसरा 557 प्रतिशत बढ़ गया हैं। अमेरिका की विदेश नीति के चलते भारत पर खरीददारी का दबाव बढ़ा हैं - इसका सीधा - सीधा समीकरण चीन की बढ़ती हुई ताक़त का अनुमान हैं।

विश्व रक्षा बाजार में सबसे ज़्यादा रक्षा हथियार बेचने वाले देशों में चीन ने अपनी जगह पाँचवें स्थान पर बना रखी हैं। अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी के बाद अब चीन की पहचान है। विश्व के ये पाँच शक्तिशाली देश पूरे विश्व में बेचे जाने वाले हथियारों का 74 फीसदी हिस्सा अपने नाम करते हैं। पाकिस्तान को 35 फीसदी रक्षा समान और बांग्लादेश को 19 फीसदी रक्षा सामग्री चीन की बनिस्पत पहुँच रही हैं। यह भी हमारे लिए चिंता का विषय हैं।

शायद अब समय आ गया हैं कि सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव लाना ही होगा। एक तरफ पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के शेर की दहाड़ में कोई विशेष जोश नही हैं। पिछले चार सालों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की संख्या मात्र 1.17 करोड़ रुपये आँकी गयी हैं। हमारी अपनी अनुसंधान की 50 प्रयोग शालाओं में से डीआरडीओ को कुछ विशेष प्राप्त नही हो पाया हैं। इसी तरह रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक सेवा के 5 उपक्रम और 41 ऑरड्नन्स फेक्टरियों में भी ज़रूरी हथियार और अन्य संयंत्र की कमी सामने आई हैं।

रक्षा मंत्री श्रीमती निर्मला सितारामाण ने सोमवार को ही एक समारोह में इस बात पर ज़ोर दिया था कि सार्वजनिक क्षेत्र के रक्षा उपक्रम और ऑरड्नन्स फेक्टरियों में बहुत संभावनाएं हैं लेकिन उन्हे एक बार पुनः पुनर्जीवित कर अधिक गतिशील बनाना होगा। भारत सरकार को निजी क्षेत्र में स्थापित कई उपक्रम है जो अपना योगदान कर रहें हैं। लेकिन यह फिलहाल बेहद कम संख्याओं में रक्षा साजो सामान दे पा रहें हैं। साढ़े तीन लाख करोड़ के विभिन्न रक्षा उपयोगी प्रॉजेक्ट कई स्तरों पर अटके हुए हैं। इन्हे इस दलदल से निकालने में रक्षा मंत्रालय और सरकार को हाथ बटाना ही होगा।

इस बात को समझना ज़रूरी है की एशिया के देशों में किसी भी किस्म की हथियार नियंत्रण की संधि या स्थापित साधन मौजूद नही है। इसी वजह से एशिया के देश अपने हथियारों के जखीरे को निरंतर बढ़ा रहें है। यहाँ तक की छोटे से देश विएतनाम ने भी 29 वें स्थान से पिछले पांच सालों के कालखंड में 11वें स्थान पर तर्रकी कर ली है। इस इलाक़े में दक्षिण चीनी समुद्र में चीन का प्रभुत्व इस हाथितयारों की होड़ को दिशा और दशा दे रहा है।

भारत के हिस्से में इस बढ़त के कई कारण है। सर्वप्रथम हमें ना सिर्फ़ दो देशों की सीमाओं को बेहद संजीदगी से देखने को मजबूर है लेकिन हिंद महासागर में मौजूद एक अतः सागर को भी संभालना ज़रूरी हो गया है। इस वजह से हम अधिक खर्च रक्षा के लिए कर रहें है। साथ ही पिछले दस वर्षों में कई प्रॉजेक्ट अपनी जगह से आगे बढ़ने में नाकामयाब रहें हैं इसलिए भी हमें दूसरे देशों से आयात करना जरूरी हो गया है। दरअसल पिछली सरकार ने कई सौदों को सालों से अधर में रखा हुआ था, जिस वजह से पिछले पाँच वर्षों की अवधि में सहसा इज़ाफा देखने को मिला है।

भारत की रक्षा तैयारियों का ज़ायक़ा लिया जाए तो एक बात बहुत साफ नजर आती हैं अब भी हमारी जरूरत के रक्षा साजो सामान और संयत्रों की खरीद में आपसी समंजस नही बन पाया हैं। अब भी आर्टिलरी की तोपो की जरूरत, इंफेंट्री के सैनिकों के लिए हथियार आने में अभी छह से आठ साल लग जाएँगे, हल्के हेलिकॉप्टर और रात में देखने वाली दूरबीनों की कमी बनी हुई है। भारतीय वायुसेना के लिए लड़ाकू जहाज अहम हैं हम 31 स्क्वाड्रन से भी नीचे खिसक रहें हैं।

हवा से हवा में ईंधन भरने के लिए जरूरी रिफ्यूलर्स आने हैं। ड्रोन्स और एवाक्स की जरूरत हमारी सीमा की सुरक्षा के लिए बहुत माइने रखते हैं। नौसेना को भी अपना दायरा बढ़ाने के लिए ड्रोन की जरूरत हैं। इस साल का रक्षा बजेट 2।95 लाख करोड़ का हैं जबकि 1।08 लाख करोड़ रक्षा कर्मियों की पेंशन के लिए अलग से रखी गयी हैं। इस वर्ष सेना को उन्मीद थी की रक्षा बजट सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले 2।5 फीसदी से उपर होगा। लेकिन ऐसा नही हो सका हैं।

पाठकों को इस बात पर भी गौर करना होगा कि देश की रक्षा ज़रूरतों पर किए जाने वाले खर्च से सेना के कमांडर और विश्लेषक खुश नही है एवं सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत तक खर्च किए जाने की पैरवी कर रहें है। लेकिन सरकार ने इस वर्ष के बजट में भी रक्षा बजट को 1।76 फीसदी पर लाकर रोक दिया है। विश्व बाजार में आयात करने वाले देशों में अव्वल नंबर पर आना क्या हमारे लिए खुश होने की वजह हैं ? शायद कदापि नही ! हमें आत्मनिर्भरता की दहलीज पर हो रही देरी पर अंकुश लगाना ही होगा।

मेक इन इंडिया के शेर की दहाड़ को और गूँजायमान करना होगा। फिलहाल हमने इस घोष वाक्य को आगे बढ़ाने में सफलता नही मिली है। स्वदेशीकरण में जुटे हुए रक्षा अनुसंधान और विकास संघठन - डीआरडीओ के वैज्ञानिक भी इस बात से नाखुश होंगे क्योंकि सिप्री की रिपोर्ट में एक बहुत बड़ी बात कही गयी है कि भारत स्वदेशी हथियारों की पूर्ति ना करने की वजह से आयात करने को मजबूर हो गया है। रक्षा मंत्रालय और सरकार को इस दायरे में एक बार फिर असली कमज़ोरी को ढूढ़ना ही होगा।

(लेखक सारंग थत्ते सेवा निवृत्त कर्नल है )

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