भारत बना रहा है रूसी एस-400 और अमेरिकी पैट्रियट के टक्कर का मिसाइल डिफेंस सिस्टम, चीन और पाक से लगती सीमा पर होगी तैनाती
By शिवेन्द्र कुमार राय | Updated: July 26, 2023 15:18 IST2023-07-26T15:17:07+5:302023-07-26T15:18:33+5:30
स्वदेशी एलआरएसएएम रक्षा प्रणाली विकसित करने के बाद भारत हवा में ही दुश्मन के ड्रोन और लड़ाकू विमानों को निशाना बना पाएगा। इस तरह की तकनीकी क्षमता दुनिया के केवल चुनिंदा देशों के पास ही है।

(प्रतीकात्मक तस्वीर)
नई दिल्ली: रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए लगातार प्रयास कर रहा भारत अब एक ऐसा हथियार विकसित कर रहा है जिसके बारे में जानने के बाद चीन और पाकिस्तान जैसे देश कोई दुस्साहस करने से पहले सौ बार सोचेंगे। दरअसल भारत स्वदेशी रूप से लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल (एलआरएसएएम) रक्षा प्रणाली विकसित कर रहा है जो लगभग 400 किलोमीटर की दूरी पर दुश्मन के विमानों और मिसाइलों को मार गिराने में सक्षम होगी।
एएनआई ने रक्षा सूत्रों के हवाले से बताया है कि तीन-स्तरीय लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली विकसित करने का प्रस्ताव रक्षा मंत्रालय में उन्नत चरण में है और जल्द ही इसे मंजूरी मिलने की उम्मीद है। ये 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की परियोजना है।
स्वदेशी एलआरएसएएम रक्षा प्रणाली विकसित करने के बाद भारत हवा में ही दुश्मन के ड्रोन और लड़ाकू विमानों को निशाना बना पाएगा। इस तरह की तकनीकी क्षमता दुनिया के केवल चुनिंदा देशों के पास ही है। लंबी दूरी की मिसाइल रक्षा प्रणाली के लिए भारत अब तक दूसरे देशों पर निर्भर रहा है। हाल ही में भारत ने रूस से एस-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीदी थी। लेकिन अब जल्द ही भारत उन देशों में शामिल हो जाएगा जिनके पास खुद की लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल रक्षा प्रणाली है।
इस मिसाइल प्रणाली का विकास तब हो रहा है जब भारत ने मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली एमआरएसएएम विकसित करने के लिए इजराइल से हाथ मिलाया है। एमआरएसएएम प्रणाली 70 से अधिक किलोमीटर तक हवाई लक्ष्य पर हमला कर सकती है।
फिलहाल भारत जो एलआरएसएएम रक्षा प्रणाली विकसित कर रहा है वह रूस के एस-400 और अमेरिका के पैट्रियट मिसाइल डिफेंस सिस्टम के बराबर होगी। पूरी तरह से विकसित हो जाने के बाद इसे चीन और पाकिस्तान सीमा पर तैनात किया जाएगा। इस खास हथियार को रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) विकसित कर रहा है।