गुजरात विधानसभा और लोकसभा चुनाव 2024 में कितना असरदार होगा द्रौपदी मुर्मू फैक्टर, जानिए आदिवासी सीटों का सियासी समीकरण
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: July 23, 2022 01:54 PM2022-07-23T13:54:48+5:302022-07-23T13:54:48+5:30
राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन गई हैं। 25 जुलाई को वो देश के नए राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेंगी। वैसे, जानकार मानते हैं कि एनडीए की ओर से द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाए जाने के पीछे कुछ खास वजहें थी। सवाल है क्या रायसीना हिल्स की दौड़ में मुर्मू की जीत से बीजेपी के लिए आने वाले 4 राज्यों के विधानसभा चुनावों की राह आसान हो सकती है?
देश की राजनीति में जब से भाजपा निर्णायक भूमिका में आई है, तभी से उसके कई फैसले चौंकाने वाले रहे हैं। फिर चाहे किसी चुनाव में उम्मीदवारों को उतारने की ही बात क्यों न करें। ये कहना गलत नही होगा कि बीजेपी दूरगामी परिणामों के बारे में सोच विचार करते हुए फैसले लेने में अन्य दलों से कहीं आगे नजर आती है।
21 जुलाई को एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति चुन ली गईं। इस मौके पर देश के अलग-अलग राज्यों में बसे आदिवासी समूहों के बीच खुशी मनाए जाने की कुछ तस्वीरें भी सामने आईं। सबसे खास बात ये थी कि मुर्मू को एनडीए ही नहीं बल्कि कुछ विपक्षी दलों का समर्थन भी मिला। हालांकि रायसीना हिल्स की दौड़ के इस नतीजे से भाजपा राजनीतिक दृष्टि से कैसे एक अलग संदेश देने की कोशिश में जुटी है, ये देखना भी दिलचस्प है।
मुर्मू को मिला विपक्षी दलों का भी समर्थन
21 जून की रात को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए एनडीए की तरफ से द्रौपदी मूर्मु के नाम का एलान किया। उस वक्त बीजेपी ने ये कहा था 'राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भारत के पूर्वी हिस्से से होना चाहिए और हमें महिलाओं को भी मौका देना चाहिए आजतक राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी आदिवासी उम्मीदवार नहीं आया है, इसलिए एनडीए ने श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है'।
जहां हर बार की तरह बीजेपी ने सबको चौंका दिया था वहीं बीजेपी ने आने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव के लिए अपना दांव भी चल दिया था। एक महिला को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना बीजेपी के लिए एक अच्छा फैसला साबित होने वाला था ये सभी समझ रहे थे। हालांकि द्रौपदी मुर्मू भारत के पूर्वी हिस्से से आने वालीं एक आदिवासी महिला है ये भारतीय जनता पार्टी के लिए सोने पर सुहागा जैसा होने वाला था।
मुर्मू की जीत तो तय थी। कहा जा रहा था विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा से मुर्मू का मुकाबला महज एक औपचारिकता थी।भाजपा के इस दांव से विपक्षी पार्टियों को भी अपने आदिवासी प्रेम को दिखाने के लिए और खासरकर एक महिला उम्मीदवार को सपोर्ट करने के लिए एनडीए का साथ देना पड़ा। विपक्षी दलों के विधायक और सांसदों ने द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में मतदान किया। जिससे विपक्षी खेमे में पड़ी फूट का असर साफ तौर पर नजर आई। गुरुवार को आए नतीजों के बाद जो खबर सामने आई उसमें 17 विपक्षी सांसदों और 104 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की है। क्रॉस वोटिंग की संभावना पहले से ही थी इसलिए ही इस मुकाबले से पहले ही देश में मुर्मू की जीत का जश्न शुरू हो गया था।
मूर्म की जीत का आने वाले चुनावों से कनेक्शन
ये तो साफ हो गया कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति चुनाव में उतार कर बीजेपी का पहला मकसद यानी मुर्मू की जीत पूरा हो चुका है। हालांकि अब भाजपा का इस जीत से जो मकसद पूरा होने वाला है उसपर प्रकाश डालते हैं।
बीजेपी ने सीधे तौर पर लोकसभा चुनाव के लिए बड़ा संदेश दिया है। इस समय 543 सदस्यों वाली लोक सभा में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा करीब 13 सीटें ऐसी हैं जहां पर आदिवासी समुदाय का असर है। मुर्मू की जीत से 2024 के चुनावों मेंं बीजेपी को इन सीटों पर भी फायदा मिल सकता है।
आने वाले कुछ महीने बीजेपी के काफी अहम हैं। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं। जहां आदिवासी समूह के लिए भी सीटें आरक्षित हैं। हालांकि पिछले चुनावों की बात की जाए तो बीजेपी इन आरक्षित सीटों पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। इस बार देश को एक आदिवासी राष्ट्रपति मिलने के बाद संभावना ये है कि इन राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को आदिवासी जनसंख्या का पूरा सपोर्ट मिलेगा। ये करीबी मुकाबले में बीजेपी को काफी फायदा देगा।
कुछ राज्यों की आदिवासी जनसख्यां पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ - 30.62 फीसदी, गुजरात - 15 फीसदी, मध्य प्रदेश - 21.10 फीसदी और राजस्थान में ये 13.48 फीसदी है।
अब आपको इस जनसंख्या का चुनावी कनेक्शन समझातें हैं। आने वाले कुछ महीनों में इन राज्यों में चुनाव होने हैं। चारों राज्यों में 128 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। हालांकि पिछले चुनावों में बीजेपी को 35 सीटों पर ही जीत से संतुष्ट होना पड़ा। ये आकंड़े साफ कर देते हैं कि बीजेपी की जिस तरह की पैठ बाकी वर्गों में है उतनी आदिवासी समूह के लिए नहीं है। भाजपा इसी धारणा को बदलना चाहती है। भाजपा ने आदिवासी बहुल राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में खूब सरकार चलाई है। हालांकि बीजेपी फिर भी इन सीटों पर उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। यानी पारपंरिक रूप से आदिवासी बीजेपी के वोटर नहीं है।
भाजपा अब इस समूह के लिए अपनी पहचान बनाना चाहती है। खासकर गुजरात यानी भाजपा के गढ़ में चुनाव नजदीक हैं। पार्टी का आदिवासी समूह के साथ कोई अच्छा तालमेल नहीं रहा। मुर्मू की जीत कोई बड़ा बदलाव कर दे बीजेपी में ये उम्मीद जाग गई है।
किस राज्य में हैं कितनी हैं एसटी आरक्षित सीटें
गुजरात की बात की जाए तो 182 विधानसभा सीटों में से 27 सीटों पर आदिवासी समुदाय निर्णायक स्थिति में हैं। गुजरात में बांसवाड़ा, बनासकांठा, अंबाजी, दाहोद, पंचमहाल, छोटा उदयपुर, और नर्मदा जिले में आदिवासियों की सबसे ज्यादा संख्या रहती है 2017 में 14 आदिवासी बहुल सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली वहीं बीजेपी केवल 9 सीट ही जीत सकी। गुजरात में अगर 2017 से पहले के आंकड़ो पर भी नजर डालें तो आदिवासी समुदाय की पसंद बीजेपी नहीं बन पाई।
मध्य प्रदेश में आदिवासी वोटबैंक प्रभावी भूमिका में है।राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से 87 सीटों पर आदिवासी वोटबैंक सीधे असर डालता है। इन 87 सीटों में से 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। 2018 के चुनाव की बात की जाए तो इन सीटों पर बीजेपी के लिए नतीजे अच्छे नहीं रहे। 87 विधानसभा सीटों में से 34 पर ही बीजेपी जीत हासिल कर सकी।
वहीं पिछले विधानसभा चुनावों में राजस्थान की बात करें तो यहां पर 25 एसटी आरक्षित सीटों में से कांग्रेस ने 13 और भाजपा ने आठ जीती थीं। छत्तीसगढ़ में एसटी के लिए रिजर्व 29 सीटों में से कांग्रेस के खाते में 27 सीटें गई थीं। बाकी दो सीटें भाजपा ने जीती थीं।
आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय पार्टियों का बढ़ रहा दबदबा
यहां इस बात का जिक्र भी जरूरी हो जाता है कि कई आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय पार्टियों ने न सिर्फ चुनाव लड़ा बल्कि देश की सबसे बड़ी पार्टी के उम्मीदवारों को अपने क्षेत्र में हरा भी दिया। ये आदिवासी दल जिस तरह से उभर कर आ रहे हैं आने वाले चुनावों में वो पूरे सूबे की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं। 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण भी है कि आदिवासी क्षेत्रों की स्थानीय पार्टियां कैसे बाकि पार्टियों के लिए चुनौती बन रही हैं। उदयपुर-डूंगरपुर के आदिवासी बेल्ट में छोटे आदिवासी दलों ने चुनाव लड़ा बल्कि विधायक भी बनाए। बीजेपी जहां हर जाति वर्ग के बीच लोकप्रियता हासिल कर रही है वहीं आदिवासी समूह के लिए डिफॉल्ट पार्टी न बन पाना बीजेपी को खल रहा है। हालांकि उसी का तोड़ हो सकता है कि नए राष्ट्रपति के रूप में भाजपा को मिल गया हो।
आदिवासी समाज की चिंताओं और असुरक्षाओं को पूरी तरीके से शायद ही अब तक कोई नेता दूर कर पाया हो। मुर्मू की जीत से जितनी खुशी आदिवासी समाज में है उनकी ही उम्मीदें भी। जल जंगल जमीन की लड़ाई में आदिवासी समाज को शहरीकरण शायद हमेशा परेशान करता आया है। देश को आगे बढ़ाने के लिए शहरीकरण जितना जरूरी है उतना है ही सतत् विकास के लिए जल जंगल जमीन को बचाना भी जरूरी है। आदिवासी होने के नाते राष्ट्रपति मुर्मू के सामने एक चुनौती ये भी होगी कि वो शहरीकरण और सतत् विकास के बीच संतुलन की बात को कैसे देश और दुनिया तक पंहुचाएं और आदिवासी समाज की चिंताओं पर बात करें।
2015 में झारखंड की राज्यपाल बनीं थी मुर्मू
बता दें कि देश के इतिहास में पहली बार कोई आदिवासी महिला राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं । गौरतलब है कि 2015 में द्रौपदी मुर्मू को झारखंड का राज्यपाल बनाया गया था। तब भी वो चर्चा में आईं क्योंकि झारखंड के राजभवन में पहली बार किसी आदिवासी महिला को नियुक्त किया गया था