70 साल से बेघर, असम के दो गांवों के मिसिंग समुदाय के लोग अनिश्चितता में घिरे

By भाषा | Updated: June 27, 2021 20:19 IST2021-06-27T20:19:43+5:302021-06-27T20:19:43+5:30

Homeless for 70 years, the people of the Missing community of two villages of Assam surrounded by uncertainty | 70 साल से बेघर, असम के दो गांवों के मिसिंग समुदाय के लोग अनिश्चितता में घिरे

70 साल से बेघर, असम के दो गांवों के मिसिंग समुदाय के लोग अनिश्चितता में घिरे

डिब्रूगढ़ (असम), 27 जून असम के डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान के अंदर स्थित लाइका और दधिया गांवों में रहनेवाले मिसिंग समुदाय के करीब 12 हजार लोग अब भी बिजली, पेयजल और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं से दूर हैं। ये लोग 70 साल से बेघर हैं।

इन लोगों का कहना है कि सरकारी तंत्र की उदासीनता के कारण उन्हें यह पीड़ा झेलनी पड़ रही है। उम्र के चौथे दशक को पार कर चुके लाइका गांव के अरण्य कसारी का कहना है कि स्कूल तक पहुंचने के लिए उनके बच्चों को पहाड़ों पर मीलों चलना पड़ता है और एक नदी भी पार करनी पड़ती है। यहां न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधा या पेयजल की आपूर्ति का भी कोई साधन नहीं है।

दधिया गांव के रहनेवाले प्रांजल कसारी ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, “हम यहां से निकलना चाहते हैं, जितनी जल्दी हो सके उतना बेहतर। हम यहां पीढ़ियों से रह रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि आने वाली पीढ़ियां भी उन्हीं मुश्किलों का सामना करें। क्या आप मूलभूत सुविधाओं के बिना जिंदगी की कल्पना कर सकते हैं? पार्क के अंदर बिजली या वाहन चलने लायक सड़क तो सोच से परे है। हमारे मौलिक मानवाधिकार तक नहीं हैं। हम दुनिया के दूसरे हिस्सों से अलग-थलग हैं। यहां कोई टीवी नहीं है और हमें बमुश्किल अखबार पढ़ने को मिलता है।”

असम के दूसरे सबसे बड़े जातीय समुदाय मिसिंग के लोगों के छोटे समूह के दर्द की यह दास्तां 1950 से बनी हुई है जब एक भीषण भूकंप के बाद ब्रह्मपुत्र नदी ने मार्ग बदल लिया था और अरुणाचल प्रदेश सीमा से लगे मुरकोंगसेलेक के 75 घरों को बेघर कर दिया था।

इस घटना की 1957 में तब पुनरावृत्ति हुई जब नदी के क्षरण के कारण डिब्रूगढ़ जिले के रहमारिया राजस्व क्षेत्र के ओकलैंड इलाके के 90 घरों में रहनेवाले लोग बेघर हो गए और वहां से निकलकर डिब्रू आरक्षित वन में शरण लेने के लिए मजबूर हुए।

ये विस्थापित कृषक लोग जो नदी किनारे रहना पसंद करते थे, उन्हें ब्रह्मपुत्र का दक्षिणी किनारा पार करना पड़ा और वे इस इलाके में आ गए जो छह नदियों- उत्तर की तरफ लोहित, दिबांग, दिसांग तथा दक्षिण की तरफ अनंतनाला, दनगोरी और डिब्रू- से घिरा है।

खेती और मछली पकड़ने पर निर्भर यह कृषक समुदाय बाढ़ के कारण होने वाले क्षरण की वजह से आजीविका के लिए वन में भटकने लगा।

समय बीतने के साथ 1950 के दशक के दो मूल गांव लाइका और दधिया अब छह बस्तियों में फैल गए हैं जहां 2600 परिवारों में करीब 12000 लोग रहते हैं।

हालांकि समस्या 1999 में शुरू हुई जब जंगल को डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया और संरक्षित इलाके के अंदर इंसानों का रहना अवैध हो गया।

तबसे असम गण परिषद, कांग्रेस और भाजपा इस पूर्वोत्तर राज्य पर शासन कर चुके हैं लेकिन इनके पुनर्वास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

लाइका गांव के सेवली पेगु का कहना है कि मानसून के दौरान गांव महीनों तक पानी से घिरे रहते हैं। उन्होंने कहा, “इंसान और सूअर बाढ़ ग्रस्त इलाके में एक ही जगह रहने को मजबूर होते हैं।”

इस बीच, सत्ताधारी गठबंधन के घटक अगप के विधायक पोनाकन बरुआ ने 24 मई को मुख्यमंत्रि हिमंत बिस्व सरमा को पत्र लिखकर इस समुदाय की पीड़ा साझा की थी और जिक्र किया कि पूर्व में चार बार इन लोगों के पुनर्वास का प्रयास किया जा चुका है लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।

उन्होंने यह भी कहा कि करीब 600 परिवार महीनों से विभिन्न शिविरों में रह रहे हैं लेकिन उनके पुनर्वास के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए।

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Web Title: Homeless for 70 years, the people of the Missing community of two villages of Assam surrounded by uncertainty

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