गांधी खुद को सही साबित करने के लिए ‘झूठे तर्कों’ का सहारा लेते थे : किताब

By भाषा | Published: December 9, 2021 04:57 PM2021-12-09T16:57:57+5:302021-12-09T16:57:57+5:30

Gandhi used to use 'false arguments' to prove himself right: Book | गांधी खुद को सही साबित करने के लिए ‘झूठे तर्कों’ का सहारा लेते थे : किताब

गांधी खुद को सही साबित करने के लिए ‘झूठे तर्कों’ का सहारा लेते थे : किताब

नयी दिल्ली, नौ दिसंबर महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य को लेकर तमाम तरह के प्रयोग किए और काम वासना के प्रति राग विराग का यह अंतर्द्वंद्व आजीवन चलता रहा। महात्मा के जीवन के इसी विवादास्पद पहलू की गहराई से पड़ताल करती एक नई किताब में दावा किया गया है कि महात्मा के ब्रह्मचर्य के पीछे बहुत से कारण रहे थे और ये कारण इतने मजबूत थे कि महात्मा का पूरा जीवन वासनाओं के खिलाफ संघर्ष में बीत गया।

किताब में एक स्थान पर जिक्र किया गया है कि साबरमती आश्रम में अपने निजी सचिव प्यारेलाल की आकर्षक बहन, सुशीला नायर, जो कि उनकी निजी चिकित्सक भी थीं, के साथ नग्न स्नान को लेकर आश्रम में कानाफूसियों का दौर शुरू हो गया। आश्रमवासियों का अरोप था कि महात्मा मर्यादाएं तोड़ रहे हैं। उनका एतराज इस बात पर था कि सुशीला उन्हें स्नान कराते वक्त खुद भी स्नान करती है और तब गांधी उनकी साड़ी ओढ़ लेते हैं। महात्मा गांधी को इस मामले में सफाई देनी पड़ी थी।

महात्मा गांधी के युवतियों के साथ नग्न सोने के उनके अनोखे प्रयोगों के तमाम पहलुओं का मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण करती वरिष्ठ लेखक/पत्रकार दयाशंकर शुक्ल सागर की नई शोधपरक किताब 'अधनंगा फ़क़ीर' में दावा किया गया है कि महात्मा एक तरह का ऐसा उत्कृष्ट नैतिक जीवन जी रहे थे, जो आम आदमी की कल्पना के बाहर की चीज थी।

दयाशंकर शुल्क द्वारा लिखी तथा हिंदी युग्म द्वारा प्रकाशित किताब 'अधनंगा फ़क़ीर' में आश्रमवासी मुन्नालाल शाह के हवाले से सवाल उठाया गया है कि महात्मा स्‍त्री सेवा न लेने के अपने पूर्व के निश्चय से कैसे बदल गए? उनके उस प्रण का क्या हुआ जिसमें स्त्री स्पर्श के त्याग की बात थी? महात्मा ने इस पर शाह को जवाब दिया- ‘अपने किए हुए निश्चयों के विषय में मैं शिथिल नहीं हूँ। मेरी ख्याति तो इससे विपरीत है। किंतु जहाँ मुझे स्वयं शंका हो वहाँ भूतकाल में किए गए निर्णय निश्चयात्मक नहीं माने जा सकते। यहाँ मैंने जो कुछ किया वह तो प्रयोग था। और प्रयोग में तो परिवर्तनों की गुंजाइश है ही।’

किताब में इस प्रयोग के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। शुक्ल का निष्कर्ष है कि दरअसल महात्मा खुद को सही साबित करने के लिए ‘युक्तिकरण’ का सहारा लेते रहे। मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘रेशनेलाइजेशन’ कहा है। यह खुद को सही साबित करने का ऐसा ढंग है जिसमें व्यक्ति यह नहीं जानता कि अचेतन रूप से झूठे कारण और तर्क पेश कर रहा है। यह खुद को धोखा देने का ऐसा ढंग है जिसमें व्यक्ति खुद को नैतिक और प्रतिष्ठित समझने लगता है।

वह कहते हैं कि महात्मा अगर निर्विकार थे तो उन्हें सुशीला के स्नान करने के समय आंखें बंद करने की कोई जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी। आंखें बंद करना उनके अंदर के डर को दर्शाता है।

किताब के अनुसार- गांधीजी का दावा था कि वे नहीं जानते थे कि सुशीला कैसे स्नान करती है । लेकिन आंखें बंद करके भी यह रोचक कल्पना की जा सकती है कि समीप कोई स्त्री कैसे स्नान कर रही है। महात्मा ने आवाज से अनुमान लगाया कि वह नहाते वक्त साबुन का इस्तेमाल करती थी। यानी बंद आंखों में भी महात्मा का सारा ध्यान सुशीला की स्नान प्रक्रिया की ओर लगा रहता। फिर आंखें बंद करके भी काम भावना का आनंद लिया जा सकता है।

किताब के अनुसार, मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि युक्तिकरण एक ऐसा आवरण है जिसे हम अपनी कमियों और बुराइयों के ऊपर डाल देते हैं जिससे हमें उनका सामना न करना पड़े। यह शतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर धंसा लेने जैसा है। मनोवैज्ञानिक सेमॉडस युक्तिकरण को ‘खुद का खुद के लिए वेष बदलना मानते हैं।’ यह निःसंदेह खतरनाक स्थिति है। मनोरचना की एक स्थिति ‘वास्तविकता अस्वीकरण’ की होती है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने ‘डिनायल ऑफ रिएलिटी’ कहा। ऐसे में मनुष्य अपनी विफलताओं को अस्वीकार करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाता।

गांधी ने ब्रह्मचर्य व्रत लेने के बाद अपने समाचार पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ के पाठकों से कहा,"यह हर विचारशील भारतीय का कर्तव्य है कि वह विवाह न करे। यदि विवाह के संबंध में वह असहाय है, तो वो अपनी पत्नी के साथ संभोग न करे। " सेक्स को लेकर इतने कट्टर विचार रखने वाले गांधीजी के ये प्रयोग सभी के लिए हमेशा चौंकाने वाले रहे।

महिलाओं के साथ महात्मा के संबंधों को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी की दृष्टि से भी किताब में समझने की कोशिश की गई है। किताब के दूसरे अध्याय ‘एक छोटी सी प्रेम कहानी’ में लिखा गया है, ‘ आश्रम में बापू किसी नई युवती को लाते तो कस्तूरबा खीज उठती। वह सब लड़कियों को संदेह की नज़र से देखती थी। उम्र के इस पड़ाव पर भी वह गाँधी पर विश्वास नहीं कर पाई थी। हालांकि इसका कारण बापू ख़ुद थे।’

पति पत्नी के रूप में बापू और बा के संबंधों पर भी किताब कुछ महत्वपूर्ण आयामों से पाठक का परिचय कराती है। इसी अध्याय में कहा गया है कि मिलन और वियोग के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद पति-पत्नी में खूब झगड़े होते थे। पति पर संकट के समय भारतीय नारी होने के कारण कस्तूरबा भले ‘देवदूत’ बन जाती हों लेकिन सामान्यतः दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे।

एक समय दोनों के जीवन में ऐसा भी आया , जब बा केवल ‘सत्याग्रह’ आश्रम तक सिमट कर रह गईं और महात्मा के जीवन में उनकी जगह सरला देवी चौधरानी ने ले ली। अपने करीबी मित्र और जर्मन वास्तुकार हरमन कैलेन बैक को लिखे एक पत्र में महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘ मैं उसे अपनी आध्यात्मिक पत्नी कहता हूँ। एक मित्र ने हमारे संबंधों को ‘बौद्धिक विवाह’ कहा है। लेकिन उनके क़रीबी दोस्त सी. राजगोपालाचारी ने तो सरला देवी और कस्तूरबा की तुलना ‘केरोसिन लैम्प और सुबह के सूरज’ से करते हुए महात्मा को लिखे पत्र में कहा - ‘आपने सबसे भयानक भ्रम को जन्म दिया है।’ सीआर ने आगे लिखा- ‘इस आध्यात्मिक प्रेम में अभी तक शरीर है, मसीह नहीं हैं।’ ।

महात्मा गांधी के जीवन में काम और ब्रह्मचर्य को गहराई से पेश करती किताब ‘ अधनंगा फकीर’ उस व्यक्ति के जीवन के ऐसे विवादास्पद पहलू को समझने की दृष्टि प्रदान करती है जिसे महान फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने ‘दूसरा ईसा ’ कहा था।

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