अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चुनाव सुधारों के लिए अभी तय करना है बहुत लंबा रास्ता
By अभय कुमार दुबे | Published: March 10, 2023 02:12 PM2023-03-10T14:12:40+5:302023-03-10T14:19:29+5:30
विरोधाभास यह है कि इन प्रयासों के बावजूद चुनाव-प्रक्रिया से धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण को बहिष्कृत नहीं किया जा सका है. इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक दलों की हिचक, जिसके चलते भारतीय लोकतंत्र निर्वाचन की आदर्श संरचनाओं से दूर बना हुआ है.

(फाइल फोटो)
किसी भी लोकतंत्र के लिए तिहत्तर साल की उम्र कम नहीं होती. हमें अपने आपसे पूछना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से हम कब तक वह काम करने की उम्मीद करते रहेंगे, जिसे करने की जिम्मेदारी दरअसल हमारी सरकारों, राजनीतिक दलों और संसद की है.
अब प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता (अगर विपक्ष का कोई नेता नहीं है तो लोकसभा में सबसे बड़े दल का नेता) और सर्वोच्च न्यायाधीश को मिलाकर बनी कमेटी जिन नामों की सिफारिश करेगी, राष्ट्रपति उन्हीं में से आयोग के मुखिया और उनके सहयोगी आयुक्तों को चुनेंगे.
जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 324 में पहले से ही दर्ज था, यह व्यवस्था तब तक चलती रहेगी जब तक संसद आयोग के गठन के बारे में कानून नहीं बना देती. यहां सोचने की बात यह है कि अगर संसद पिछले तिहत्तर साल में अपनी यह जिम्मेदारी निभा देती, तो सुप्रीम कोर्ट को यह हस्तक्षेप करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. जाहिर है कि न इस सरकार ने, और न ही किसी और सरकार ने इस बारे में पहलकदमी लेने की कोशिश की.
चुनाव सुधारों की फाइल बहुत मोटी है और उसके ऊपर बहुत गर्द जमा हो चुकी है. इस जरूरत की ओर सबसे पहले सत्तर के दशक में जय्रप्रकाश नारायण का ध्यान गया था. उन्होंने न्यायमूर्ति वीएम तारकुंडे की अगुआई में एक समिति गठित की जिसकी रपट 1975 में सामने आई.
इसके बाद से कई कमेटियों, आयोगों और अध्ययनों का सिलसिला शुरू हो गया जिनके कारण चुनाव-सुधारों का प्रश्न पिछले पैंतीस साल से ही वाद-विवाद के एजेंडे पर बना हुआ है. 1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी गठित की गई.
1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने मुख्य रूप से चुनाव में खर्च होने वाले धन की समस्या पर विचार किया. 1999 में विधि आयोग ने 170 पृष्ठ की रपट जारी की जिसमें व्यापक चुनाव सुधारों की सिफारिशें की गई थीं. निर्वाचन आयोग भी अस्सी के दशक से ही चुनाव सुधारों के लिए तरह-तरह की पहलकदमियां लेता रहा है. सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने भी कई पहलुओं से चुनाव-प्रक्रिया को सुधारा है.
विरोधाभास यह है कि इन प्रयासों के बावजूद चुनाव-प्रक्रिया से धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण को बहिष्कृत नहीं किया जा सका है. इसका सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक दलों की हिचक, जिसके चलते भारतीय लोकतंत्र निर्वाचन की आदर्श संरचनाओं से दूर बना हुआ है.
चुनाव सुधारों की जरूरत से कोई पार्टी इनकार नहीं करती, लेकिन विडंबना यह है कि छिटपुट परिवर्तनों को छोड़कर शायद ही किसी पार्टी ने रैडिकल और विस्तृत सुधारों को अपनी प्राथमिकता बनाया हो. और तो और उन्होंने बीच-बीच में ऐसे कदम भी उठाए हैं जिनसे सुधारों की प्रक्रिया को धक्का तक लगा है.