आजादी का अमृत महोत्सव: स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी 5 विरांगनाएं, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो गईं
By रुस्तम राणा | Published: June 6, 2022 03:47 PM2022-06-06T15:47:21+5:302022-06-06T15:50:24+5:30
आजादी का अमृत महोत्सव पर आज हम ऐसी 5 वीरांगनों के बारे में जानेंगे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना महत्वपूर्ण योगदान तो दिया, इतिहासकारों ने उन्हें इतना महत्व नहीं दिया जितना वास्तव में उन्हें मिलना चाहिए।
Azadi ka Amrit Mahotsav: भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने पर देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है। देशभर में इससे जुड़े अनेक कार्यक्रम किए जा रहे हैं। आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों वीर सपूतों को याद कि जा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के नायक और नायिकाओं ने अपने त्याग और बलिदान से इस देश को विदेशी हुकुमत से आजादी दिलाई है। देश ऐसे महान वीरों और वीरांगनाओं का सदा ऋणी रहेगा।
इतिहास के पन्नों में जब हम इन वीरों और वीरांगनाओं की कहानियां पढ़ते हैं तो ध्यान में आता है कि कितनी कठिन परिस्थितियों में नि:स्वार्थ भाव से उन्होंने देश की खातिर सबकुछ कुर्बान कर दिया। इस मौके पर आज हम ऐसी 5 वीरांगनों के बारे में जानेंगे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना महत्वपूर्ण योगदान तो दिया, इतिहासकारों ने उन्हें इतना महत्व नहीं दिया जितना वास्तव में उन्हें मिलना चाहिए।
झलकारी बाई
झलकारी बाई रानी लक्ष्मी बाई की दुर्गा दल की सेनानायिका थीं। वे युद्ध कौशल में माहिर थीं। महत्वपूर्ण बात ये है कि उन्हें रानी लक्ष्मी बाई का हमशक्ल भी माना जाता था। अंग्रेजी हुकुमत को कई बार चकमा देने के लिए वे रानी के वेश में युद्धाभ्यास करती थीं। अपने अंतिम दिनों में वे युद्ध के दौरान रानी के वेश में अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गई और रानी लक्ष्मीबाई को वहां से भागने का अवसर मिल गया। झलकारी बाई की गाथा बुंदेलखंड की लोककथाओं और लोकगीतों में अमर है।
रानी चेनम्मा
रानी चेनम्मा कित्तूर राज्य की महारानी थीं। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के आगे घुटने नहीं टेके। पति और पुत्र को खो देने के बाद जब ब्रिटिश हुकुमत ने राज्य हड़प की नीति के तहत कित्तूर को ब्रिटिश राज्य में मिलाना चाहा तो उन्होंने अंग्रेंजों से लोहा लिया। बाद में अंग्रेजी हुकुमत ने उन्हें कैद कर लिया। 21 फरवरी 1829 में उनकी मृत्यु हो गई। उनके इस बिलिदान ने रजवाड़ों में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति लाने में लौ का काम किया।
कनकलता बरुआ
असम के सोनीपुर में जन्मी कनकलता बचपन से ही देशभक्त थीं। जब ये सात वर्ष की थीं तो उन्होंने रैयत अधिवेशन में भाग लिया, जिसमें क्रांतिकारियों ने हिस्सा लिया था। इस अधिवेशन में भाग लेने वालों पर अंग्रेजों ने राष्ट्रद्रोह का केस चलाया। 22 साल की उम्र में 20 सितंबर 1942 को तेजपुर की कचहरी में तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया। हाथ में तिरंगा थामे कनकलता बरुआ ने इस जूलूस का नेतृत्व किया। अंग्रेजी सेना की चेतावनी के बाद वे नहीं रुकीं और अंत में ब्रिटिश हुकुमत की गोली उनके सीने में जा लगी और वे शहीद हो गईं। उन्हें बीरवाला के नाम से जाना गया।
बीनादास
ब्रिटिश शासन के दौरान बंगाल क्रांतिकारियों की भूमि थी और इसी भूमि में बीनादास का 1911 में जन्म हुआ था। वे महिलाओं द्वारा कोलकाता से संचालित क्रांतिकारी संगठन छात्रा संगठन की सदस्या थीं। 1928 में उन्होंने साइमन कमीशन का विरोध किया। साल 1932 में उन्हें बंगाल के गर्वनर स्टैनली जैक्सन को मारने की जिम्मेदारी दी गई थी। एक कार्यक्रम के दौरान जब स्टैनली भाषण दे रहा था तभी बीनादास अपनी सीट से उठीं और उठकर स्टैनली पर गोली चला दी। लेकिन दुर्भाग्य से स्टैनली बच गया। बीनादास को गिरफ्तार कर लिया गया। जेल मे उन्हें कई तरह की यातनाएं दी गईं लेकिन उन्होंने अपने साथियों के नाम नहीं बताए। 1947 से 1951 तक वे बंगाल विधानसभा की सदस्य भी रहीं। 1986 में उत्तराखंड के ऋषिकेश में उनकी लाश मिली।
मातंगिनी हजारा
बंगाल की धरती में पैदा में होने वाली मातंगिनी हजारा का नाम शायद ही आपने सुना होगा। लेकिन आजादी की लड़ाई में इनके बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। स्वतंत्रता संग्राम में जेल गईं, सश्रम कारावास भोगा। लेकिन देश को आजाद कराने के इरादे तनिक न भटके। भारत छोड़ो आंदोलन के लिए इन्होंने 5000 लोगों को तैयार किया। हाथ में तिरंगा लिए जब मातंगिनी रैली का नेतृत्व कर रही थीं तब अंग्रजों ने उनसे वापस जाने को कहा, लेकिन उनके पैर पीछे नहीं मुड़े। सिपाहियों ने गोली चला दी गोली उनके बाएं हाथ पर लगी। लेकिन फिरभी हाथों से तिरंगा नहीं छूटा। एक और गोली उनके हाथों में चलाई गई। फिर तीसरी गोली उनके माथे पर लगी और वह शहीद हो गईं। इनका निजी जीवन कष्टों में बीता था।