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पुस्तक समीक्षा: क्या माँ बनने के लिए शादी जरूरी है?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: January 28, 2019 11:44 IST

अंकिता जैन मूलतः एक कहानीकार हैं। ये वही लेखक हैं जिन्होंने अपनी पहली किताब, "ऐसी वैसी औरत" में औरतों की ऐसी कई मजबूरियों को लिखा, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं। उस किताब को पढ़कर हमारे दिल से आह और वाह साथ-साथ निकलता है।

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सत्यजीत चौधरी

"मैं से माँ तक", इसमें कोई शक नहीं कि इससे मिलते जुलते नाम वाली कई किताबें आपको बुक स्टॉल्स पर दिख जाएंगी। मगर हास्य योग में हंसने की कोशिश करते बुजुर्गों के समूह और यूं ही अचानक कभी बिन बात पर नहीं रुक पाने वाले ठहाकों के गूंज में जो प्राण का अंतर है, उसी की भरपाई करती है अंकिता की किताब "मैं से मां तक"।

अंकिता मूलतः एक कहानीकार हैं। ये वही लेखक हैं जिन्होंने अपनी पहली किताब, "ऐसी वैसी औरत" में औरतों की ऐसी कई मजबूरियों को लिखा, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर जाते हैं। उस किताब को पढ़कर हमारे दिल से आह और वाह साथ-साथ निकलता है।

उसी तर्ज़ पर इनकी दूसरी किताब "मैं से माँ तक" भी अपने आप में एक अनूठी किताब है। सबसे खास बात है इसका ट्रीटमेंट, शब्दों का चयन और लयबद्धता। 

क्या माँ बनने के लिए शादी जरूरी है? माँ बनना है कि नहीं, अगर बनना है तो कब, चाहत के पीछे की चाह अपनी है या फिर किसी प्रेशर में लिया गया डिसीजन, प्रेगनेंसी, प्रिकॉशंस, समाज की ताकाझांकी, दुख सुख में डबडबाती आंखे, पति और परिवार का साथ, जुड़वां हैं क्या, ऐसे अनेक विषयों पर कुछ इस तरह से इन्होंने ख़ुद के और कई अन्य माँओं के अनुभव सांझा किए हैं कि किताब ने एक कहानी का सा रूप ले लिया, जैसे आपकी अपनी कहानी हो। ऐसी कहानी जिसमें सस्पेंस भी है, और रोमांच भी। कोई कल्पना नहीं, जिसमें कि सहूलियत के हिसाब से पॉपुलैरिटी के लिए किताब का जायका बदला गया हो, फिर भी कई बार पढ़ते-पढ़ते आप भाव विह्वल हो उठते हैं। अब किताब की ये चंद पंक्तियां ही देख लीजिए,

"माँ बनना बेशक एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन यह प्रक्रिया जब एक सफ़र की तरह आपके जीवन से होकर गुज़रती है तो इसे कई सारे ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होकर, कुछ कठिन मोड़ लेकर अपनी मंज़िल तक पहुँचना होता है। अब यह हम पर है कि हम इसका मज़ा लेते हैं या बस दर्द और तकलीफ़ देखते हैं।" 

सारी घटनाओं का ताना बना इस तरह बुना गया है कि आप पढ़ते वक़्त खुद को सभी घटनाक्रमों से बेहद जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, शायद इसलिए भी कि दुनिया में कोई भी शख़्स मैं और माँ से अछूता नहीं है, फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। 

छोटे छोटे किस्सों में बड़ी बातें

छोटे-छोटे किस्सों में बड़ी-बड़ी बातें, जो सीख देती हुई नहीं लगती, पर किस्तों में बंटा उनका अनुभव अपने आप ही बहुत कुछ सिखा जाता है। पुस्तक की शुरुवात होती है "माँ बनूं या नहीं" से, उसी अध्याय में से मन में दबी आग को हवा देती ये पंक्तियां, शायद आपके मन को भी छू जाएँ..

"एक सवाल यह भी उठता है कि क्या जिसे सिर्फ़ हम पूरा कर सकते हैं, उसे हमारे ही पतन के लिए तुरुप का इक्का बनाना चाहिए? सुहानी की सास अपने पोते का मुँह देखने से पहले ही चल बसीं, और उनकी इच्छा पूरी करने की कोशिश में उस लड़की का मनचाहा कॅरियर भी चल बसा।"

लेखक के मुताबिक़ यह किताब एक अनुभव यात्रा है, एक माँ की, जो कोई डॉक्टर नहीं, कोई विशेषज्ञ नहीं, बस एक माँ है। पढ़ते वक़्त जिस तरह पंक्तियां जीवंत हो उठती हैं, यह कहना सही होगा कि लेखक ने माँ बनने की ख्वाहिश से माँ बनने तक के सफर में हर भावनात्मक लम्हे को बेखौफ जिया है, और इस सफर में आप और मैं अंत तक उनके हमसफ़र बने रहते हैं। उसी सफर में से पेट में धड़कते दिल का ये छोटा सा रोमांचक किस्सा... 

"दुनिया में इससे ज़्यादा रोमांचकारी और क्या होगा कि अब आपके सीने के अलावा आपके पेट में भी एक दिल धड़क रहा है।एक नन्हा सा दिल उस दिन मेरे पेट में धड़क रहा था। चाल चीते से तेज़ थी। दिखने में तारे सा टिमटिमा रहा था। अल्ट्रासाउंड मशीन पर धड़कते उस दिल का रंग भले ही लाल न दिख रहा हो। लेकिन बिन्दी के आकार का वो दिल, मेरे ही खून से बना है, सुर्ख लाल है, ये मैं जानती थी। मैं उस धड़कते दिल से बहुत कुछ कहना चाहती थी। उसे छूना चाहती थी। उसे शुक्रिया अदा करना चाहती थी, आने के लिए…मेरे अन्दर रहने के लिए…मुझे उस नेमत से नवाज़ने के लिए जिसे ऊपरवाले ने सिर्फ़ औरतों के लिए ही बनाया है।"

अक्सर ही देखा जाता है कि, घर के पारिवारिक माहौल में माँ बनने जा रही औरत में हो रहे शारीरिक और मानसिक बदलाव जोकि शरीर में होती रासायनिक प्रक्रिया की देन हैं, को परिवार के लोग अपनी सही-गलत जरूरतों और भावनाओं की आड़ में  समझना नहीं चाहते या नहीं समझते। बिना समझे प्रतिक्रिया भी देते हैं। ऐसे स्थिति में दो ज़िंदगियों को लिए एक माँ की मनोस्थिति काफी विकट और प्रतिकूल बन जाना स्वाभविक है। जहां वो प्यार दुलार की उम्मीद सजाए होती है, वहां विपरीत परिस्थितियों से उपजी बातें अंतर्मन में ऐसा घाव दे जाती हैं जो ताउम्र नहीं भरता। कभी-कभी गर्भपात जैसे अनचाही स्थिति से भी दो-चार होना पड़ता है। ऐसे में नाना प्रकार की मानसिक दुश्वारियां झेल रही माँ से हम चंद मिनटों में नॉर्मल बिहेवियर की उम्मीद करने लगें, यह किसी मानसिक बलात्कार से कम नहीं। किताब की ये पंक्तियां मन में एक टीस उपजा देती हैं, 

"आज के ज़माने में जो रिश्तों में सबसे ज़्यादा ज़हर घोलने का काम करता है, वह है, पुराने ज़माने से या अपनी बीत चुकी स्थिति से आज की पीढ़ी की तुलना करना। हम भी माँ बने थे, हमें भी ऐसा लगता था, लेकिन हमने तब भी परिवार के लिए इतना किया। हमने तो झाड़ू, पोंछा, बर्तन, कपड़े सब काम किये। ये आजकल की लड़कियाँ बहुत नाज़ुक हैं। ये मूड स्विंग के बहाने मत बनाओ। तुम माँ क्या बनने वाली हो परिवार को लेकर चलना भूल गयी हो। अब तो बहू किसी को खाने के लिए भी नहीं पूछती। अकेले अपना खाती, बनाती है।"

जिंदगी के दंश

ऐसी कई बातें है जिनकी चर्चा इस पुस्तक से पहले इतनी गहराई में जाकर शायद नहीं की गई। ये कुछ ऐसे दंश, जिसे लेखक ने समाज, सखियों और आस-पास चुभते देखे। जिसकी चुभन आप और हम भी महसूस कर सकते हैं। साथ ही कुछ मेडिकल टर्म्स भी हैं, जिसकी समझ रहना अत्यंत आवश्यक है, जिसे समझाने की थोड़ी कोशिश किताब में की गई है। अक्सर डॉक्टर्स कोई कंप्लेक्सिटी क्रिएट होने पर उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कुछ घरेलू तरीके भी हैं जो आम तौर दवाइयों से ज्यादा असरदार होते हैं। आज की मेट्रो लाइफ और न्यूक्लीयर फैमिलीज में हमें पता नहीं होते। चाहें तो इसे हाईलाइट करके रख लें, निस्संदेह आपके बहुत काम आएगा। 

"शादी ज़िन्दगी का वह सट्टा है, जिसे पूरा परिवार-समाज सब मिलकर खेलते हैं। "

सही बात, गलत नंबर डायल ना हो, इस बात का पूरा ध्यान रखें। वरना आपकी पूरी ज़िन्दगी दाव पर लगी है, ये अच्छी तरह समझ लें।

अंत में किताब के कुछ अध्यायों के नाम जो नाम से ही पढ़ने को लालायित करते हैं, 

माँ बनूँ या नहीं?, गर्भपात—ज़िन्दगी यहाँ खत्म नहीं होती, मुझमें धड़कते दो दिल, प्रेग्नेंट पिता, पुत्रीवती भवः,अन्धविश्वास टोटके और अपशकुन, बस थोड़ा रो लूँ , जवानी में बूढ़ी होती याददाश्त, प्रेग्नेंसी हनीमून, वो बातें जो डॉक्टर भी नहीं बताते।

हर शीर्षक के नीचे उस अध्याय का सारांश दिया हुआ है, जिसे पढ़कर आपकी आगे पढ़ने की इच्छा तीव्र हो उठती है। 

स्त्री हो या पुरुष किताब हर किसी के लिए पठनीय है। शुरुवात से लेकर अंत तक, एक ही जैसा रोमांच। कुछ किताबें होती ही ऐसी हैं, जो वक़्त के साथ पुरानी नहीं होती, उसमे घुल जाती हैं। जैसे कि माँ बनने का सिलसिला नहीं ठहर सकता। इस किताब के माध्यम से अपनी भावनाओं को आप जितनी बार चाहे जी सकते हैं। 

किताब का नाम: मैं से माँ तकप्रकाशक: राजपाल एंड सन्स, दिल्लीमूल्य: 175 रुपए

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