देशभर में डायबिटीज़ एक विस्फोटक महामारी का रूप ले चुका है, जिसका प्रभाव अब हर आयु वर्ग पर गहराता जा रहा है। रिसर्च सोसायटी फॉर द स्टडी ऑफ डायबीटीज़ इन इंडिया (आरएसएसडीआई) के म.प्र. राज्य सचिव व इंदौर के डॉक्टर राजेश अग्रवाल ने हाल ही में जबलपुर में संपन्न राष्ट्रीय सम्मेलन "न्यू डायमेंशन इन डायबिटीज" में भारत में डायबिटीज़ की चिंताजनक स्थिति पर गंभीर चेतावनी दी। उन्होंने बताया कि देश में लगभग 25 करोड़ लोग मोटे हैं और करीब 35 करोड़ लोगों में पेट का मोटापा है, जो डायबिटीज़ के दहलीज पर खड़े हैं। कुल मिलाकर लगभग 60 करोड़ लोग डायबिटीज बनने की कगार पर हैं, जिन्हें जीवनशैली सुधार और समय पर ध्यान देने से इस बीमारी से बचाया जा सकता है। डॉ. अग्रवाल ने एपिजेनेटिक्स के बढ़ते प्रभाव की तरफ इशारा करते हुए बताया कि अब जीन में पर्यावरणीय बदलावों की वजह से यह बीमारी गरीब, मेहनतकश और युवा वर्ग में भी बढ़ रही है।
साथ ही उन्होंने प्री-डायबिटीज़ की गंभीरता पर बल दिया, जहां सही इलाज से थोड़ी देर के लिए बीमारी को उलटा किया जा सकता है, लेकिन यह स्थायी नहीं होता और दोबारा लौटना आम बात है। इसलिए प्री-डायबिटीज वाले मरीजों को सतर्क रहना और निरंतर मॉनिटरिंग जारी रखना आवश्यक है, अन्यथा यह बीमारी जीवन के हर पहलू में क्षति पहुंचा सकती है। राष्ट्रीय आंकड़ों के अनुसार भारत में वयस्कों (20-79 वर्ष) में डायबिटीज़ की प्रचलन दर लगभग 10.5% है, जो करीब 9 करोड़ से अधिक मरीजों के बराबर है। डब्ल्यूएचओ और आईडीएफ के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2050 तक यह संख्या 15 करोड़ से भी ऊपर पहुंच सकती है। राज्यवार तुलना करें तो तमिलनाडु, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में डायबिटीज़ का प्रचलन 12-14% के बीच है, जबकि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में यह 8-10% के आसपास पाया गया है। मोटापा, शहरीकरण और जीवनशैली में बदलाव मुख्य कारण बताए जा रहे हैं।
बच्चों और किशोरों में भी स्थिति गंभीर है। 0 से 19 वर्ष की उम्र के लगभग 1.1 करोड़ बच्चे प्रीक्लिनिकल डायबिटीज़ के जोखिम में हैं। कम उम्र के बच्चों में टाइप 1 डायबिटीज़ और किशोरों में टाइप 2 डायबिटीज़ बढ़ रही है, जो मोटापे और हार्मोन असंतुलन की वजह से होती है। 10-19 वर्ष के लगभग 5-7% किशोर इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं। विशेषज्ञ स्कूलों और समुदायों में स्वस्थ जीवनशैली की जागरूकता बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं ताकि इस संकट को रोका जा सके।यह महामारी केवल स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है, बल्कि करोड़ों परिवारों की आर्थिक स्थिति और देश की विकास क्षमता के लिए भी खतरा बन चुकी है। डॉ. राजेश अग्रवाल सहित देश भर के विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि जन-स्वास्थ्य रणनीतियाँ, जीवनशैली सुधार, स्वास्थ्य शिक्षा, और नियमित जांच को प्राथमिकता देकर ही भारत इस समस्या का मुकाबला कर सकता है। सरकार और स्वास्थ्य संस्थान इस दिशा में अनेक प्रयास कर रहे हैं, लेकिन व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भी जागरूकता की बेहद जरूरत है।डायबिटीज़ की बढ़ती जटिलताओं को देखते हुए थायराइड और हॉर्मोन विकार भी इस बीमारी के साथ जुड़े पाए गए हैं, जो मरीजों के इलाज को और भी चुनौतीपूर्ण बनाते हैं। विशेषज्ञ लगातार इसका शमन करने के लिए पोषण, व्यायाम, और दवाओं के साथ नए स्मार्ट स्वास्थ्य निगरानी तकनीकों को भी अपना रहे हैं।