पूण्य प्रसून बाजपेयी का ब्लॉग: सुरमई आंखों वाली श्रीदेवी के होने ना होने के मायने
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Updated: February 28, 2018 16:35 IST2018-02-28T15:24:29+5:302018-02-28T16:35:52+5:30
श्रीदेवी एक ऐसी अदाकारा जो मोम की तरह किसी भी रोल में बख़ूबी ढल जाया करती थीं।

पूण्य प्रसून बाजपेयी का ब्लॉग: सुरमई आंखों वाली श्रीदेवी के होने ना होने के मायने
सुरमई अँखियों में नन्हा-मुन्ना एक सपना दे जा रे निंदिया के उड़ते पाख़ी रे अँखियों में आजा साथी रे सच्चा कोई सपना दे जा मुझको कोई अपना दे जा अंजाना....
ये फिल्म सदमा का गीत है। लोरी के तौर पर गाया गया है। इसमें 20 साल की श्रीदेवी को स्क्रीन पर एक 4 बरस की बच्ची जैसा अभिनय कर रही होती हैं। पर श्रीदेवी का फिल्मी सफर इसके बिलकुल उलट है। क्योंकि लोरी सुनकर सो जाने की उम्र में ही श्रीदेवी ने खुद को कैमरे के सामने खड़ा पाया। महज 4 बरस की उम्र थी वो जब उसने तमिल फिल्म कंदन कारुनई की। उनकी आंखें तब भी बोलती थीं। उनकी आंखें 50 बरस बाद भी बोलती थीं। लेकिन धीरे-धीरे नृत्य में निपुण होती श्रीदेवी जब 13 बरस की उम्र में एक लड़की के तौर पर तमिल फिल्ममुंदर मुदईचु में सामने आई तो मलयालम से लेकर कन्नड़ और तेलुगु से लेकर हिन्दी सिनेमा बनाने वालों की धड़कनें बढ़ गईं।
दक्षिण भारत की सौ से ज्यादा फिल्मों में काम करने के बाद महज 16 बरस की उम्र में सोलवा सावन ने बालीवुड में नायिका की उम्र को ही नये तरीके से परिभाषित कर दिया। और 20 बरस की उम्र में हिम्मतवाला, मवाली, तोहफा के साथ 1983 में फिल्मसदमा की श्रीदेवी की अदाकारी के उस कैनवास को भी छोटा कर दिया जिस कैनवास पर अभी तक नायकों का बोलबाला था। तमिल फिल्म मुंदरम पिराई की कहानी पर बनी फिल्मसदमा ने तो बालीवुड के उस सामानांतर सिनेमा में भी ये बहस छेड़ दी कि ग्रे एरिया में जाना भर पैरलेल मूवी नहीं है बल्कि मानवीय भावनाओं के डायमेंशन को स्क्रीन पर उभार पाना भी बेहद जटिल है। इस कड़ी को नये अंदाज में बोनी कपूर ने श्रीदेवी के जरीये मि ़इंडिया में पिरोया जरूर लेकिन इश्क मोहब्बत में खूद को डूबोने वाले बालीवुड से फिल्म निकली चांदनी।
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याद किजिये, एक तरफ चाँदनी थी तो दूसरी तरफ सलमान खान और भाग्यश्री की मैंने प्यार किया। साल 1989 था। सितंबर में चाँदनी आई और दिसंबर में मैंने प्यार किया। मैंने प्यार किया पहले इश्क की कहानी थी जिसमें मुलायमियत थी, मासूमियत थी। पर दूसरी तरफ चाँदनी श्रीदेवी की शेख अदाओं और इश्क के अल्लहड़पन की ऐसी दास्तां थी कि जिसने भीमैंने प्यार किया को देख कालेज में इश्क किया वह चाँदनी के रंग में समा गया। चाँदनी की चूड़ियां हो या घाघरा। साड़ी हो या बिंदिया। सबकुछ चाँदनी के रंग में कुछ ऐसा समाया कि इश्क से विवाह तक का समूचा बाजार ही चाँदनीमय हो गया। उस दौर में सिनेमा बना कर घाटे में आ चूके यश चोपड़ा को भी चाँदनी से नई जिन्दगी मिल गई। उनका बैनर फिर से लहराने लगा।
श्रीदेवी सुपर स्टार इसी लिये कहलायी क्योंकि सुपरस्टारों की कतार में जो भी नायक श्रीदेवी के दौर में चमका उसे चार चांद लगाने के लिये जरूरत श्रीदेवी की ही पड़ी। फिर चाहे वो अमिताभ बच्चन हों या विनोद खन्ना, जितेन्द्र हो ऋषि कपूर हो या फिर अनिल कपूर। दूसरी पारी की फिल्म इंग्लिश-विग्लिश और मॉम में भी संघर्ष करती श्रीदेवी फिल्म के केन्द्र में रहती हैं। और 50 बरस का फिल्मी सफर ही श्रीदेवी को ऐसी ताकत देता रहा... जहाँ वह हमेशा अपने होने के एहसास को खत्म होने देना नहीं चाहती थीं। और ये खासियत श्रीदेवी को दूसरी हिरोइनों से इसलिये अलग करती है क्योंकि डायलॉग की टाइमिंग, आखों की शोखियां, नृत्य की बारिकियों को एक साथ पकड़ने में कैमरा डायरेक्टर तक को मुश्किल हो जाती थी। और श्रीदेवी हमेशा एक टेक में हर अदा को जी लेतीं।
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उनके चेहरे के भाव, उनकी आँखें इतनी मोहक थीं कि लगता था कि इन्हीं को दिखाता रहूँ जो क्लोज़ अप में ही मुमकिन था, लेकिन इसमें उनका डांस छूट जाता था। उनका डांस ऐसा ग़ज़ब था कि लगता था, दूर से कैमरे में हर एक अदा कैद कर लूँ।- श्रीदेवी के साथ फ़िल्म मिस्टर इंडिया में काम करते वक़्त अपनी उलझन निर्देशक शेखर कपूर
श्रीदेवी एक ऐसी अदाकारा जो मोम की तरह किसी भी रोल में बख़ूबी ढल जाया करती थीं। 11 साल की उम्र में उन्होंने तेलुगू फ़िल्म में एक ऐसी बच्ची का रोल किया था जो देख नहीं सकती थी। फेहरिस्त लंबी है ये बताने के लिये कि श्रीदेवी कैसे अपने अभिनय से फिल्म के केन्द्र में आ खड़ी होतीं। और स्क्रीन पर किसी प्रोडूसर-डायरेक्टर ने बीते 50 बरस में ये हिम्मत नहीं दिखायी कि श्रीदेवी की मौत स्क्रीन पर हो जाये। पर संयोग देखिये। श्रीदेवी की मौत की खबर ही बीते 80 घंटों से टीवी के हर स्क्रीन पर चल रही है। और बिना लोरी श्रीदेवी अब कभी ना जागने के लिये सो चुकी हैं।