'मुल्क' Movie Review: एक जरूरी फिल्म, जिसे हर भारतीय को देखना चाहिए
By जनार्दन पाण्डेय | Published: August 2, 2018 02:54 PM2018-08-02T14:54:30+5:302018-08-02T14:54:30+5:30
मुल्क' मनोरंजन की हर कसौटी पर खरी उतरती हुई हिन्दू-मुसलमानों के खून में सांप्रदायिक भावना के चढ़ते नशे को उतारने वाली फिल्म है।
मुल्क ****
रेटिंग : चार स्टार
निर्देशक : अनुभव सिन्हा
कलाकार : ऋषि कपूर , तापसी पन्नू , मनोज पहवा, आशुतोष राणा, नीना गुप्ता, प्राची शाह पांड्या, रजत कपूर, कुमुद मिश्रा, प्रतीक बब्बर, अतुल तिवारी
अनुभव सिन्हा ने सही समय पर एक बेहद जरूरी फिल्म बनाई है। हम फिल्म को पांच में से चार स्टार देते हैं। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि देश में पनपती नफरत है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि मुसलमान है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि आतंकवाद है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि जिहाद है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि पूरी मुसलमान कौम को आतंकी मानने की है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि युवा हैं। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि सामुदायिक सौहार्द है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि देशप्रेम है। 'मुल्क' की पृष्ठिभूमि व्हाट्सएप पर आने वाले मैसेजेस हैं। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक तनाव है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि हिन्दुस्तान मुल्क है। 'मुल्क' की पृष्ठभूमि प्यार है और यह 'मुल्क' 2018 का है।
लेकिन चमात्कारिक बात यह है कि इतने गंभीर मुद्दों को डिस्कस करते हुए फिल्म कहीं मनोरंजन की दृष्टि से कमजोर नहीं पड़ती। 'मुल्क' में कॉमेडी है। 'मुल्क' में कोर्टरूम ड्रामा है। 'मुल्क' इमोशन हैं। 'मुल्क' में कानों को भाने वाले गाने हैं। 'मुल्क' में जबर्दस्त अभिनय है। 'मुल्क' 2:20 घंटे का एक ऐसा चलचित्र है, जिसकी हर एक कड़ी अपने जगह पर एक फिट बैठी है। जब कभी लगता है कि फिल्म कमजोर पड़ रही है, तभी एक जबर्दस्त डायलाग, अभिनय की खुराक मिल जाती है।
फिल्म मुल्क की कहानी
'मुल्क' की परिकल्पना 2018 के वाराणासी में रची गई है। वाराणसी से ऐसे कई मुहल्ले हैं जहां हिन्दू और मुसलमान साथ रहते हैं। यहां भी अली मुहम्मद (ऋषि कपूर) अपनी पत्नी तबस्सुम (नीना गुप्ता), छोटे भाई बिलाल मुहम्मद (मनोज पहवा), छोटे भाई की पत्नी तबस्सुम (प्राची शाह पांड्या), छोटे भाई के बेटे छोटे बेटे शाहिद मुहम्मद (प्रतीक बब्बर), छोटे भाई की बेटी आयत मुहम्मद (मनोज पहवा), पड़ोसी सोनेलाल और पड़ोसी चौबे (अतुल तिवरी) के साथ रहते हैं, साल 1919 से। उन्होंने साल 1947 के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा उनका मुल्क यही है। वाराणसी, भारत। साल 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त भड़के दंगों का असर अयोध्या से वाराणसी तक पहुंचे थे। अली मोहम्मद उस दौरान एक जिहादी बैठक में शामिल हुए थे। अपना परिवार लेकर भाग रहे थे तब सोनेलाल और चौबे ने उनको बचाया।
लेकिन साल 2018 में बिलाल मोहम्मद के बेटे शाहिद मोहम्मद को समझाया गया कि भारत में मुसलमान खतरे में है। उसने इलाहाबाद जाकर एक यात्री बस में बम प्लांट किया। इस धमाके में 16 लोगों की मौत हुई। इसके बाद चौबे के बेटे को यह समझा दिया गया, इन्होंने हमारे 16 मारे हैं। हमें इनको जड़ से उखाड़ देना चाहिए। यह बात चौबे को समझ आई कि वही परिवार जो दो दिन पहले उनके लिए कोरमा बना रहा था, उनके दुकान पर बैठकर चाय पी रहा था, वही सालों से हिन्दुओं को उड़ाने की प्लानिंग कर रहा था। उन्होंने थाने से पुलिस बुलाकर पूरे परिवार को जेल जाने भेजने की तैयारी बनाई। सोनेलाल उन्हें रोकते रहे कि मुहल्ले की बात है, सालों से हम भाई हैं, लेकिन चौबे 2018 में यह समझने को तैयार नहीं थे।
उधर, आतंकी हमले के बाद भदोही में छिपे शाहिद मोहम्मद को इंकाउंटर स्पेशलिस्ट एंटी-टेररिस्ट एसपी दानिश जावेद (रजत कपूर) गोली मार देते हैं। और हर वो कोशिश करते हैं, जिससे जाहिर हो कि पूरा परिवार पाकिस्तान और आतंकियों से मिला हुआ है, वह महीनों से भारत में आतंकी हमले की तैयारी कर रहा था। लेकिन शाहिद की मां तबस्सुम उसकी लाश लेने से मना कर देती है। यहां पर फिल्म का इंटरवल होता है।
इसके बाद शुरू होता कोर्टरूम ड्रामा। यहां अवतरित होती हैं, सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा) और जज (कुमुद मिश्रा)। यहीं से असल भूमिका में आती हैं आरती मल्होत्रा शादी बाद आरती मोहम्मद (तापसी पन्नू) जो पेशे से वकील हैं, हिन्दू हैं और लंदन में रहने वाले बिलाल के बड़े बेटे आफाताब मोहम्मद (इंद्रनील सेनगुप्ता) की पत्नी हैं। वह फिल्म की शुरुआत में ही वाराणसी आ जाती हैं। वह आफाताब से तलाक लेने की सोच रही हैं और यही बताने व अली मोहम्मद के बर्थडे पार्टी में शामिल होने वाराणसी आई हुई हैं। लेकिन कोर्ट में मोहम्मद फैमिली को उनकी जरूरत है।
अपने भाई का शुरुआती मुकदमा अली खुद लड़ते हैं। लेकिन बाद में मामले में आरोपी बनाए जाने के बाद वह मुकदमा छोड़ देते हैं और उनकी जगह केस आरती संभाल लेती हैं। कोर्ट में काफी देर तक एक पक्षीय दलीलें चलती हैं, जिसमें संतोष आनंद हर बार यह जता देते हैं कि भारत में रहने वाले मुसलमान, देश को नुकसान पहुंचाते हैं। टीवी इंटरनेट पर अली मोहम्मद और उनके परिवार को लेकर खबरें तैर जाती हैं। कौमी एकता के अली मोहम्मद को उकसाया जाता है। लेकिन अली उन मुसलमानों को लताड़ता है जो पाकिस्तान के मैच जीतने पर पटाखे जलाते हैं। तभी बिलाल की कस्टडी में बीमारी की वजह से मौत हो जाती है। बड़ा बेटा लंदन से लौटता है और परिवार को देश छोड़ने को कहता है। लेकिन अली मोहम्मद और आरती इसका विरोध करते हैं।
फिल्म के क्लाइमेक्स में संतोष आनंद कोर्ट में एक शेर की एक पंक्ति पढ़ते हैं-
"हम उन्हें अपना बनाए कैसे, वो हमें अपना समझते ही नहीं"
आरती मोहम्मद इसे दोबारा पढ़ती हैं। अपने अंदाज में। जज साहब आखिर में कहते हैं, जब कभी आपको 'हम' और 'वो' के मतलब कोई समझाने लगे तो घर जाकर कैंलेंडर देखिएगा, चुनाव कितने दिन बाकी हैं?
मुल्क में अभिनय और निर्देशन
ऋषि कपूरः दूसरी पारी में ऋषि कपूर को पहली बार कोर्ट में वाकालत और जिरह करते देखना चौंकाता है। एक मुसलमान परिवार का मुखिया और अपने भाई का मुकदमा लड़ते वक्त संविधान और कानून का पालन करते हुए ऋषि की वकालत के दृश्य शानदार हैं। उन्होंने अपने किरदार को पर्दे पर इस तरह से जिंदा किया कि पूरी फिल्म में वे एक बार ऋषि कपूर नहीं लगे। वे हर बार अली मोहम्मद रहे। जब आधी फिल्म में वे कोर्ट में अपना मुकदमा छोड़ते हैं, तो लगता है मानो फिल्म अब कमजोर हो जाएगी।
तापसी पन्नूः तापसी इंटरवल के पहले और इंटरवल के बाद शुरुआती दृश्यों में अपना नपा-तुला और आम अभिनय करती हैं। इसीलिए जब अली मोहम्मद, मुकदमे को आरती को सौंपते हैं तो लगता है फिल्म अब कमजोर हो जाएगी। लेकिन मुख्य वकील बनती हैं, तापसी ने कमाल कर दिया है। वह अपनी एक-एक जिरह को तल्लीनता और प्रभावशाली अंदाज में बोलती हैं कि पूरे देश को विश्वास हो जाए, जैसा वह कह रही हैं, वही सही है। एक दृश्य में जब वह अपनी बात सिद्ध कर देती हैं तो अपने दांतों भींचकर नाथुनों को थोड़ा ऊपर उठाकर हाथ को नीचे की तरफ झटका देती हैं। शायद वह कहना चाहती हैं, हैंड्स प्रूव योर ऑनर। लेकिन तापसी की वह अंदाजबयानी गहरा प्रभाव छोड़ती है।
मनोज पहवाः मनोज, अनुभव सिन्हा के पेटेंट कलाकारों में हैं। अनुभव उन्हें जिस किरदार में ढालते हैं, वह चुपचाप उसकी प्रतिमूर्ति बन जाती हैं। फिल्म में इकलौते मनोज ही हैं, जिन्होंने वाराणसी लहजे को पकड़े रखा है। बाकी सारे मुंबइया कलाकार, बहुत कोशिश के बाद भी वाराणसी की जुबान और अंदाजे बयान को नहीं पकड़ पाए हैं। लेकिन बिलाल मोहम्मद ने सबकी कमी पूरी कर दी है।
आशुतोष राणा, कुमुद मिश्रा, रजत कपूर, प्रतीक बब्बर, नीना गुप्ता, प्राची शाह, अतुल तिवारी, अनिल रस्तोगी के किरदारों पर अलग से बात की जा सकती है। लेकिन जैसा हमने पहले ही बताया फिल्म की हर एक कड़ी अपने जगहों पर सटीक बैठी है। ये सभी चरित्र अभिनता-अभिनेत्री हैं। ये जब-जब पर्दे पर आते हैं, अपने हिस्से की एक्टिंग से चौंका जाते हैं। अनुभव ने सोनेलाल के किरदार निभा रहे अनिल रस्तोगी को बोलने कम दिया है। वे अपनी पिछली फिल्मों में जबर्दस्त डायलाग बोलते रहे हैं। उन्हें पर्दे पर चुप रहने के बजाए और बोलने के और अवसर देते तो दर्शकों को हंसने के और मौके मिल जाते।
मुल्क में फिल्म में कुल चार गाने हैं। चारों ही कर्णप्रिय हैं। चारों गाने के मिजाज अलग हैं। एक फिल्म को शुरू कराता है। दूसरा फिल्म में रोचकता लाता है। तीसरा फिल्म को आगे बढ़ाता है। और चौथा फिल्म को खत्म करता है।
Final Comment: इस फिल्म को मस्ट वॉच की कैटेगरी में रखना बेमानी है। यह फिल्म, जिसे फिल्म देखने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती, उन्हें भी देखनी चाहिए।