चंबल फाउंडेशन फिल्म फेस्टिवल की तैयारियां शुरू, 5-7 अक्टूबर को ‘फिल्म लैंड’ में जुटेंगी तमाम शख्सियतें

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: June 13, 2019 07:06 PM2019-06-13T19:06:22+5:302019-06-13T19:06:22+5:30

के. आसिफ का निधन 9 मार्च 1971 को मुंबई में हुआ। उनकी यादें चंबल में संजोने के लिए चंबल फाउंडेशन के संस्थापक और दस्तावेजी फिल्म निर्माता शाह आलम जी जान से जुटे हुए हैं।

Chambal International Film Festival 2019: preparation start in etawah uttar pradesh know date | चंबल फाउंडेशन फिल्म फेस्टिवल की तैयारियां शुरू, 5-7 अक्टूबर को ‘फिल्म लैंड’ में जुटेंगी तमाम शख्सियतें

चंबल फाउंडेशन फिल्म फेस्टिवल की तैयारियां शुरू, 5-7 अक्टूबर को ‘फिल्म लैंड’ में जुटेंगी तमाम शख्सियतें

Highlightsचम्बल सभ्य समाज के लिए बहिष्कृत बाग़ियों की धरती रही है।हिंदी की पहली फ़िल्म हरिश्चन्द्र-तारामती भी उत्तर भारत की प्रसिद्ध नौटंकी "सत्य हरिश्चन्द्र" का ही फिल्मी रूपांतरण है।

के. आसिफ चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का पोस्टर प्रेस क्लब सभागार में जारी कर दिया गया। ये तीसरा मौका है जब ये फिल्म फेस्टिवल आयोजित हो रहा है। यह तीन दिवसीय आयोजन आगामी 5-7 अक्टूबर के बीच मध्य प्रदेश के भिंड शहर में होगा, जिसमें देश-विदेश की सिनेमा से जुड़ी शख्सियतें शिरकत करेंगी। 

 इटावा प्रेस क्लब सभागार बना पोस्टर रिलीज का गवाह

मशहूर फिल्मकार के. आसिफ के नाम पर होने वाले तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल का पोस्टर जारी करने से पहले प्रेस क्लब के अध्यक्ष दिनेश शाक्य की अध्यक्षता में वक्ताओं ने के आसिफ को शिद्दत से याद किया। जिसमें फेस्टिवल आयोजन समिति से जुड़े इं. राज त्रिपाठी, प्रेस क्लब के महामंत्री बिशुन चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार पं. मोहसिन अली, कामरेड प्रेमशंकर यादव, वरिष्ठ पत्रकार वीरेश मिश्रा, के के डिग्री कालेज के अध्यक्ष विजयशंकर वर्मा, कोरियोग्राफर शीलेन्द्र प्रताप सिंह, फिल्म निर्माता सौरभ पालीवाल, गौतम शाक्य, वहाज अली खां, रजत यादव, प्रमिला पालीवाल, जमील अंसारी, अमरदीप आदि ने विचार व्यक्त किया।

इनकी याद में कराया जाता है फेस्टिवल

इटावा में जन्मे देश की सबसे ऐतिहासिक फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म बना कर सिने जगत में मकबूल हुए फिल्मकार के. आसिफ का बचपन भले ही मुफलिसी में बीता लेकिन सपने उन्होंने सदैव बड़े ही देखे। लिहाजा बॉलीबुड में पहुंचकर बेहतरीन तीन फिल्में बनाकर अपने हुनर का लोहा सभी से मनवा लिया।

इटावा शहर के मोहल्ला कटरा पुर्दल खां में स्थित महफूज अली के घर में उनकी यादें अभी बुजुर्गवारों की जुबां पर हैं, इस घर में के आसिफ के मामा किराए पर रहा करते थे। उनके मामा की पशु अस्पताल में डॉक्टर के रूप में यहां तैनाती हुई थी। उसी दौरान उनकी बहन लाहौर से आकर अपने भाई की सरपरस्ती में रहने लगी थी। उन्होंने 14 जून 1922 को एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम उस समय कमरूद्दीन रखा गया जो वॉलीबुड पहुंचकर के. आसिफ के नाम से मशहूर हुआ।

उन्होने फूल बेंचने के साथ इस्लामियां इंटर कालेज से जुड़े मदरसा में शिक्षा ग्रहण की। इस दौरान वे टेलरिंग का कार्य करने लगे, सपनों को साकार करने के लिए वे मुंबई में फिल्मी दुनियां में पहुंच गए। 1941 में उनकी 'फूल' फिल्म रिलीज हुई जो उस समय की सबसे बड़ी फिल्म मानी गई। इसके पश्चात 1951 में उनकी हलचल फिल्म ने समूचे देश में हलचल मचाई। इसके पश्चात 1960 में मुगल-ए-आजम रिलीज हुई तो इसने फिल्म जगत में तहलका मचा दिया। 

फिल्म जगत की सबसे बेहतरीन फिल्मों में इसका नाम शिलालेख पर दर्ज है। इस फिल्म के निर्माण में 14 साल का समय बीता था, इसी के साथ हर सीन को जीवंत करने के लिए पैसा पानी की तरह बहाया गया था। के. आसिफ का निधन 9 मार्च 1971 को मुंबई में हुआ। उनकी यादें चंबल में संजोने के लिए चंबल फाउंडेशन के संस्थापक और दस्तावेजी फिल्म निर्माता शाह आलम जी जान से जुटे हुए हैं।

 फेस्टिवल को लेकर उत्साह 

 हिंदी सिनेमा को माइलस्टोन फ़िल्म देने वाले डायरेक्टर के आसिफ के 97 वें जन्मदिन से पहले गोवा मुक्‍ति‍ आंदालन के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कृष्ण चन्द्र सहाय इस फेस्टिवल को लेकर खासे उत्साहित हैं। दरअसल चम्‍बल घाटी शांति‍ मि‍शन के संयोजक रहे कृष्ण चन्द्र सहाय ने चंबल घाटी में बि‍नोवा जी और जयप्रकाश नारायण के बाद के 651 बागियों के आत्‍म समर्पणों के जीवंत दस्तावेज हैं।

चंबल से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें

चम्बल सभ्य समाज के लिए बहिष्कृत बाग़ियों की धरती रही है। बागी यानी बहिष्कृत नायक...बहुत कुछ रॉबिनहुड की भाँति... ज्ञात इतिहास में चीनी यात्री फाययान के लेखों से ज्ञात होता है कि मथुरा के पूर्व में दस्युओं का वास था...दसवीं शताब्दी में 'चण्ड' नामक बाग़ी का नाम आता है, जिसका विद्रोह दबाने हेतु भोज ने चम्बल में तोमरों को बसाया था। वहीं दक्षिण से लौटते हुए सलीम के उकसावे पर अकबर के नवरत्न अबुल फ़ज़ल की ग्वालियर के पास हत्या कर फ़रार हो जाने वाले ओरछा के शासक वीर सिंह को भी अकबर ने तब बाग़ी घोषित कर दिया था। मुगलों से विद्रोह करने वाले शिवाजी हों या अंग्रेजों से बग़ावत करने वाले पिंडारी और तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई चंबल के बीहड़ों में आकर अवश्य ही शरण और सहायता प्राप्त की।

यह सब विद्रोही तत्कालीन सत्ता के लिए विद्रोही, बाग़ी और डाकू थे तो जन सामान्य के लिए जन नायक...20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े सशस्त्र आंदोलन में गेंदालाल दीक्षित, राम प्रसाद बिस्मिल और मुकुन्दीलाल ने जहाँ मैनपुरी षड्यन्त्र से लेकर काकोरी कांड तक अंग्रेजों से सीधे टक्कर ली, तो लाखन-बटुरी, पुतलीबाई-सुल्ताना  और मानसिंह ने अंग्रेज और उनके दलाल ज़मींदारों और जागीरदारों से टक्कर लेकर अपने और चम्बल की प्रजा के हितों की रक्षा की...

देश आजाद होने के बाद भी चम्बल में जातीय कुचक्र और सवर्णीय उत्पीड़न के चलते जहाँ अमृतलाल किरार, विक्रम मल्लाह, फूलन देवी, मलखान सिंह, निर्भय गुर्जर, सीमा परिहार इत्यादि ने भी विभिन्न कारणों से बन्दूक उठाकर बीहड़ का रास्ता पकड़ा...यह रास्ता जितना दुर्लभ उतना ही रोमांचक...अपने या अपने परिजनों अधिकारों अथवा उनकी हत्या के बदले की भावना से शोषक सत्ता और समाज से सीधे टकराने के इस भाव ने जहाँ साहित्यकारों को बड़े स्तर पर आकर्षित किया वहीं फिल्मकार भी इसके मोह से नहीं बच सके...पारसी थियेटर से उपजी नाटक का ही संगीतमय रूप 'नौटंकी' में बागियों और डाकुओं के रॉबिन हुड टाइप किस्सों को बड़े स्तर पर लोकप्रिय बनाया। इनमें सुल्ताना डाकू, पुतलीबाई, बाग़ी मानसिंह की नौटंकियाँ चम्बल ही नहीं चम्बल के बाहर भी बड़ी लोकप्रिय हुई थीं।

हिंदी सिनेमा के प्रारम्भ में पारसी थियेटर और नौटँकी की अमिट प्रभाव है। हिंदी की पहली फ़िल्म हरिश्चन्द्र-तारामती भी उत्तर भारत की प्रसिद्ध नौटंकी "सत्य हरिश्चन्द्र" का ही फिल्मी रूपांतरण है। यहाँ तक कि हिंदी सिनेमा के ज्ञात इतिहास में चम्बल और डकैतों पर बनी चर्चित फिल्म "मुझे जीने दो" के दो गीत 'नदी नारे न जाओ श्याम पैयां परूँ' और "मोहि पीहर में मत छेड़" जैसे दो लोकगीत सीधे नौटंकी से उठाये हुए हैं। 

चंबल पर बनीं कई फिल्में

जमींदारों के अत्याचार, आपसी लड़ाई और ज़र, जोरू और ज़मीन के झगड़ों को लेकर 1963 में आई फ़िल्म 'मुझे जीने दो' के बाद इस विषय पर सत्तर के दशक में बहुत सारी फिल्में, चम्बल के बीहड़ और बागियों को लेकर बनीं, जिनमें 'डाकू मंगल सिंह -1966', 'मेरा गाँव मेरा देश-1971', 'चम्बल की क़सम-1972', 'पुतलीबाई-1972', 'सुल्ताना डाकू-1972, कच्चे धागे-1973', प्राण जाएँ पर बचन न जाए-1974, 'शोले-1975', 'डकैत-1987', 'बैंडिट क्वीन-1994', 'वुंडेड : द बैंडिट क्वीन-2007', पान सिंह तोमर-2010, दद्दा मलखान सिंह और सोन चिरैया-2019 प्रमुख हैं। इन फिल्मों में से कुछ फिल्मों में चम्बल की वास्तविक तस्वीर बड़ी विश्वसनीयता के साथ अंकित हुई है।

 चंबल में फिल्मकार बना सकते हैं बड़ी फिल्में 

चम्बल घाटी का फिल्मांकन की दृष्टि से दोहन अभी नाम मात्र को हुआ है। पीला सोना यानी सरसों से लदे इसके खाई-भरखे, पढ़ावली-मितावली, बटेश्वर, सिंहोनिया के हजारों साल पुराने मठ-मन्दिर, सबलगढ़, धौलपुर, अटेर, भिंड के किले, चंबल सफ़ारी में मगर, घड़ियाल और डॉल्फिनों के जीवन्त दृश्य और चाँदी की तरह चमकती चंबल के रेतीले तट और स्वच्छ जलधारा...और भी बहुत कुछ है चम्बल में जिस पर फिल्मकारों और पर्यटकों की अभी दृष्टि पड़ी नहीं है। चंबल बहुत ही उर्वर है इस मामले में नए फिल्मकारों को इसका लाभ उठाना चाहिये। इस बार के फिल्म फेस्टिवल में इसी को लेकर चर्चा होगी।
 

Web Title: Chambal International Film Festival 2019: preparation start in etawah uttar pradesh know date

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