बासु चटर्जी: हिन्दी सिनेमा को मध्यमवर्ग से जोड़ने वाले फिल्मकार

By सुन्दरम आनंद | Published: June 4, 2021 09:23 AM2021-06-04T09:23:13+5:302021-06-04T09:27:03+5:30

Basu Chatterjee (10 जनवरी, 1927- 4 जून 1920): बासु चटर्जी की आज पुण्यतिथि है। उनकी फ़िल्में कहानी की सहजता और नैरेटिव की सरलता के कारण दर्शकों बांध लेती हैं। साथ ही इनमे इस्तेमाल किये गए गीत-संगीत ने उन्हें एक तरह से अमर कर दिया है। ृ

Basu Chatterjee: filmmaker who connected Hindi cinema with the middle class | बासु चटर्जी: हिन्दी सिनेमा को मध्यमवर्ग से जोड़ने वाले फिल्मकार

बासु चटर्जी की आज पुण्यतिथि (फाइल फोटो)

दुनिया भर में हिंदी सिनेमा की पहचान गीत-संगीत से सराबोर अतिनाटकीय कथानक वाली फिल्मों के रूप में रही है। हिंदी में बनने वाली ज़्यादातर फ़िल्में इस धारणा को पुष्ट भी करती हैं। इस मिथक को तोड़ने के प्रयास में 1960 के दशक में ‘समानांतर सिनेमा’ की शुरुआत हुई। 

मुख्यधारा की सपनीली फिल्मों की जगह इस धारा के फिल्मकारों ने उस दौर के सामाजिक यथार्थ के इर्दगिर्द अपनी फिल्मों को रचने की कोशिश की। लेकिन इसी दौरान मुख्यधारा और सामानांतर सिनेमा के बीच एक और किस्म का सिनेमा सामने आया। इसे ‘मध्यमार्गीय सिनेमा’ या ‘मिडिल क्लास सिनेमा ‘ कहा गया। 

हल्के-फुल्के अंदाज़ में स्वस्थ मनोरंजन के साथ मध्यवर्गीय परिवार की कहानी कहना इसका ध्येय रहा। बासु भट्टाचार्य ,हृषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार के साथ बासु चटजी को इस किस्म की फिल्मों का अगुआ माना जाता है। 

दरअसल बासु चटर्जी का शुमार हिंदी सिनेमा के ऐसे फ़िल्मकार के तौर पर  किया जाता  है जिनकी फिल्मों में मध्यवर्गीय जीवन का कोई दृष्टान्त चितपरिचित भंगिमाओं के साथ परदे पेश की जाती थीं। 

उनकी फिल्म-दृष्टि  के बारे में उनके लिए कई फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाने वाले मशहूर अदाकार अमोल पालेकर ने NDTV को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में कहा था- “बासु दा की खासियत यह थी कि वह आम आदमीं की ज़िन्दगी को बेहद बारीकी से देख सकते थे। उनकी फिल्मों में ज़िन्दगी ड्रमैटिक होने की जगह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी होती थी। इसी रोज़मर्रेपन में अद्भुत सेन्स ऑफ़ ह्यूमर तलाश लेना उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी “

फिल्म सोसाइटी आंदोलन से जुड़ाव

अजमेर में जन्मे और मथुरा में पले-बढे बासु चटर्जी की दिलचस्पी सिनेमा में पढाई के दिनों से ही थी। सिनेमा में अपनी किस्मत आजमाने की सोच के साथ 1940  के दशक  में एक नौकरी के सिलसिले में वे बम्बई आए। आगे उस दौर की मशहूर पत्रिका ‘ब्लिट्ज’ में बतौर कार्टूनिस्ट उन्होंने काम करना शुरू किया। 

इत्तेफ़ाक़ से उनका पहला कार्टून भारत की आज़ादी के दिन यानि 15 अगस्त 1947 को प्रकाशित हुआ था। यही वो दौर था जब भारत में फिल्म सोसाइटी मूवमेंट भी आकार लेने लगा था। देश के अलग -अलग हिस्सों में सिनेमा में गहरी दिलचस्पी लेने वाले लोग दुनिया की बेहतरीन फिल्मों को देखने और उसपर बहस करने के लिए आपस में जुड़ने लगे थे। 

बम्बई में भी इसप्रकार का एक समूह ’द अमैच्योर फिल्म सोसाइटी ऑफ़ इंडिया ‘ के नाम से अस्तित्व में आया। इस समूह से जुड़कर बासु दा का परिचय  दुनिया भर की बेहतरीन फिल्मों से हुआ। सन 1964 में मशहूर फ़िल्मकार एवं लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास के नेतृत्व में ‘फिल्म फोरम ‘ नामक संस्था बनी जिसमें बासु चटर्जी की भी काफी अहम् भूमिका थी।

चूँकि इस फोरम से बम्बई सिने उद्योग के ट्रेड यूनियन  और युवा फिल्मकरों का सीधा जुड़ाव था ,लिहाजा आगे चलकर इसे ‘फिल्मकारों की फिल्म सोसाइटी’ भी कहा जाने लगा। 

एक युवा सिनेमा-प्रेमी के रूप में इससे जुड़े और आगे ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया ‘ के सिने -समीक्षक और ‘फिल्मफेयर’ पत्रिका के संपादक रहे खालिद मोहम्मद ने  बासु चटर्जी के योगदान के बारे में बताते हुए कहा है- ”बासु चटर्जी ने बाकायदा  सिनेमा से जुड़ी किताबों की एक लाइब्रेरी बना रखी थी। उनके नेतृत्व में इससे भविष्य के क्षमतावान फिल्मकारों को जोड़ा गया था। उन्हें लगातार फिल्म अध्ययन तथा उससे जुड़ी बहसों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाता था”।   

अब्बास साहब और बासु दा ने ‘फिल्म फोरम’ की तरफ से सिनेमा पर गंभीर चर्चा के लिए ‘क्लोज अप ‘ नामक पत्रिका का भी प्रकाशन सुनिश्चित कराया। 

साहित्यिक कृतियों पर काम 

बासु चटर्जी अपने कॉलेज के दिनों से साहित्य पढ़ने के शौकीन थे और उनके  सिनेमाई सफर की शुरुआत ‘तीसरी कसम ‘(1966 ) फिल्म में  बासु भट्टाचार्य के असिस्टेंट के तौर पर हुई। इसके बाद वो ‘सरस्वतीचंद्र’(1968 ) फिल्म में गोविन्द सरैया के सहायक रहे। 

उल्लेखनीय है कि ये दोनों फ़िल्में भी  साहित्यिक कृतियों पर ही  बनी थीं । ज़ाहिर है कि  अपने टेस्ट और ट्रेनिंग के प्रभाव में बासु दा  का रुझान साहित्यिक कृतियों फिल्मांतरण की तरफ हुआ। 

हालाँकि कि वो अपनी पहली फिल्म चेक भाषा के गीत-काव्य ‘रोमांस फॉर बुगल’ पर बनाना चाहते थे। लेकिन फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन में स्क्रिप्ट पास न हो पाने के के कारण बना नहीं पाए।  आगे चलकर इसपर 1974  में ‘उस पार ‘ नाम की फिल्म उन्होंने बनायी। 

बतौर निर्देशक बासु चटर्जी ने अपनी शुरुआत  राजेंद्र यादव के पहले उपन्यास ‘सारा आकाश’(मूल नाम- ‘प्रेत बोलते हैं’) के एक हिस्से  को आधार बनाकर इसी नाम से 1969 में बनी फिल्म के ज़रिये की। आगरा के एक मध्यवर्गीय परिवार के इर्दगिर्द बुनी गयी कहानी पर बनी ‘सारा आकाश ‘आगे चलकर हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक सन्दर्भ बिंदु बन गयी।  

एक तो मृणाल सेन की ‘भुवनसोम’(1969 ) और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’(1969) के साथ इस फिल्म को समानांतर सिनेमा की प्रस्तावक फिल्म के रूप में गिना जाता है। इसके अलावा इस  फिल्म ने  निम्न मध्यवर्गीय जीवन के राग-रंगों को हिन्दी  सिनेमा के परदे  पर  नया मुहावरा प्रदान किया। 

उनकी दूसरी फिल्म ‘पिया का घर’(1972 ) वा.पु.काले की एक मराठी कहानी पर आधारित थी। इसके बाद उन्होंने हिंदी की मशहूर लेखिका मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर ‘राजनीगन्धा ‘(1974 ) नामक सफल फिल्म बनायी। 

बांग्ला साहित्य के दिग्गज लेखकों मसलन शरतचंद्र (स्वामी, अपने पराये), समरेश बासु (शौकीन), सुबोध घोष (चितचोर) की कृतियों को आधार बनाकर उन्होंने फ़िल्में बनायीं। 

विदेशी साहित्य की बात करें तो ब्रिटिश कहानी ‘स्कूल ऑफ़ स्कॉउन्ड्रेल ‘ पर उन्होंने ‘छोटी सी बात’(1976 ), तुर्की भाषा की एक कहानी पर ‘खट्टा-मीठा’(1978) ,जॉर्ज बर्नाड  शॉ  की कहानी ‘पिग्मेलियन’ पर ‘मनपसंद’ (1980 ) जैसी यादगार फ़िल्में बनायीं। 

बासु चटर्जी हिंदी सिनेमा के उन शुरुआती निर्देशकों में रहे जिन्होंने टेलीविजन के विस्तृत पहुंच और उसकी सामाजिक एवं रचनात्मक संभावनाओं को पहचाना। दूरदर्शन के लिए उनके बनाए तकरीबन सभी कार्यक्रम आज भी याद किये जाते हैं।

चाहे उपभोक्ता संरक्षण के मुद्दे पर बना धारवाहिक ‘रजनी’ (1985 ) हो या जासूसी सीरीज ‘व्योमकेश बक्शी’(1993 ) हो।  टेलीविजन पर भी उन्होंने साहित्यिक कृतियों के साथ बेहतरीन प्रयोग किये। 

मिसाल के तौर मनोहर श्याम जोशी के लिखे राजनीतिक व्यंग्य ‘नेताजी कहिन ‘ पर बने ‘कक्काजी कहिन ‘(1988 ) और रेजिनाल्ड रोज के ‘12 एंग्री मैन' पर बनी टेलीफिल्म ‘एक रुका हुआ फैसला’ (1986 ) के नाम इस बाबत शुमार किये जा सकते हैं।  

गीत-संगीत का सार्थक इस्तेमाल  

बासु दा की फ़िल्में  कहानी की सहजता  और नैरेटिव की सरलता के कारण तो दर्शकों बांधती ही हैं। पर इनमे इस्तेमाल किये गए गीत-संगीत ने उन्हें  एक तरह से अमर कर दिया  है। हालाँकि शुरू में वो अपनी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक या गानों के इस्तेमाल को लेकर ज़्यादा आग्रही नहीं थे। 

‘सारा आकाश’ (1969) में इस बात की तस्दीक की जा सकती है। लेकिन गुलज़ार साहब की सलाह पर उन्होंने अपनी फिल्मों में संगीत पक्ष पर ध्यान देना शुरू किया। जिसकी झलक हम उनकी दूसरी फिल्म ‘पिया का घर ‘(1972) देख सकते हैं।
 
बासु दा की फिल्मों के गीत-संगीत अपने दौर के दूसरे फिल्मों से इस मायने में भी अलहदा हैं कि वो कहीं से निरर्थक या थोपे गए मालूम नहीं पड़ते बल्कि फिल्म की  परिस्थिति के अनुसार एक अनुपातिक समीकरण में  कहानी  के साथ गुंथे हुए नज़र आते हैं। इस गुण  के कारण वे फिल्म की कहानी के भाव और गति  को सटीक मोड़ प्रदान करते हैं। 

उन्होंने अपने दौर के सभी नामी-गिरामी संगीतकारों मसलन एस.डी बर्मन , सलिल चौधरी,आर.डी.बर्मन ,लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ,रवींद्र जैन,राजेश रोशन आदि के साथ काम किया और उनसे नायाब संगीत निकलवाया। गीतकारों  में योगेश के साथ उनका समीकरण सबसे शानदार रहा। 

योगेश ने अपने करियर के कई यादगार गाने बासु दा की फिल्मों के लिए भी लिखे। गायकों की बात करें तो मुकेश ,रफ़ी साहब ,किशोर कुमार सरीखे सभी गायकों ने उनके लिए गया। उल्लेखनीय है कि मुकेश को अपने जीवन का एकमात्र रष्ट्रीय पुरस्कार  ‘रजनीगंधा’(1974 ) के गाने ‘कई बार यूं ही देखा….' के लिए मिला था। 

येसुदास जैसे दिग्गज गायक से हिंदी गानों के रसिकों को  पहली बार बासु दा ने ही रु-ब-रु कराया था। ‘चितचोर’ (1976) के मंत्रमुग्ध कर देने वाले सभी गाने येसुदास के ही गाए हुए हैं। इस फिल्म में  राग यमन पर आधारित उनके गाए  गाने ‘जब दीप जले आना.. ‘ के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया था। 

मध्यमवर्ग के फिल्मकार 

हिंदी और बांग्ला के 40 से ज़्यादा फिल्मों तक फैली बासु चटर्जी की सिने -यात्रा बहुरंगी रही है। लेकिन इन विवधताओं के बीच निम्न मध्यवर्ग उनके सृजन की धुरी रहा है। 

मध्यवर्ग के चित्रण के पीछे की अपनी सोच के बारे में बताते हुए राज्यसभा टीवी को दिए गए इंटरव्यू में उनका कहना था-”मैंने जो जीवन देखा है उसे ही दर्शाना चाहता हूँ। मेरी फ़िल्में लार्जर दैन लाइफ नहीं हैं। ...साधारण आदमी की व्यथा और उसकी जर्नी ही मैंने देखी है और हमेशा उसे ही दिखाने की भी कोशिश की।''

अपने शिल्प को लेकर  यही साफगोई उनकी फिल्मों एक ऐसी शानदार भाषा मुहैया कराती रही। जिसके ज़रिये सरल और मौलिक सिनेमाई व्याकरण के साथ परदे पर उकेरी गई उनकी कथावस्तु ठंडी हवा के झोकों की मानिंद हमें आज भी तरोताज़ा कर देते हैं ।

Web Title: Basu Chatterjee: filmmaker who connected Hindi cinema with the middle class

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