दर्शक तो हम बन गए, मगर सर्जक के सुख को गंवा दिया !

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 12, 2025 07:10 IST2025-11-12T07:10:21+5:302025-11-12T07:10:35+5:30

तकनीकी आविष्कारों ने आज हमारे जीवन को पहले के मुकाबले बहुत सुलभ बना दिया है, मनोरंजन के लिए आज हम ज्यादा समय निकाल पाते हैं. लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम सिर्फ श्रोता या दर्शक बन कर ही रह जा रहे हों!

We became spectators but we missed the joy of being creator Alice Johnson resident of Little Rock us | दर्शक तो हम बन गए, मगर सर्जक के सुख को गंवा दिया !

दर्शक तो हम बन गए, मगर सर्जक के सुख को गंवा दिया !

हेमधर शर्मा

अमेरिका के लिटिल रॉक की निवासी एलिस जॉनसन को जब जिंदगी बहुत बोझिल लगने लगी तो अपने सत्तरवें जन्मदिन पर उन्होंने निश्चय किया कि वे अगले एक साल में 70 नई क्रियेटिव चीजें करेंगी. वे चाहती थीं कि हर अनुभव उनके लिए नया हो, इसलिए सीखने की सूची में अलग-अलग विषयों को रखा- जैसे कुछ नया खाना बनाना सीखना, कोई नई कला सीखना आदि. साल बीतते न बीतते उन्होंने पाया कि उनकी जिंदगी एकदम बदल गई है. वे कहती हैं, ‘हम खुद को बहुत बहाने देते हैं, मैंने भी दिए. अब नहीं देती.’

अमेरिका के ही कारमेन डेल ओरेफिस ने 1945 में 14 साल की उम्र में मॉडलिंग करियर की शुरुआत की थी, और आज 94 साल की उम्र में भी वे फैशन की दुनिया में सक्रिय हैं. कारमेन का मानना है कि काम करते रहना ही सफलता की कुंजी है. आयरलैंड के 89 वर्षीय आयरिश हार्प मेकर नोएल एंडरसन ने 82 वर्ष की उम्र में वीणा बनाना सीखा था. वे पिछले सात वर्षों में 18 वीणा बना चुके हैं तथा इन दिनों 19वीं सदी की एक खास डिजाइन पर काम कर रहे हैं.

महापुरुषों की कहानियां पढ़ें तो हम पाएंगे कि उन्होंने अपने जीवन के अंत तक खुद को सृजनात्मक बनाए रखा था. रवींद्रनाथ टैगोर ने 60 साल की उम्र में पेंटिंग शुरू की थी और महात्मा गांधी तो 78 साल की उम्र में बांग्ला भाषा सीख रहे थे. कई लोगों को लगता है कि विद्यार्थी जीवन समाप्त होते ही सीखने का भी अंत हो जाता है लेकिन जिस दिन से हम सीखना बंद कर देते हैं, उसी दिन से शायद मरना शुरू कर देते हैं! विज्ञान कहता है कि कुछ नया सीखने से दिमाग में न्यूरॉन्स के बीच नए और मजबूत संबंध बनते हैं, जिसे ‘प्लास्टिसिटी’ कहते हैं.

यह मस्तिष्क के बदलने और अनुकूलन करने की क्षमता है, जो सीखने के साथ बढ़ती है. बहती नदी का पानी जैसे निर्मल रहता है और ठहरते ही सड़ने लगता है, यही चीज शायद हमारे दिमाग के साथ भी होती है!

जिस समाज में सृजनात्मक चीजें ज्यादा होती हैं, उसमें विध्वंसात्मक प्रवृत्ति उतनी ही कम होती है. कुछ नया सीखना बंद कर देने से सिर्फ दिमाग का लचीलापन ही खत्म नहीं होता, हमारी सोच में भी कठोरता आ जाती है और हम अधिकाधिक कट्टर होते जाते हैं. शायद यही कारण है कि दुनिया में सारे तानाशाह अतीतजीवी होते हैं और क्रियेटिव लोग स्वप्नदर्शी!  

अध्ययनों से पता चलता है कि रचनात्मकता और लंबी उम्र के बीच सकारात्मक संबंध है तथा 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में, साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों को रचनात्मक गतिविधियों से दूर रहने वालों की तुलना में डॉक्टर के पास कम जाना पड़ता है. ऐसा नहीं है कि रचनात्मकता सीधे तौर पर हमारी उम्र बढ़ा देती है, बल्कि यह हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करती है, जिससे उम्र बढ़ जाती है. शोध बताते हैं कि रचनात्मकता मस्तिष्क के उन क्षेत्रों की रक्षा करती है जो उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे मस्तिष्क की कार्यक्षमता अधिक कुशल बनती है.

पुराने जमाने में सुविधाएं भले ही कम थीं लेकिन जीवन में रचनात्मकता भरपूर देखने को मिलती थी. जब घर-घर में हैंडपंप या बोरवेल नहीं होते थे तो सुदूर नदी-तालाबोंं या कुओं से पानी भरने के लिए झुंड में जाने वाली महिलाओं की सुरीली तान उनकी सारी थकान हर लेती थी. तड़के चार बजे ही उठकर मिट्टी की चकरी पर धान दरती या पत्थर की हाथ चक्की पर आटा पीसती महिलाओं के लोकगीतों से भोर की बेला और भी सुहानी हो उठती थी.

आज हम सीमेंट-कांक्रीट के मकान बनाकर अगले 40-50 वर्षों तक उसकी देखभाल करने के झंझट से मुक्त हो जाते हैं लेकिन पहले मिट्टी के मकानों की हर साल पुताई-लिपाई करनी पड़ती थी. देखा जाए तो गांवों में लोग प्राय: पूरे साल भर ही किसी न किसी काम में व्यस्त रहते थे. तकनीकी आविष्कारों ने आज हमारे जीवन को पहले के मुकाबले बहुत सुलभ बना दिया है, मनोरंजन के लिए आज हम ज्यादा समय निकाल पाते हैं. लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम सिर्फ श्रोता या दर्शक बन कर ही रह जा रहे हों! आज कुछ चुनिंदा प्रतिभाएं प्रादेशिक, राष्ट्रीय या वैश्विक स्तर पर छा जाती हैं और हम सब उसका आनंद उठाते हैं, लेकिन इसका खामियाजा कहीं हमें अपनी सृजनात्मकता को कुंद करके तो नहीं उठाना पड़ रहा है?

गांव में चौपाल पर पहले शाम को सब इकट्ठा होते थे, जहां उन्हें अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर मिलता था. आज टीवी के सामने बैठकर या मोबाइल हाथ में लेकर हम कहीं सर्जक की बजाय सिर्फ दर्शक बनकर ही तो नहीं रह जा रहे हैं?

Web Title: We became spectators but we missed the joy of being creator Alice Johnson resident of Little Rock us

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