विजय दर्डा का ब्लॉगः दुनिया की राजनीति में फुटबॉल जैसी किक!

By विजय दर्डा | Published: December 26, 2022 08:05 AM2022-12-26T08:05:10+5:302022-12-26T08:27:01+5:30

बदरंग हो चुकी इस दुनिया को प्रेम के रंग में रंग देने की क्षमता केवल दो ही माध्यमों में है। एक है संगीत और दूसरा है खेल! ...लेकिन खेल में तो राजनीति घुसी ही है, इस दुनिया में राजनीति का खेल भी खूब चल रहा है।

Vijay Darda Blog Kick Like Football In World Politics | विजय दर्डा का ब्लॉगः दुनिया की राजनीति में फुटबॉल जैसी किक!

विजय दर्डा का ब्लॉगः दुनिया की राजनीति में फुटबॉल जैसी किक!

कतर के लुसैल स्टेडियम में अर्जेंटीना के सुपरस्टार लियोनेल मेस्सी और फ्रांस के स्टार स्ट्राइकर किलियन एमबाप्पे की दिल धड़काऊ टक्कर चल रही थी...मैं भी फुटबॉल के इस शानदार मैच का दिल थामे मजा ले रहा था। खेल की रफ्तार जितनी तेज थी, उतनी ही तेज मेरी धड़कनें थीं और जेहन में उसी तीव्रता से सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे। दुनिया के मैदान पर खेली जा रही राजनीति में बड़े मुल्कों ने छोटे मुल्कों को और शक्तिशाली मुल्कों ने कमजोर मुल्कों को फुटबॉल का मैदान क्यों बना रखा है? जीत की अपनी बिसात बिछाने के लिए जब मर्जी हुई किक मार दिया! ...और सबसे बड़ा सवाल कि फुटबॉल के मैदान पर हम अपने देश के लिए जश्न कब मनाएंगे?

बदरंग हो चुकी इस दुनिया को प्रेम के रंग में रंग देने की क्षमता केवल दो ही माध्यमों में है। एक है संगीत और दूसरा है खेल! ...लेकिन खेल में तो राजनीति घुसी ही है, इस दुनिया में राजनीति का खेल भी खूब चल रहा है। महाबली अमेरिका की जब मर्जी हुई पाकिस्तान को गोद में बिठा लिया और जब मर्जी हुई किक मार दिया! रूसी राष्ट्रपति पुतिन की इच्छा हो गई तो आसपास के छोटे और कमजोर मुल्कों को किक तो मारी ही अब यूक्रेन को नेस्तनाबूद करने पर उतारू हैं। नॉर्थ कोरिया को अमेरिका लगातार किक मार रहा है। अमेरिका, चीन और रूस जैसे बड़े और शक्तिशाली देश कमजोर और छोटे मुल्कों की हवा निकालने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं। आप अफ्रीकी देशों का रुख करें तो वहां कोई तानाशाह अपनी ही जनता को किक मार रहा है। अफगानिस्तान जैसे देश में हर व्यक्ति फुटबॉल की तरह ठोकरें खा रहा है। करोड़ों करोड़ इंसान खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं लेकिन उनकी जिंदगी फुटबॉल जैसी हो गई है...पता नहीं कब कहां से किक पड़ जाए। ऐसा लगता है कि इंसानियत हवा हुई जा रही है।

खेल के मैदान में फुटबॉल की अहमियत गोल पोस्ट पर पहुंचने से होती है क्योंकि वहां पहुंचने से पहले जीत की इबारत नहीं लिखी जाती। दुनिया के मैदान पर छोटे मुल्क किक तो खा रहे हैं लेकिन गोल पोस्ट उनके नसीब में नहीं है। खेल का लुत्फ लेते हुए मुझे फीफा वर्ल्ड कप 2018 का वो नजारा याद आ गया जब फीफा के चेयरमैन जियानी इन्फेंटिनो के पीछे छाता लगाए एक व्यक्ति खड़ा था क्योंकि बारिश हो रही थी। उधर  पुतिन के ऊपर कोई छाता नहीं था। यह घटना इसलिए बता रहा हूं ताकि आप समझ पाएं कि फीफा के चेयरमैन की हैसियत क्या होती है। हो भी क्यों नहीं, आखिर फुटबॉल बंधुत्व और प्रेम फैलाने का माध्यम जो है। इसी बंधुत्व के लिए तो फीफा की शुरुआत हुई थी। हां, दुनिया के कई मुल्कों में अपनी टीम के लिए फैंस भड़क उठते हैं और अब तक सैकड़ों जानें भी जा चुकी हैं। मगर खेल कभी हिंसा नहीं सिखाता!  

खेल से किसी देश की किस्मत कैसे बदल सकती है, इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण अर्जेंटीना है। करीब 50 साल पहले अर्जेंटीना को अमीर और ताकतवर देश बनने की अपार क्षमता वाला देश माना जाता था लेकिन आज भी वहां 10 में से 4 व्यक्ति गरीब हैं। 14 साल की उम्र तक के बच्चों की आधी आबादी गरीब है। इसके बावजूद फुटबॉल की ऐसी लहर है वहां जिसकी ताकत वह पूरी दुनिया को दिखाता है और प्रतिष्ठा पाता है।

ऐसे में मेरे जेहन में यह सवाल उठना लाजिमी है और आपके मन में भी सवाल उठता ही होगा कि जब हमारे जिलों से भी कम आबादी वाले छोटे-छोटे मुल्क फुटबॉल के मैदान में बड़े-बड़े कारनामे दिखा सकते हैं तो 130 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला हमारा देश क्यों नहीं? क्या हमारे देश में फुटबॉल के लिए चाहत नहीं है? मुझे तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। पश्चिम बंगाल,  केरल, महाराष्ट्र और गोवा से लेकर असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर और यहां तक कि कश्मीर के सुदूर इलाकों में भी बच्चों को फुटबॉल खेलते देख सकते हैं। इन बच्चों में भी पेले, रोनाल्डो, मेस्सी, मबखौत, हुसैन सईद, नेमार और सुनील छेत्री जैसा खिलाड़ी बनने के बीज मौजूद हैं। जरूरत है इन्हें सही दिशा और सही ऊर्जा देने की। मगर हम यहां चूक रहे हैं। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में हम सौवें पायदान से भी नीचे चले गए। एक बात और कहना चाहूंगा कि हम में  जज्बे की कोई कमी कभी नहीं रही। याद कीजिए कि 1948 के लंदन ओलंपिक खेलों में फ्रांस के खिलाफ खेलने के लिए हमारे 11 में से 8 खिलाड़ी बिना जूतों के मैदान में उतरे थे। नगालैंड के रहने वाले  डॉक्टर और भारतीय टीम के कप्तान तालिमेरेन एओ से जब किसी ने सवाल किया तो उन्होंने हंसते हुए जवाब दिया था कि ‘भारत में हम फुटबॉल खेलते हैं, जैसे आप यहां बूटबॉल’ खेलते हैं।  

दुर्भाग्य यह रहा कि खेल को लेकर हमारी सरकारें उदासीन होती चली गईं। मुझे याद है कि 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विशेष प्रयासों से दिल्ली में एशियन गेम्स के आयोजन हुए तो दिल्ली की किस्मत तो चमकी ही, एशियाड का  शुभंकर अप्पू देश भर में छा गया। उसी दौरान भारत में रंगीन टेलीविजन भी छाया। यदि हम इस तरह के आयोजन लगातार कर रहे होते और खेलों को प्राथमिकता दी होती तो खेल के मैदान में हमारा भारत कहां से कहां पहुंच गया होता! खेलना बच्चों का नैसर्गिक गुण है लेकिन जब मैदान ही नहीं होंगे, खेलों के प्रति चेतना ही नहीं होगी तो अच्छे खिलाड़ी पैदा कैसे होंगे? आज देश में खेल का मतलब केवल क्रिकेट हो गया है। मैं क्रिकेट का भी शौकीन हूं। युवा अवस्था में क्रिकेट खेलता भी रहा हूं लेकिन यह कहां का इंसाफ है कि एक खेल के आभामंडल में दूसरे खेल पनप ही न पाएं। क्रिकेट को तो निजी क्षेत्र ने संभाल रखा है। कुछ हद तक फुटबॉल और दूसरे खेलों के लिए भी निजी क्षेत्रों ने सहयोग का हाथ बढ़ाया है लेकिन इतने से काम नहीं चलने वाला है। सरकार को दृढ़ता के साथ कदम बढ़ाने होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहल करनी होगी कि हमारे देश में भी अंतरराष्ट्रीय आयोजन हों। इससे इन्फ्रास्ट्रक्चर भी विकसित होगा और खेलों के प्रति बच्चों में चेतना और ललक पैदा होगी। राज्यों में खेल के विकास के लिए मुख्यमंत्रियों को निर्देश भी देने होंगे। उम्मीद करें कि वह दिन भी आए जब हमारे खिलाड़ी भी वर्ल्ड कप में गोल कर रहे हों और हम सीटियां बजाएं, झूमें, नाचें, गाएं और जश्न मनाएं...!

Web Title: Vijay Darda Blog Kick Like Football In World Politics

विश्व से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे