फ्रांस में संसदीय चुनाव के पहले चरण के बाद देश की धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली की पहली बार भारी विजय से इस पार्टी में नई उम्मीदें जगी हैं। हो सकता है कि पार्टी की इस विजय से फ्रांस में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार उसकी सरकार बने या यह भी हो सकता है कि किसी भी दल को चुनाव में बहुमत न मिल पाए और स्थिति त्रिशंकु सरकार की बने। चुनाव का दूसरा चरण अब सात जुलाई को है, जिससे मतदाता सरकार को लेकर निर्णायक फैसला कर सकेंगे।
बहरहाल, वहां सरकार की घरेलू नीतियों की वजह से उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे फ्रांस में सरकार के गठन को लेकर जितनी उत्सुकता फ्रांसवासियों को है, वहीं खास तौर पर यूरोप में धुर दक्षिणपंथी पार्टी की इस विजय के यूरोप में पड़ने वाले असर को लेकर यूरोप भी उत्सुकता भरी नजरों से देख रहा है, क्योंकि यूरोप की राजनीति में दक्षिणपंथ केवल फ्रांस तक ही सीमित नहीं रहा, इसकी पहुंच धीरे-धीरे बढ़ रही है।
इसी कशमकश में मैक्रों ने देश में मध्यावधि चुनाव कराने का बड़ा रिस्क लिया लेकिन पहले चरण के परिणाम उनके आकलन के अनुरूप नहीं निकले। दो हफ्ते पहले गत जून में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अचानक संसद को भंग करके मध्यावधि चुनाव कराने का ऐलान कर दिया था। हालांकि वहां धीरे-धीरे दक्षिणपंथी पार्टी अपनी पकड़ धीरे-धीरे मजबूत कर रही थी, इसके बावजूद राष्ट्रपति मैक्रो ने संसदीय चुनावों का ऐलान किया। अहम बात यह है कि इंग्लैंड, जर्मनी, स्वीडन जैसे यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों में भी दक्षिणपंथी दलों का वोट प्रतिशत बढ़ा है।
चुनाव के पहले चरण में नेशनल रैली को 33.1 फीसदी वोट मिले हैं जबकि वामपंथी गठबंधन 28 फीसदी मत पाकर दूसरे स्थान पर है। प्रधानमंत्री मैक्रों की पार्टी 20.7 फीसदी वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रही है।
पहले दौर की बढ़त के बाद धुर दक्षिणपंथी नेता मरीन ली पेन की आप्रवास विरोधी पार्टी नेशनल रैली के समर्थकों के हौसले बुलंद हैं। मरीन ली पेन और जॉर्डन बरदेला को फ्रांस की 577 सीटों वाली नेशनल असेंबली में पूर्ण बहुमत के लिए 289 सीटों की जरूरत है। पहले चरण की विजय के बाद मरीन ली पेन ने हालांकि कहा कि मैक्रों ग्रुप का लगभग सफाया हो गया है लेकिन माना जा रहा है कि वो पूर्ण बहुमत से दूर रह सकती है।
माना जा रहा है कि अगर दूसरे चरण में दक्षिणपंथी पार्टी या वामपंथी गठबंधन को बहुमत मिलता है तो मैक्रों के सामने एक अजीबोगरीब स्थिति उत्पन्न होगी क्योंकि मैक्रों को बहुमत वाली उस पार्टी के नेता को अपना प्रधानमंत्री चुनना होगा, जाहिर है कि ऐसी स्थिति में मैक्रों की योजनाओं को लागू करने में खासी परेशानी होगी।