रहीस सिंह का ब्लॉग, अफगानिस्तान के नागरिक अपने भाग्य पर इतराएं या रोएं!

By रहीस सिंह | Updated: July 20, 2021 17:21 IST2021-07-20T17:13:33+5:302021-07-20T17:21:14+5:30

आज की स्थिति के आधार पर यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि अफगानिस्तान जिस दलदल से लगभग 20 साल पहले थोड़ा सा बाहर आता हुआ दिखा था, अब वह पुनः उसी में धंसने की ओर बढ़ रहा है।

Citizens of Afghanistan take pride in their fate or cry! | रहीस सिंह का ब्लॉग, अफगानिस्तान के नागरिक अपने भाग्य पर इतराएं या रोएं!

फाइल फोटो

Highlightsअफगानिस्तान जिस दलदल से बाहर आता दिख रहा था, पुनः उसी में धंसने की ओर बढ़ रहा है।देखना है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी से उत्पन्न होने वाले संभावित खालीपन को भरेगा कौन?भारत एक रचनात्मक पहल कर सकता है, लेकिन चीन और पाकिस्तान इसमें बड़ी बाधा हैं। 

रहीस सिंह
प्रकृति की गोद में बसा वह देश, जिसके शोतरुघई, देसली और मुंडीगाक जैसे बहुत से पुरास्थल दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक ‘सिंधु-सरस्वती’ की खूबसूरत कहानी बयां करते हैं और जिसके बामियान जैसे स्थल एक महान कला (गांधार कला) में सन्निहित प्रतीकों के माध्यम से दुनिया को भारतीय उपमहाद्वीप की लौकिक सृजनशीलता और संदेशों से परिचित कराते हैं, अब किस हाल में है और उसे किस रूप में देखा जा रहा है? हम अफगानिस्तान की बात कर रहे हैं जो इतिहास की कई सदियों तक एशिया के व्यापारियों के लिए ‘क्रॉस रोड्स’ और तमाम संस्कृतियों के लिए 'मीटिंग प्लेस' के रूप में जाना जाता रहा। आज वह अपनी मौलिकता की मृत्यु का इतिहास लिख रहा है अथवा किसी चीज के उदय का, पता नहीं. सच तो यह है कि काबुलीवाले का देश एक अजीब सी स्थिति से गुजर रहा है। नाटो फौजें वापस जा रही हैं और नाटो देश भारी मन से घोषणा कर रहे हैं कि अफगानिस्तान में उनका 20 साल का सैन्य मिशन पूरा हो गया। अफगान बच्चे हिंदूकुश की तलहटी में बिखरे हुए कचरे के ढेर में अपनी जिंदगी तलाश रहे हैं, तालिबान फिर से पूरे आत्मविश्वास के साथ अफगानिस्तान में एक नई पटकथा लिख रहा है और मिस्टर प्रेसीडेंट (जो बाइडेन) व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम में बैठकर कह रहे हैं कि वहां (अफगानिस्तान) के लोगों को अपना भविष्य खुद तय करना चाहिए। ऐसे में अफगानिस्तान के लोग अपने भाग्य पर इतराएं या रोएं?

अब से कुछ समय पहले तक यह सवाल किया जा रहा था कि क्या तालिबान अमेरिकी गेम का हिस्सा बनेंगे, पर अब कहा जा रहा है, क्या अमेरिका तालिबान गेम का हिस्सा बन गया है। ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ? दरअसल तालिबान की चाहत अफगान समस्या का समाधान नहीं सत्ता रही है। इसके लिए उनके रोडमैप को ही शायद दोहा में मान्यता मिल गई। दोहा में लिखी गई अमेरिकी स्क्रिप्ट शांति का रोडमैप कम, अफगान लोकतंत्र और अफगान स्वतंत्रता को संकट में डालने का रोडमैप अधिक था। शायद इसलिए कि अमेरिका इज्जत के साथ अफगानिस्तान से निकल सके। ध्यान रहे कि पहले अमेरिकी सैनिकों द्वारा अफगानिस्तान छोड़ने की अवधि 11 सितंबर थी जो अब 31 अगस्त हो गई है। इसके बाद तालिबान के लिए काबुल की ओर जाने वाले राजमार्ग की बाधाएं कम व संभावनाएं ज्यादा हो जाएंगी।  

आज की स्थिति के आधार पर यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि अफगानिस्तान जिस दलदल से लगभग 20 साल पहले थोड़ा सा बाहर आता हुआ दिखा था, अब वह पुनः उसी में धंसने की ओर बढ़ रहा है। किसी भी विकल्प पर विचार करने से पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि अमेरिका अफगानिस्तान में तालिबान से लड़ते-लड़ते थक चुका है। शायद यही तालिबान का उद्देश्य भी था। ध्यान रहे कि करीब एक दशक पहले मुल्ला उमर के गुरु रहे आमिर सुल्तान तरार उर्फ कर्नल इमाम, जो कि इससे पहले पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का प्रमुख एजेंट रहा था और जिसने 1980 के दौरान अफगानिस्तान के प्रमुख आतंकी सरगनाओं व लड़ाकों को प्रशिक्षण दिया था तथा अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा था, ने कहा था कि, 'तालिबान कभी नहीं थकेंगे क्योंकि उन्हें लड़ने की आदत है। वे अमेरिकी सेना को खदेड़ तो नहीं सकते लेकिन उसे थका सकते हैं।' यही सच है क्यांकि तालिबान अस्सी के दशक से लगातार उसी भूमि पर लड़ रहे हैं, उन्हें अफगानिस्तान की भूमि पर युद्ध लड़ने का अनुभव अमेरिकी सेना से कहीं अधिक रहा। यदि अमेरिका वास्तव में थक चुका है, तो इस बात की संभावना नगण्य है कि वह तालिबान के खिलाफ नया इनीशिएटिव ले पाएगा।

अब देखना यह है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी से उत्पन्न होने वाले संभावित खालीपन को भरेगा कौन? वैसे चीन स्थितियों को गंभीरता से देख रहा है। इसकी भी संभावना है कि चीन और पाकिस्तान एक दूसरे का हाथ थामकर इस खालीपन को भरने की कोशिश करें। कारण यह कि चीन यह अच्छी तरह से जानता है कि यदि अफगानिस्तान गलत हाथों में पड़ गया तो क्षेत्र में निहित चीनी हित प्रभावित होंगे। हालांकि चीन अफगानिस्तान में खुलेआम शामिल होता दिखना नहीं चाहता या यूं कहें कि वह अफगानिस्तान के फंदे में सोवियत संघ और अमेरिका की तरह फंसना नहीं चाहता, लेकिन वह ‘शंघाई सहयोग संगठन’ व ‘चीन एंड सेंट्रल एशिया 5’ के माध्यम से रचनात्मक भूमिका निभाना चाहता है।

भारत एक रचनात्मक पहल कर सकता है। भारत इंडो-पैसिफिक में बनने वाले क्वाड का सक्रिय सदस्य है। चीन, रूस और सेंट्रल एशियाई देशों के साथ बने शंघाई सहयोग संगठन का भी सदस्य है तथा ब्रिक्स का भी, लेकिन चीन और पाकिस्तान इसमें बड़ी बाधा हैं और बिना सामूहिक प्रयास के अफगानिस्तान में मानवीय मूल्यों की स्थापना और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा संबंधी संभावनाएं शून्य के बराबर हैं। अफगानों में अब किसी तरह के युद्ध को झेलने और डेथ टोल अदा करने का साहस नहीं बचा है। उनकी बुझती उम्मीदों को लौ देनी होगी, संवेदनाओं को समझना होगा। लेकिन समझेगा कौन और क्यों?

Web Title: Citizens of Afghanistan take pride in their fate or cry!

विश्व से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे