CANADA 2025 Election: कनाडा का जनादेश भारत के लिए शुभ संकेत
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 6, 2025 05:46 IST2025-05-06T05:45:28+5:302025-05-06T05:46:12+5:30
CANADA 2025 Election: राष्ट्रवाद की भावनाएं प्रबल हैं. इस चुनाव का नतीजा भले ही मामूली अंतर से आया हो, लेकिन इसका असर गहरा है.

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प्रभु चावला-
भारत के लिए यह चुनाव किसी अंत की बजाय एक नई शुरुआत है. जगमीत सिंह और उनकी पार्टी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) की विदाई के साथ भारतीय प्रवासियों से जुड़ा कटुता और विवादों का माहौल कुछ समय के लिए शांत हो गया है. लोकतंत्र के मंच पर बहुत कम चुनाव इतने चौंकाने वाले और दिलचस्प होते हैं जितना कनाडा का हालिया संघीय चुनाव रहा. यह चुनाव उस समय हुआ जब दुनिया में आर्थिक हलचल मची हुई है और राष्ट्रवाद की भावनाएं प्रबल हैं. इस चुनाव का नतीजा भले ही मामूली अंतर से आया हो, लेकिन इसका असर गहरा है.
मार्क कार्नी एक चतुर तकनीकी विशेषज्ञ हैं और अब लिबरल पार्टी के नेता हैं. वह चुनाव जीतकर केवल प्रधानमंत्री ही नहीं बने, बल्कि भारत और अमेरिका के साथ बनते एक नए अंतरराष्ट्रीय रिश्ते के अहम किरदार भी बन गए. कार्नी का स्प्रेडशीट विशेषज्ञ से राजनीतिक नेता बनने का सफर राजनीति का विश्लेषण करने वालों के लिए चर्चा का विषय है.
हाल तक उन्हें एक बाहरी व्यक्ति माना जाता था, जिसमें कोई खास आकर्षण नहीं था, लेकिन उन्होंने 343 सीटों में से 168 सीटें जीतकर सर्वेक्षणकर्ताओं को चौंका दिया. यह आंकड़ा एक मजबूत बहुमत के करीब था, जो सरकार चलाने के लिए काफी था. बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ कनाडा के अनुभव की वजह से उनके पास एक मजबूत आर्थिक दृष्टिकोण था.
यही उन मतदाताओं को भाया जो लोकप्रिय नेताओं के झूठे वादों और विचारों से थक चुके थे. कनाडा का 2025 का चुनाव केवल घरेलू बदलाव नहीं था, यह नाराजगी के कारण किए जाने वाले सार्वजनिक प्रदर्शनों पर एक जनमत संग्रह भी था. पियरे पोइलीवरे के नेतृत्व में कंजर्वेटिव पार्टी धमाकेदार शुरुआत के साथ मैदान में उतरी, लेकिन अंत में उन्हें शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा.
पोइलीवरे का विवादास्पद रवैया, असामान्य विचारधाराओं के प्रति झुकाव और भारतीय हिंदुत्व से तालमेल की कोशिश ने मध्यमार्गी जनता को दूर कर दिया. उनका अभियान, जो पहले एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जा रहा था, अब एक चेतावनी बन गया. एक पार्टी जो सत्ता में आने के लिए तैयार लग रही थी, अब अलग-थलग पड़ गई.
कनाडाई राजनीति में कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पियरे पोइलीवरे और उनकी पार्टी ने केवल स्वतंत्रता जैसे नारे दिए, जबकि असल निर्णय और नीति निर्माण के काम में लिबरल पार्टी के मार्क कार्नी जैसे नेता लगे हुए थे. लेकिन जिस तरह जगमीत सिंह की राजनीतिक यात्रा दुखद समापन हुआ था, वैसा उदाहरण क्वचित ही दिखता है.
टीवी पर एनडीपी के लोकप्रिय, लेकिन खालिस्तानी समर्थक नेता, जिन्हें अक्सर दुखियारे प्रवासी समुदाय का प्रतिनिधि माना जाता था, बर्नाबी सेंट्रल में अपनी सीट हार गए. उनकी पार्टी 25 सीटों से घटकर एकल अंक में पहुंच गई. पार्टी ने 1993 के बाद पहली बार आधिकारिक पार्टी का दर्जा खो दिया. सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सिंह अब केवल एक दर्शक बनकर रह गए.
उनका पतन केवल एक मामूली हार नहीं थी, बल्कि जाति, धर्म, नस्ल आदि के नाम पर की जाने वाली राजनीति का तीव्र विरोध था. सिंह ने भारत के खिलाफ लगातार बयान दिए, खालिस्तानी अलगाववाद का खुलकर समर्थन किया और 2023 में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या पर जोर-शोर से नाराज़गी जताई.
इन सब बातों ने भले ही कुछ छोटे और खास वर्गों को खुश किया हो, लेकिन चुनाव के मैदान में यह सब उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ. कनाडाई वोटरों ने साफ कर दिया कि वे टकराव नहीं, शांति चाहते हैं. अच्छा शासन चाहते हैं. सिंह भले ही प्रतीकात्मक रूप से कुछ लोगों के लिए अहम रहे हों, लेकिन एक आम नेता के रूप में वे भरोसा जीतने में नाकाम रहे.
बर्नाबी के लोगों ने सिर्फ उनकी राजनीति को नहीं नकारा, बल्कि उन्हें पूरे राजनीतिक परिदृश्य से ही बाहर कर दिया. 14 लाख लोगों का यह भारतीय-कनाडाई समुदाय में प्रवासी, मेहनतकश और मध्यम वर्ग के लोग शामिल हैं. ये लोग कनाडा की एक रंग-बिरंगी तस्वीर पेश करते हैं. ओंटेरियो और ब्रिटिश कोलंबिया के ब्रैम्पटन, मिसीसॉगा और सरी जैसे जिन इलाकों में कांटे का चुनाव था,
वहां इसी समुदाय के वोटों ने जीत तय की और मार्क कार्नी की संतुलित और मध्यममार्गी राजनीति को आगे बढ़ाया. इस बार चुनाव में 65 भारतीय मूल के लोग उम्मीदवार थे, जिनमें से लगभग 20 जीत गए, ज्यादातर लिबरल पार्टी से थे. अनिता आनंद, कमल खेड़ा, परम बैंस और सुख धालीवाल जैसे कई पुराने नेता फिर से चुनकर आए.
ये नाम ओटावा की राजनीति में भी जाने जाते हैं और दिल्ली में भी चर्चा में रहते हैं. भारतीय मूल के वोटरों द्वारा सिंह को नकारना एक परिपक्व होती राजनीतिक सोच को दिखाता है. उनका संदेश साफ था कि हमें दूसरे झगड़ों के लिए मोहरे की तरह इस्तेमाल करना बंद करो. हम किसी की सुविधा के हिसाब से काम आने वाला वोट बैंक नहीं हैं. सबसे पहले हम नागरिक हैं.
भावनात्मक जुड़ाव बाद में आता है. यह बदलाव छोटा नहीं है. कई सालों तक भारत के नेता प्रवासी भारतीयों को एक कमजोर मानकर अपने हिसाब से इस्तेमाल करते आ रहे थे. कभी प्यार से, तो कभी दबाव बनाने के हथियार की तरह. लेकिन इस चुनाव ने दिखा दिया कि अब इस समुदाय का अपने स्वार्थ के लिए आसानी से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
अब भारतीय-कनाडाई वोटर सोच-समझकर फैसला करता है. यह एक बहुत बड़ा बदलाव है, जब एक पूरा समुदाय भावनाओं में बहने की जगह वास्तविकता को स्वीकार करता है. भारत के लिए, यह चुनाव किसी का अंत का नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत है. सिंह की हार और एनडीपी की हार के साथ, भारतीय प्रवासियों से जुड़ी नफरत का माहौल कुछ समय के लिए शांत हो गया है.
अब हमें सिर्फ अफवाहों और अटकलों की जगह सच्चे और स्पष्ट शब्दों का इस्तेमाल करना होगा और संदेह की बजाय ठोस और प्रतिबद्ध रुख अपनाना होगा. कनाडा के मामलों में हस्तक्षेप न करने का स्पष्ट बयान देकर हस्तक्षेप की छवि को तोड़ा जा सकता है. इसके लिए हमारे पास पहले से ही सही मौके हैं, जैसे ब्रैम्पटन में बॉलीवुड महोत्सव, दिल्ली में व्यापार सम्मेलन और इंडो-कनाडाई विश्वविद्यालय फैलोशिप. भारत को अब साजिशों को फैलाने वालों को जवाब देना होगा और प्रवासी नेताओं से समझदारी से बातचीत करनी होगी. कार्नी उग्र नेता नहीं हैं.
वह स्थिर और व्यवस्थित तरीके से बदलाव लाने का प्रयास करते हैं. यही कारण है कि वह मोदी के अच्छे साथी हैं, क्योंकि मोदी उच्च स्तर की कूटनीति पसंद करते हैं लेकिन अब उन्हें भी संवेदनशील मामलों में विवेक से काम लेना होगा. कार्नी की मुख्य चुनौती ट्रंप-युग की अनिश्चितताओं को इस तरह से संभालना होगी कि वे न तो अधिक अधीन दिखाई दें और न ही विचारधारात्मक रूप से अलग-थलग.
भारत की चुनौती होगी कार्नी के सतर्क दृष्टिकोण को समझना और साथ ही गुस्सैल और विवादप्रिय प्रवासी प्रतिनिधि नेताओं को दूर करना. 2025 के संयुक्त राष्ट्र महासभा में कार्नी और मोदी का हाथ मिलाना सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं होगा. यह एक नई कूटनीतिक दिशा की शुरुआत हो सकती है,
जो जलवायु सहयोग, आतंकवाद विरोधी, साइबर नीति और स्वच्छ तकनीकी से जुड़ी होगी. इससे बीजिंग को यह संदेश जाएगा कि सॉफ्ट पावर अब नई हार्ड पावर बन गई है और कनाडा और भारत इसे बिना कड़ा या आक्रामक रुख अपनाए सौम्यता, और समझदारी से दिखा सकते हैं.