कुछ लोग हैरत जता रहे हैं कि तालिबान ने इतने कम समय में इतने बड़े इलाके पर कैसे कब्जा कर लिया। मजहबी ढपोरशंख कई सौ सालों से किसी भी युद्ध के विश्लेषण के लिए एक ही टूल इस्तेमाल कर रहे है। लड़ाई जीत गये तो अल्लाह की रहमत और हार गये तो उसकी मर्जी। जहाँ मरने और मारने वाले दोनों ही मुसलमान हों वहाँ अल्ला की कन्फ्यूजन समझना इनके वश की बात नहीं। लेकिन सोचने-समझने वाले लोग युद्ध में जीत और हार के भौतिक कारणों के विश्लेषण में रुचि रखते हैं।
अहमद रशीद तालिबान के बड़े जानकार माने जाते हैं। उन्होंने पाकिस्तानी पत्रकार गुल बुखारी से बातचीत में कहा कि तालिबान ने जिस तरह की रणनीति इस बार अपनायी है वह सामान्य नहीं है। तालिबान ने ग्रामीण इलाकों पर कब्जा करने के बाद शहरी इलाकों की ओर रुख किया है। तालिबान के पास सभी मूवमेंट के लिए जरूरी इंटेलीजेंस मुहैया थी। तालिबान के जो नेता 20 सालों से पाकिस्तान के क्वेटा इत्यादि में आराम से रह रहे हैं वो अब भी वहीं आराम से हैं। यहाँ याद दिला दें कि फिलवक्त तालिबान का राजनीतिक कार्यालय कतर में है। अफगान सरकार कतर सरकार की मध्यस्थता में ही तालिबान से बातचीत कर रही है।
जाहिर है कि तालिबान का यह हमला लम्बे समय की रणनीति का परिणाम है। तालिबान के पास अफगानिस्तान वायुसेना के पायलटों के ठिकानों तक की जानकारी मौजूद है। उन्होंने वायुसेना से मुकाबला करने की यह तरकीब ईजाद की कि पायलटों को खोजकर उनकी हत्या कर दो। जिस तरह अफगान सेना के कई कमाण्डरों ने एवं अन्य गुटों के सरगनाओं ने तालिबान से हाथ मिलाया है उसके पीछे डर कम और रणनीति ज्यादा दिखती है।
जाहिर है कि अफगानिस्तान की मौजूदा हालात के लिए अमेरिकी दोहरापन भी जिम्मेदार है। अमेरिका जब तक अफगानिस्तान में था उसने तालिबान को नियंत्रित रखा लेकिन अहमद रशीद के अनुसार उस दौरान तालिबान आराम से पाकिस्तान में सुखी जीवन जीते रहे। अहमद रशीद के अनुसार दुनिया के किसी मुल्क में दहशतगर्दी तभी फल-फूल पाती है जब उग्रवादियों के पास कोई शरणगाह हो जहाँ वो अपना इलाज करा सकें, आराम कर सकें और प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। पाकिस्तान तालिबान के लिए 20 साल तक शरणगाह बना रहा और अमेरिका उसकी तरफ आँख मूँदे रहा।
अमेरिका ने जिस तरह हाबड़-धाबड़ में तालिबान को वार्ता में शामिल कर के उन्हें वैधता प्रदान की और जमीनी हालात की अनदेखी कर के वहाँ से जल्दबाजी में निकल गया उसने भी अफगानिस्तान के लिए मुश्किल पैदा की।
कई विद्वान मानते हैं कि पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई नहीं चाहती कि अफगानिस्तान में स्थिर सरकार बने क्योंकि उन्हें भारत-अफगान के स्थायी रिश्तों से डर लगता है। भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में बेहतरी से पाकिस्तान काफी बेचैन रहता है। अफगानिस्तान की स्थायी सरकार से भारत के दोस्ताना रिश्तों के बाद पाकिस्तान खुद को दो भारत-दोस्त देशों के बीच सैण्डविच के आलू-टिक्की जैसा महसूस करेगा।
तालिबान और पाकिस्तान की दूसरी मुश्किल है ईरान। ईरान और भारत भी पुराने दोस्त हैं। हाल के दशकों में अमेरिकी दबाव में आयी थोड़ी ऊँच-नीच के बावजूद दोनों देश एक दूसरे पर भरोसा करते हैं। आपको याद ही होगा कि इस इलाके में ईरान स्थित चाहबहार पोर्ट जिसमें भारत भागीदार है और पाकिस्तान स्थित ग्वादर पोर्ट जो चीन बना रहा है, के बीच होड़ है।
तालिबान का ट्रम्प कार्ड इस्लामी निजाम ही उसकी सबसे बड़ी मुश्किल भी है। रूस को चेचन्या में, चीन को शिनझिंयाग में खुद पाकिस्तान को बलूचिस्तान और केपीके में इस्लामी जिहादियों से समस्या है। आपको याद होगा कि आईएसएस के अब बक्र बगदादी ने भी खुद को दारुल इस्लाम का खलीफा घोषित किया था। वैसे तो यह स्थानीय राजनीति का खेल होता है लेकिन इसका दूरगामी असर दूसरे देशों के भटकी हुई अवाम पर होना लाजिमी है।
जिनके जहन में प्रोपगैण्डा मशीनरी ने भर दिया है कि एक दिन इस्लामी निजाम कायम होगा उन्हें किसी दूर देश में इस्लामी निजाम की पुकार सुनायी देने पर वो थोड़े भ्रमित हो जाएँ तो कौन सी बड़ी बात है। लेकिन जमीनी हकीकत क्या है? तालिबान सुन्नी इस्लाम के एक फिरके से वाबस्ता है। अफगानिस्तान के चारो तरफ जिन बड़ी ताकतों का शिकंजा है वो कौन हैं? रूस, चीन, अमेरिका, भारत का तो सबको पता है, ईरान भी शिया इस्लाम वाला देश है। इस भसड़ में भारत सबसे सुरक्षित है। काबुल पर चाहे जिसकी हुकूमत हो भारत उससे दोस्ती कर लेगा क्योंकि अफगानी राष्ट्रवाद मूलतः एंटी-पाकिस्तान है।