अफगानिस्तान के भविष्य पर उठते सवाल, मनोज जोशी का ब्लॉग

By मनोज जोशी | Published: August 18, 2021 03:03 PM2021-08-18T15:03:19+5:302021-08-18T15:04:39+5:30

तालिबान ने अन्य सबक पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों में सीखे हैं, जहां उसके नेताओं तक को आईएसआई की कठोरता का सामना करना पड़ा.

afghanistan news rescue america taliban Questions arising on the future Manoj Joshi's blog | अफगानिस्तान के भविष्य पर उठते सवाल, मनोज जोशी का ब्लॉग

पाकिस्तान से नजदीकी संबंध हैं और जो तालिबान के सबसे प्रभावी सैन्य दल का प्रमुख है.

Highlightsमुल्ला अब्दुल गनी बरादर को आठ साल तक जेल में बंद रहना पड़ा था. 1990 के दशक में तालिबान का नेतृत्व मुल्ला उमर के हाथों में था.वर्तमान नेतृत्व हैबतुल्ला अखुंदजादा के हाथों में है.

इतिहास अपने आपको नहीं दोहराता. ऊपरी तौर पर अफगानिस्तान की घटनाएं भले ही पुनरावृत्ति लगे, लेकिन हकीकत यह है कि वे अलग तरह से सामने आएंगी. आंतरिक किरदार वही नहीं हैं, न ही बाहरी.

दिखाई दे रहा है कि पिछली बार से कुछ सबक इस बार सीखे गए हैं और निपटने के अन्य तरीकों को संशोधित किया गया है. काबुल में जिन्होंने सत्ता पर कब्जा किया है, उन्होंने भले ही अपने पूर्ववर्ती तालिबानियों की तरह के कपड़े पहन रखे हो और उन्हीं की भाषा बोल रहे हों लेकिन वे अमेरिका के नेतृत्व वाले युद्ध से प्रभावित नहीं हैं जिसने उनके साथियों और हजारों देशवासियों को मार डाला.

तालिबान ने अन्य सबक पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों में सीखे हैं, जहां उसके नेताओं तक को आईएसआई की कठोरता का सामना करना पड़ा. उदाहरण के लिए मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को आठ साल तक जेल में बंद रहना पड़ा था. 1990 के दशक में तालिबान का नेतृत्व मुल्ला उमर के हाथों में था, जबकि वर्तमान नेतृत्व हैबतुल्ला अखुंदजादा के हाथों में है, जो भले ही विद्वान हो और जिसे अमीर-उल-मोमिनीन की उपाधि भी मिली है लेकिन उमर की तरह उसे तालिबानों की एकछत्र वफादारी हासिल नहीं है.

सीधे चुनौती देने वाले लोग तो उसके आसपास नहीं हैं लेकिन तालिबान के सहसंस्थापक और मुल्ला उमर के सहायक मुल्ला बरादर जैसी बड़ी हस्तियां मौजूद हैं. बरादर को अमेरिका के आग्रह पर छोड़ा गया था, जो शांति वार्ता चाहता था और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि उसने कतर की राजधानी दोहा स्थित तालिबान के राजनयिक कार्यालय का नेतृत्व किया, जो संगठन की चतुर कूटनीति के लिए जिम्मेदार रहा है. इसके बाद हक्कानी नेटवर्क से जुड़ा सिराजुद्दीन हक्कानी है, जिसके पाकिस्तान से नजदीकी संबंध हैं और जो तालिबान के सबसे प्रभावी सैन्य दल का प्रमुख है.

अभी हम नहीं जानते कि काबुल में गठित होने वाली सरकार का स्वरूप क्या होगा. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इसमें तालिबान सत्ता की मुहर होगी. अनेक लोगों के दिमाग में यह स्वाभाविक सवाल है कि क्या तालिबान अपनी मध्ययुगीन बर्बरताओं, जैसे महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध, सभी पुरुषों के लिए दाढ़ी रखने का फरमान, चोरों के हाथ काटने जैसा कठोर न्याय और सार्वजनिक स्थानों पर कोड़े मारने जैसी सजा का क्रियान्वयन करेगा? तालिबान जानता है कि इस तरह के व्यवहार की पुनरावृत्ति से निश्चित रूप से दुनिया में उसके बहिष्कार को बढ़ावा मिलेगा.

ऐसे प्रतिबंध लगाए जाएंगे जिससे उसे विदेशी सहायता मिलनी कठिन हो जाएगी. इसीलिए उसने दुनिया को आश्वस्त  किया है कि उन्होंने काबुल में सिर्फ इसलिए प्रवेश किया क्योंकि वहां कानून-व्यवस्था चरमरा गई थी. इसके बाद उन्होंने सरकारी अधिकारियों को काम पर लौटने के लिए आम माफी भी जारी की.

उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि तालिबान ने अपने सैन्य अभियान की योजना अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ तो बनाई ही, प्रमुख विदेशी मददगारों तक पहुंचने के लिए भी यही समय चुना. तालिबान के प्रतिनिधिमंडल, जिसमें कुछ का नेतृत्व खुद मुल्ला बरादर ने किया, ने रूस, तुर्कमेनिस्तान, ईरान और चीन का दौरा करते हुए उन्हें आश्वस्त किया कि तालिबान का उनके हितों को चोट पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है. जहां तक अमेरिका का सवाल है, उससे उन्हें फरवरी 2020 में ही अपना मनचाहा मिल गया था, जब अमेरिका 14 महीनों में अपने सैनिकों को हटा लेने पर राजी हो गया.

बदले में अमेरिका को यह वचन मिला कि तालिबान  किसी भी समूह या व्यक्ति को अपनी जमीन का उपयोग अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के खिलाफ नहीं करने देगा. अमेरिकी चाहते तो इस बात पर जोर दे सकते थे कि उनकी वापसी शुरू होने से पहले युद्धविराम हो या उनके जाने से पहले एक संक्रमणकालीन सरकार स्थापित हो. लेकिन उन्होंने सिर्फ यह किया कि सिर्फ खुद के लिए एक समयसीमा तय कर ली और बाकी चीजों को  छोड़ दिया. कूटनीति और अपने सैन्य बल के कुशल उपयोग से तालिबान ने जमीनी हकीकत को बदल दिया.

लेकिन जो होना था, हो गया. अब तालिबान के नेतृत्व वाले अफगानिस्तान का क्या भविष्य होगा? कुछ मायनों में यह कहना जल्दबाजी होगा. यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तालिबान कितना बदला है. साथ ही वह यह सुनिश्चित करने के प्रति कितना गंभीर है कि वह अपने पड़ोसियों और अन्य देशों के लिए खतरा नहीं बनेगा. यह उसकी सामाजिक नीतियों पर भी निर्भर करेगा.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय  उस सरकार से कोई मेल-मिलाप नहीं रखेगा जो अपने देश की महिलाओं पर मध्ययुगीन प्रतिबंध लगाता हो. पिछले दो दशकों में अफगान महिलाओं को शिक्षा का लाभ मिला है और उनका नजरिया बदला है. उनके पास दुनिया भर में समर्थकों का नेटवर्क भी है जो ऐसी हालत में अपनी सरकारों को तालिबान के साथ जाने की अनुमति नहीं देंगे.

इसमें कोई शक नहीं कि तालिबान नेतृत्व रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान जैसे अन्य साझीदारों की ओर देख रहा होगा. लेकिन इनमें से केवल चीन के पास ही किसी हद तक उसकी मदद करने की क्षमता है. लेकिन उन्हीं की तरह कठोर होने के कारण तालिबान के लिए उनसे मेल-मिलाप रखना आसान नहीं होगा.

भारत अफगास्तिान में हार गया है. वहां पर हमारी उपस्थिति मुख्य रूप से अमेरिकी सैन्य शक्ति पर ही निर्भर थी. यह समय देखने और इंतजार करने का है कि घटनाक्रम कैसी करवट लेते हैं. बहुत से भारतीय चिंतित हैं कि इस्लामाबाद फायदे में है. लेकिन जिस तेजी से चीजें बदली हैं, उसे देखते हुए बहुत से पाकिस्तानी यह सोचने को बाध्य होंेगे कि उन्हें आखिर क्या फायदा मिला है.

Web Title: afghanistan news rescue america taliban Questions arising on the future Manoj Joshi's blog

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